नई दिल्‍ली:  आज हम नमक की उस यात्रा के बारे में आपको बताएंगे, जिसने भारत की आज़ादी के लिए सत्याग्रह का सूत्र स्पष्ट किया और ये बताया कि भारतीय संस्कारों में नमक का महत्व ईमानदारी से है, भरोसे से है और हमारे लिए नमक सिर्फ़ स्वाद की चीज़ नहीं है. हमारे लिए ये निभाने की एक परम्परा है और ये एक गुण है.


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भारत एक ऐसा देश है, जहां कहा जाता है कि मैंने देश का नमक खाया है. सार्वजनिक जीवन में भी लोग एक दूसरे से कहते हैं कि मैंने आपका नमक खाया है. नमक असल में हमें अपने और दूसरों के प्रति ईमानदार रहने की शक्ति देता है और इसी शक्ति ने आज से 91 वर्ष पहले एक बहुत बड़ी क्रांति को जन्म दिया था और आज हम इसी के बारे में आपको बताएंगे. 


नमक सत्याग्रह ऐसे बना जन आंदोलन


91 वर्ष पहले आज ही के दिन 12 मार्च 1930 को अहमदाबाद से नमक सत्याग्रह शुरू हुआ था और तब इसने देश में सत्याग्रह का सूत्र स्पष्ट कर दिया था. उस समय महात्मा गांधी ने अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से दांडी मार्च की शुरुआत की थी. दांडी एक जगह है, जो गुजरात के नवसारी में है. उस वक्‍त देश पर अंग्रेज़ों का शासन था और ब्रिटिश सरकार नमक पर टैक्स वसूलती थी. इसी के ख़िलाफ़ तब गांधीजी ने दांडी तक 390 किलोमीटर की पैदल यात्रा निकाली, जो 24 दिनों तक चली थी. उन्होंने 6 अप्रैल 1930 को दांडी में अंग्रेज़ों का नमक क़ानून तोड़ा था. इन दृश्यों ने भारत के लोगों तक ये संदेश पहुंचाया कि हम अंग्रेज़ों से आज़ाद हो सकते हैं और इसी के बाद नमक सत्याग्रह को लोगों ने बड़ी उत्सुकता से अपना लिया और देखते ही देखते ये बड़ा जन आंदोलन बन गया. 


अमृत महोत्सव कार्यक्रम की शुरुआत 


इस सत्याग्रह के ठीक 17 वर्षों के बाद भारत को 15 अगस्त 1947 को अंग्रेज़ों से आज़ादी मिली और वर्ष 2022 में इसी आज़ादी को 75 वर्ष पूरे हो जाएंगे. कल 12 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसे लेकर अमृत महोत्सव कार्यक्रम की शुरुआत की. साबरमती आश्रम की विजिटर बुक में पीएम मोदी ने अपना अनुभव लिखा और बताया कि महात्मा गांधी की प्रेरणा से राष्ट्र निर्माण को लेकर उनका संकल्प और मज़बूत होता है. उन्होंने साबरमती आश्रम से दांडी तक जाने वाले 81 पद यात्रियों को हरी झंडी दिखा कर रवाना किया.


बड़ी बात ये है कि अमृत महोत्सव 15 अगस्त, 2022 से 75 हफ्ते पहले आज शुरू हुआ है और ये 15 अगस्त, 2023 तक चलेगा. इसके तहत लोगों को ये बताया जाएगा कि भारत को अंग्रेज़ों से कैसे आज़ादी मिली थी और इस आज़ादी के अहम पड़ाव क्या थे. 


इतिहास में 12 मार्च का महत्‍व 


इतिहास में 12 मार्च के दिन का काफ़ी महत्व है और इसीलिए अमृत महोत्सव की शुरुआत भी इसी दिन से की गई है. ये दिन आज़ादी की यादों को जीवित कर देता है. ये दिन बताता है कि कैसे उस समय नमक ने पूरे देश को ये अहसास करा दिया था कि आज़ादी के लिए हमारी प्रतिज्ञा का ईमानदारी से पालन होना चाहिए और गांधीजी ने इसके लिए काफ़ी संघर्ष किया. आज जब इस संघर्ष को हमारे देश के बहुत से लोग भूलते जा रहे हैं. तब इसे याद करना और भी ज़रूरी हो जाता है.



कैसे नमक बना आज़ादी की मांग का बड़ा हथियार 


ये बात वर्ष 1929 की है, जब लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था और सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का संकल्प लिया गया था. इसे तब सिविल नाफ़रमानी आंदोलन भी कहा गया. हालांकि इस अधिवेशन के बाद गांधीजी ऐसे प्रभावी तरीक़े तलाश रहे थे, जो लोगों को आज़ादी के लिए प्रेरित करते. उस समय नमक आज़ादी की मांग का बड़ा हथियार बना.


फ़रवरी 1930 में गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार के नमक क़ानून को लेकर विरोध व्यक्त किया और वो समझ गए कि नमक ही अब अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लोगों की ताक़त बनेगा. तब गांधीजी ने नमक क़ानून का ये कहते हुए विरोध किया कि ब्रिटिश सरकार इस पर टैक्स लगा कर करोड़ों लोगों को भूखा नहीं मार सकती. उन्होंने नमक पर टैक्स को मानवता के ख़िलाफ़ बताया था और 2 मार्च 1930 को उन्होंने इस पर भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन को एक चिट्ठी लिखी थी, जिसमें ब्रिटिश राज को अभिशाप बताया गया था.


उस समय देश एक उलझन में फंसा था. लोगों के मन में विश्वास की कमी थी और अंग्रेज़ों ने भारतीय नेताओं के मनोबल को भी कमज़ोर कर दिया था. लोगों को लगने लगा था कि अब आज़ादी का संघर्ष आसान नहीं होगा. ये वही दौर था, जब शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के ख़िलाफ़ देश में कई मुकदमे चल रहे थे. ब्रिटिश सरकार यही सोच रही थी कि अगर गांधीजी ने नमक सत्याग्रह शुरू भी किया तो भी ये सफल नहीं होगा और शायद उसकी यही सबसे बड़ी ग़लती थी.


गांधीजी ने तोड़ा अंग्रेज़ों का नमक कानून


महात्मा गांधी ने उस समय भारत के 7 लाख गांवों में से हर 10 लोगों से सत्याग्रह में भाग लेकर नमक क़ानून तोड़ने की अपील की थी और इस अपील का लोगों पर काफ़ी गहरा असर हुआ क्योंकि, जब गांधीजी ने 12 मार्च 1930 को साबरमती आश्रम से 390 किलोमीटर की दांडी यात्रा शुरू की, तब इसमें 78 सहयोगी ही उनके साथ थे. लेकिन जब ये यात्रा शुरू हुई तो इसके दृश्यों ने लोगों को भावुक कर दिया और यात्रा के दौरान जनसमूह गांधीजी के साथ जुड़ता चला गया. 390 किलोमीटर की ये पैदल यात्रा 24 दिनों तक चली थी और 6 अप्रैल 1930 को दांडी में गांधीजी ने अंग्रेज़ों का नमक क़ानून तोड़ा था. तब उन्होंने समुद्र तट के किनारे से नमक उठा कर ब्रिटिश सरकार को चुनौती दी थी. 



इसके बाद देश के कई हिस्सों में नमक क़ानून का विरोध शुरू हो गया था. तमिलनाडु में इस आंदोलन का नेतृत्व चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने किया, जो आज़ाद भारत के गर्वनर जनरल भी बने. आंदोलनकारियों  का एक दल तब असम से संयुक्त बंगाल के नोवाखाली में नमक बनाने के लिए पहुंच गया था. इसके अलावा आंध्र प्रदेश में नमक सत्याग्रह के लिए कई शिविर स्थापित किए गए, जहां नमक बना कर अंग्रेज़ों का विरोध होता था. समुद्र से लगने वाले राज्यों में इस सत्याग्रह का काफ़ी प्रभाव दिखा, जबकि ऐसे राज्य, जहां समुद्र नहीं है, वहां दूसरी चीज़ों पर लगने वाले अंग्रेज़ी टैक्स का विरोध हुआ. 


4 मई 1930 को ब्रिटिश सरकार ने गांधीजी को गिरफ़्तार कर लिया


हालांकि 4 मई 1930 को ब्रिटिश सरकार ने गांधीजी को उस समय गिरफ़्तार कर लिया, जब वो गुजरात के धरासना के एक बड़े नमक कारखाने पर धावा बोलने वाले थे. उनकी गिरफ़्तारी के बाद कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष और स्वतंत्रता सेनानी सरोजनी नायडू ने इस आंदोलन की कमान संभाल ली.


सरोजनी नायडू उस समय 2 हज़ार लोगों के साथ धरासना के नमक कारखाने पर पहुंची और ब्रिटिश सरकार का विरोध किया. उस समय लोगों को अलग अलग जत्थों में बांट दिया गया था और एक एक करके लोगों का ये जत्था कारखाने की तरफ बढ़ता था. इन्हें लाठियां से बुरी तरह पीटा जाता था. तब इस अहिंसक आंदोलन में 320 सत्याग्रही घायल हुए थे और दो मारे गए थे.


अमेरिका के मशहूर पत्रकार वेब मिलर ने उस समय इस घटना का पूरा ब्योरा छापा था. उन्‍होंने लिखा था कि समाचार भेजने के अपने कार्यकाल के 18 वर्षों के दौरान मैंने कई नागरिक विद्रोह देखे हैं, दंगे, गली-कूचों में विद्रोह देखे हैं लेकिन धरासना जैसा भयानक दृश्य मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखा है.  ये शब्द उस समय अमेरिकी पत्रकार के थे.  सोचिए नमक की ताक़त से ब्रिटिश सरकार उस समय कितनी डर गई थी.


लॉर्ड इरविन के साथ समझौते पर हस्ताक्षर 


इस डर की एक बड़ी वजह ये भी थी कि गांधीजी का नमक सत्याग्रह काफ़ी बड़ा रूप ले चुका था और इसने सिविल नाफ़रमानी आंदोलन में भी नई जान फूंक दी थी. उस दौरान अंग्रेज़ों ने काफ़ी दमन किया, लेकिन उन्हें इसमें कामयाबी नहीं मिली.  इसके एक साल बाद अंग्रेज़ ये समझ गए थे कि अगर उन्होंने गांधीजी को बिना शर्त के जेल से रिहा नहीं किया और उनकी मांगें नहीं मानी तो उनकी सरकार ख़तरे में पड़ जाएगी. 


इसके लिए पहले 25 जनवरी 1931 को गांधीजी को जेल से रिहा किया गया और फिर 5 मार्च 1931 को गांधीजी और तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए, जिसके तहत अंग्रेज़ों ने नमक से टैक्स हटाने सहित महात्मा गांधी की कई मांगों को मान लिया.


हालांकि जिस समय ये समझौता हुआ, उसके 17 दिन बाद ही 23 मार्च 1931 को शहीद भगत सिंह, शिवराम हरि राजगुरु और सुखदेव थापर को ब्रिटिश सरकार ने फांसी की सज़ा दी थी. जिसकी वजह से कहा जाता है कि अगर गांधीजी समझौते से पहले शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी को टालने के लिए लॉर्ड इरविन पर और दबाव बनाते तो शायद उन्हें फांसी नहीं होती. 


6 अप्रैल 1930 को महात्मा गांधी की इस जीवटता को देखकर, उनके आदर्शों पर आगे बढ़ने वाले देश ने अंग्रेजों के नमक कर को नाकाम कर दिया. ये सब यूं ही नहीं हुआ नमक पर लगने वाले टैक्स के खिलाफ देश में गुस्सा बढ़ रहा था और गांधी जी इससे बहुत चिंतित थे. इस पर उन्होंने कई बार अपना गुस्सा अपने लेख से जाहिर किया, लेकिन उन्हें वो जवाब नहीं मिला जो मिलना चाहिए था. फिर वो दिन आया जिसे अंग्रेज कभी नहीं भूल पाए. 


जब 75000 से ज्यादा लोग साबरमती के तट पर महात्मा गांधी को सुनने पहुंचे


9 मार्च 1930 को साबरमती के किनारे हजारों की संख्या में लोग इकट्ठा हुए. कहा जाता है कि उस वक्त 75000 से ज्यादा लोग साबरमती के तट पर महात्मा गांधी को सुनने के लिए पहुंचे थे. महात्मा गांधी ने यहीं से दांडी मार्च की घोषणा की और कहा, साबरमती के किनारे शायद ये मेरे आखिरी शब्द हों, अहिंसा अपनाते हुए हमने बहुत संघर्ष किया है, महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इस संघर्ष में खड़ी रह सकती हैं.


इस संबोधन के बाद शुरू हुआ ऐतिहासिक दांडी मार्च. हाथों में एक छड़ी और तन पर सूती कपड़े डाले महात्मा गांधी ने अंग्रेजो के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन शुरू किया था और इसका मकसद था देश के लोगों पर थोपे गए नए टैक्स का विरोध. गांधी जी के साथ हजारों की संख्या लोग मौजूद थे, जिन्हें अपने महात्मा पर भरोसा था. युवा, बुजुर्ग महिलाएं और बच्चे, सभी के अंदर एक 61 साल के बुजुर्ग आजादी के लौ जलाई थी और इस बार इस लौ में जलाना था अंग्रेजों के एक और फरमान को.


ऐतिहासिक मार्च जिससे हर कोई जुड़ना चाहता था 


साबरमती आश्रम से दांडी की दूरी थी 387 किमी और ये दूरी पैदल तय की जानी थी. महात्मा गांधी इस उम्र में तेज कदमों से अपनी मंजिल की ओर बढ़ते रहे. उनके साथ उनके आश्रम के 78 लोग थे जिनमें उनका खास बैंड भी शामिल था, जो रास्ते में भजन कीर्तन करता रहा.  जिस रास्ते से भी महात्मा गांधी गुजरे, वहां हजारों लाखों लोगों की लंबी कतारे थीं. उन रास्तों पर तिल रखने की जगह नहीं थी. आजादी भारत की चाहत और अंग्रेजों के खिलाफ जाने की जुनून ऐसा था कि न किसी को रास्तों की धूल की फिक्र थी न ही पत्थरों की. 


दांडी मार्च के दौरान गांधी जी जहां भी पहुंचे वहां लोगों ने उनका तिलक लगाकर स्वागत किया. हर कोई इस ऐतिहासिक मार्च में गांधी जी की साथ जुड़ना चाहता था. ये एक लंबी यात्रा थी. मार्च में शामिल कुछ लोगों के कंधों पर गठरियां थीं, कुछ के कंधों पर छोटे थैले, छोटे छोटे बच्चे नारे लगाते हुए आगे बढ़ते रहे.


साबरमती आश्रम से लगभग 50 किमी चलने के बाद पहला पड़ाव था असलाली. असलाली की एक धर्मशाला में गांधी जी के ठहरने की व्यवस्था की गई थी. असलाली पहुंचने पर उनका शानदार स्वागत किया गया. आम के पेड़ों के पत्तों से वंदनवार सजाकर उनका इंतजार हो रहा था. इसी गांव में शाम की प्रार्थना भी आयोजित की गई. प्रार्थना के बाद महात्मा गांधी ने लोगों को संबोधित किया और कहा,  जब तक नमक पर लगने वाला कर नहीं हटाया जाएगा तबतक वो आश्रम नहीं लौटेंगे. 


इस रात वहीं ठहरने के बाद अगले दिन यात्रा फिर शुरू हो गयी और बढ़ चली अपनी मंजिल की ओर. लगभग 15 दिनों के बाद दांडी मार्च नर्मदा नदी के किनारे पहुंचे चुका था. यहां कुछ देर के लिए दांडी में शामिल जनता ने आराम किया.  लगभग 24 दिनों और 387 किमी की यात्रा के बाद समंदर का किनारा नजर आने लगा. 5 अप्रैल 1930 की सुबह महात्मा गांधी के साथ लाखों लोगों का काफिला दांडी पहुंचा. दांडी में सरोजनी नायडू ने महात्मा गांधी का स्वागत किया.


दांडी में समंदर किनारे पहुंचे महात्मा गांधी ने सबसे पहले वहां के एक मकान में आराम किया. कुछ घंटे आराम करने के बाद उन्होंने लोगों को संबोधित किया और नमक पर लगने वाले टैक्स के खिलाफ जंग के लिए तैयार किया जो अगली सुबह से शुरू होने जा रही थी. लोगों को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी ने सबसे पहले नमक कानून तोड़ने की बात दोहराई उन्होंने साफ कर दिया जिनको भी अंग्रेजी सरकार से डर लगता है वो लौट सकते हैं, जो लोग जेल जाने के लिए या गोली खाने के लिए तैयार हैं वो मेरे साथ कल सुबह मौजूद रहें. 


