चिपको आंदोलन: जब इंदिरा गांधी को पेड़ों की कटाई पर बैन लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा...
1973 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश के पर्वतीय अंचल के ऊपरी अलकनंदा घाटी के मंडल गांव में चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई.
पर्यावरण संरक्षण के इरादे से आजादी के बाद के सबसे बड़े आंदोलनों में शुमार चिपको आंदोलन की 26 मार्च को 45वीं वर्षगांठ हैं. गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित इस अहिंसक आंदोलन की सबसे बड़ी खूबी यह रही कि इसका नेतृत्व महिलाओं ने किया था. इसलिए गूगल ने चिपको आंदोलन पर डूडल बनाने के साथ ही इसको ईको-फेमिनिस्ट आंदोलन कहा. गूगल ने इस बारे में लिखा, ''महिलाओं ने ही आंदोलन के केंद्रीय ताने-बाने को बुना. ऐसा इसलिए भी वृक्षों की कटाई के कारण जंगल में लकड़ी की कमी और पीने के पानी का अभाव से यही समूह सीधे तौर पर प्रभावित होता.''
चिपको आंदोलन
1973 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश के पर्वतीय अंचल के ऊपरी अलकनंदा घाटी के मंडल गांव में चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई. उसके बाद यह पहाड़ के अन्य हिमालयी जिलों में फैल गया. दरअसल सरकार ने जंगल की जमीन को खेल का सामान बनाने वाली एक कंपनी को देने का फैसला किया था. उसके विरोध में ही इस आंदोलन की शुरुआत हुई. उस फैसले का विरोध करने के लिए ग्रामीण विशेष रूप से महिलाएं पेड़ों के चारों तरफ घेरा बनाकर उससे चिपक जाती थीं. इससे पेड़ों को काटना मुश्किल हो गया.
स्थानीय महिलाओं की अगुआई में शुरू हुए इस आंदोलन का प्रसार चंडी प्रसाद भट्ट और उनके एनजीओ ने किया. गांधीवादी विचारक सुंदरलाल बहुगुणा ने इस आंदोलन को दिशा दी और उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से पेड़ों की कटाई रोकने का आदेश देने की अपील की. उसका नतीजा यह हुआ कि पेड़ों की कटाई को बैन कर दिया गया. उत्तर प्रदेश की सफलता के बाद यह आंदोलन देश के अन्य हिस्सों में फैल गया. धूम सिंह नेगी, बचनी देवी, गौरा देवी और सुदेशा देवी इस आंदोलन से जुड़ी प्रमुख हस्तियां थीं.
चिपको आंदोलन के 45 साल पूरे होने को गूगल ने डूडल बनाकर किया सेलिब्रेट
प्रेरणा
कहा जाता है कि चिपको आंदोलन की प्रेरणा 18वीं सदी में राजस्थान में हुए आंदोलन से ली गई थी. उस दौर में जोधपुर के महाराजा ने पेड़ों को काटने का आदेश दिया था. उसके खिलाफ बिश्नोई समुदाय के लोग पेड़ों से चिपककर उनको काटने से बचाते थे. इसके तहत अमृता देवी के नेतृत्व में 84 गांवों के 383 लोगों ने खेजड़ी पेड़ों को बचाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान किया. उसका नतीजा यह हुआ कि इस आंदोलन की गूंज जब महाराज के कानों तक पहुंची तो उनको अपनी गलती का अहसास हुआ. लिहाजा शाही आदेश जारी कर बिश्नोई समुदाय से जुड़े गांवों में पेड़ों की कटाई पर बैन लगा दिया गया.