नई दिल्ली : रचनाओं के संसार में कल्पना के रंग भर देने वाले गुलजार साहब की कविताएं, गजलें सिर्फ दिमाग को नहीं बल्कि दिलों को छू जाती हैं. आवाज और शब्दों को पिरोने की कला में माहिर गुलजार का आज जन्मदिन है. अविभाजित भारत में आज ही के दिन 1934 में गुलजार का जन्म झेलम में हुआ था. खिलौने पकड़ने की उम्र में कलम थाम लोगों की रुह को छूने वाली कविताओं की रचना करने वाले गुलजार की कहानी रुपहले पर्दे की कहानी से कम नहीं है.


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जरूरी चीजों और मां की ममता के अभाव में बचपन गुजराने वाले गुलजार की कहानियों में दर्द साफ झलकता है. कई फिल्मफेयर और ग्रैमी अवार्ड से नवाजे जा चुके गुलजार की कविताएं आज भी जब भरी महफिल में सुनी जाती हैं तो लोगों का दिल भर आता है. किसी की आंखों में बिछड़े प्यार के आंसू होते हैं, तो कोई मां के स्पर्श को याद कर आंखों को तक्लीफ देता है. गुलजार के तारीफों को शायद शब्दों में पिरोना किसी के लिए भी मुश्किल होगा. इसलिए आज उनके जन्मदिन पर नजर डालते हैं उनकी कुछ ऐसी ही कविताओं पर...


अविभाजित भारत में आज ही के दिन 1934 में गुलजार का जन्म झेलम में हुआ था.

देखो, आहिस्ता चलो!
देखो, आहिस्ता चलो, और भी आहिस्ता ज़रा,
देखना, सोच-सँभल कर ज़रा पाँव रखना,
ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं.
काँच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में,
ख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जाये देखो,
जाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जाएगा.


किताबें!
किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से,
बड़ी हसरत से तकती हैं.
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं,
जो शामें इन की सोहबत में कटा करती थीं.
अब अक्सर .......
गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पदों पर.
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें ....
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं,
कि जिनके 'सेल' कभी मरते नहीं थे,
वो क़दरें अब नज़र आतीं नहीं घर में,
जो रिश्ते वो सुनाती थीं.
वह सारे उधड़े-उधड़े हैं,
कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है,
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं.
बिना पत्तों के सूखे ठूँठ लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़,
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते,
बहुत-सी इस्तलाहें हैं,
जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं,
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला.
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ्हे पलटने का,
अब ऊँगली 'क्लिक' करने से बस इक,
झपकी गुज़रती है,
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर,
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है.
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे,
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर.
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से,
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी.
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल,
और महके हुए रुक्क़े,
किताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे,
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !


कंधों पर उठा लूं
आओ तुमको उठा लूँ कंधों पर
तुम उचककर शरीर होठों से चूम लेना
चूम लेना ये चांद का माथा
आज की रात देखा ना तुमने
कैसे झुक-झुक के कोहनियों के बल
चांद इतना करीब आया है


मौत तू एक कविता है!
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको,
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आए
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको.