1964 के बाद `लेफ्ट` पर सबसे गहरा संकट, लेकिन `बॉस` येचुरी को मिल सकती है राहत
2011 में पश्चिम बंगाल और अब त्रिपुरा में माकपा(सीपीएम) के नेतृत्व में वाम मोर्च की हार को 1964 के बाद सियासी अस्तित्व के लिहाज से लेफ्ट के लिए सबसे बड़ा संकट माना जा रहा है.
त्रिपुरा में 25 साल बाद वाम मोर्चे की सरकार का सत्ता से बाहर होना 'लेफ्ट' के लिए किसी सदमे से कम नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि अब केवल केरल ही ऐसा राज्य बचा है जहां 'लेफ्ट' की सरकार है. 2011 में पश्चिम बंगाल और अब त्रिपुरा में माकपा(सीपीएम) के नेतृत्व में वाम मोर्च की हार को 1964 के बाद सियासी अस्तित्व के लिहाज से लेफ्ट के लिए सबसे बड़ा संकट माना जा रहा है. 1964 में अविभाजित भाकपा(सीपीआई) में विभाजन के वक्त भी 'लेफ्ट' के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराए थे.
सीताराम येचुरी
इस हार के बाद माकपा में फिर से यह आवाजें उठनी लगी हैं कि सियासी दुश्मन नंबर एक बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस जैसे सेक्युलर दलों के साथ समझौता या गठजोड़ करने की जरूरत है. हालिया दौर में यह माकपा जनरल सेक्रेट्री सीताराम येचुरी की लाइन है. वह चाहते हैं कि 2019 में बीजेपी को हराने के लिए 'लेफ्ट' को कांग्रेस के साथ सहयोग करने से गुरेज नहीं करना चाहिए. इसी जनवरी में कोलकाता में आयोजित पार्टी की सेंट्रल कमेटी की बैठक में उन्होंने इस आशय संबंधी अपने ड्राफ्ट को पेश किया था. इसके लिए सीताराम येचुरी को लेफ्ट की बंगाल यूनिट का समर्थन प्राप्त था. लेकिन प्रकाश करात गुट के विरोध की वजह से उनका यह प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया. हताश सीताराम येचुरी ने इस्तीफे की पेशकश कर दी लेकिन कमेटी ने उनका जनरल सेक्रेट्री पद से इस्तीफा स्वीकार नहीं किया और उनसे पद पर बने रहने का आग्रह किया गया.
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प्रकाश करात
माकपा के पूर्व जनरल सेक्रेट्री प्रकाश करात गुट का कहना है कि पार्टी को कांग्रेस से तालमेल करने की जरूरत नहीं है. उसके पीछे उनका तर्क है कि भले ही इस तरह का समझौता राष्ट्रीय स्तर पर होगा लेकिन केरल, त्रिपुरा और बंगाल जैसे राज्यों में अभी तक कांग्रेस के खिलाफ ही लेफ्ट का संघर्ष रहा है. दूसरी बात, पिछले बंगाल चुनावों में लेफ्ट और कांग्रेस ने परोक्ष रूप से सहयोग किया लेकिन जनता ने उसे स्वीकार नहीं किया. इसलिए करात गुट का कहना है कि लेफ्ट को अपने दम पर विकल्प देने की कोशिश करनी चाहिए. माणिक सरकार के नेतृत्व में त्रिपुरा और केरल यूनिटें प्रकाश गुट की लाइन की ही समर्थक मानी जाती रही हैं.
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बदलते तेवर
लेकिन अब माणिक सरकार के नेतृत्व में त्रिपुरा में लेफ्ट की हार के बाद से फिर कांग्रेस जैसे 'सेक्युलर' दलों के साथ तालमेल की मांग पार्टी के भीतर से उठने लगी है. ये आवाजें आने वाले दिनों में तेज होंगी क्योंकि अप्रैल में माकपा का विशाखापत्तनम में राष्ट्रीय अधिवेशन होने जा रहा है. इस अधिवेशन में पार्टी की भविष्य की राजनीतिक लाइन संबंधी ड्राफ्ट पर मुहर लगेगी. ऐसे में त्रिपुरा हार के बाद बदलते सियासी घटनाक्रम और राजनीतिक वजूद के संकट से जूझ रही माकपा की अप्रैल में होने जा रही बैठक में सीताराम येचुरी के व्यवहारिक सैद्धांतिक लाइन संबंधी ड्राफ्ट को अपनाने से इनकार करना थोड़ा मुश्किल होगा.