6 अप्रैल 1930 के ऐतिहासिक दिन सुबह होने वाली महात्मा गांधी की प्रार्थना सामान्य से कुछ ज्यादा देर चली. प्रार्थना खत्म होने के बाद महात्मा गांधी ने जनता को खास निर्देश दिए और फिर अब्बास तैय्यब और सरोजिनी नायडू को अपना उत्तराधिकारी बताकर, समंदर की ओर बढ़ चले. 


महात्मा गांधी ने सबसे पहले समंदर में स्नान किया. उसके बाद धीमे-धीमे कदमों से उस जगह पर पहुंचे जहां जमीन पर नमक था. वहां पहुंचकर गांधी जी ने अपनी एक मुट्टी में उस नमक को ऐसे भर लिया. इस तरह से महात्मा गांधी ने नमक पर अंग्रेजों के एकाधिकार के घमंड को तोड़ दिया. ये गांधी जी का देश को एक बड़ा संकेत था कि अब समय आ गया कि नमक खुद बनाया जाए.


पूरे देश में लोग अपने अपने तरीके नमक बनाने लगे, जो गांव समंदर किनारे बसे थे वहां नमक बनाने का काम हर रोज़ होने लगा. जरूरत के मुताबिक ये नमक लोगों में बांटा भी जाने लगा. इस घटना के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने लोगों पर काफी जुल्म किए, कई गिरफ्तारियां कीं,  लेकिन खुद से नमक बनाने का काम बंद नहीं हुआ बल्कि और बढ़ गया. यही इस दांडी मार्च की सबसे बड़ी कामयाबी थी. नमक कानून को तोड़ने के नाम पर महात्मा गांधी को 4 मई को गिरफ्तार कर लिया गया,उन्हें यरवडा जेल में रखा गया था. 


तो आपने देखा कि नमक की ताक़त क्या है. नमक असल में भारतीय संस्कारों में घुला, एक ऐसा गुण है जो हमें ईमानदारी का महत्व बताता है. 


व्यक्तित्व को पहचान देने वाला नमक


भारत में नमक सिर्फ़ खाने का स्वाद नहीं बढ़ाता, बल्कि ये हमारे व्यक्तित्व को भी पहचान देता है. नमक हमें अपने और दूसरों के प्रति ईमानदार रहने की शक्ति देता है. हमारे देश में कहा जाता है कि मैंने देश का नमक खाया है. यानी मैं अपने देश के प्रति ईमानदार हूं. नमक हमें वफादारी के प्रति सजग रखता है.


नमक हमारे अंदर के विश्वास को मज़बूत करता है और भारत में अक्सर लोग कहते हैं कि मैं तुम्हारे नमक का कर्ज ज़रूर उतारूंगा. यानी अगर किसी व्यक्ति ने आप पर विश्वास किया है तो आप भी उसे धोखा नहीं देने की कसम खाते हैं और विश्वास की इस कसम का आधार नमक ही बनता है.


भारत में एक और कहावत बहुत मशहूर है. जले पर नमक छिड़कना. यानी दुखी व्यक्ति को और दुखी करना. 


नमक का स्‍वभाव


आज हम आपको यहां नमक के स्वभाव के बारे में भी बताना चाहते हैं. 


दुनियाभर की सभी भाषाओं में नमक को लेकर कई मुहावरें मौजूद हैं, जिस पर अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी  ने एक रिसर्च पेपर प्रकाशित किया था. इस पूरी रिसर्च का निष्कर्ष ये था कि जिस देश का समाज शाकाहारी होता है. वहां की भाषा में नमक को लेकर मुहावरें ज़्यादा प्रचलित होते हैं और ऐसे समाज में नमक की छवि पॉजिटिव मानी जाती है. यानी नमक को ईमानदारी और वफादारी से जोड़कर देखा जाता है. 


वहीं जो समाज मांसाहारी होता है, वहां नमक से जुड़े मुहावरे कम होते हैं. ऐसे समाज में नमक की छवि नकारात्मक होती है. जैसे अंग्रेज़ी का एक मुहावरा है- Take Something With A Pinch Of Salt. इसका हिंदी में अर्थ है- किसी चीज़ को शक की निगाह से देखना. लेकिन चूंकि भारत में शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह के लोग रहते हैं. इसलिए हमारे यहां नमक को लेकर ईमानदारी का भाव भी पैदा होता है और इस पर जले पर नमक छिड़कना, जैसे मुहावरे भी बोले जाते हैं. 


यहां एक दिलचस्प जानकारी ये है कि एक ज़माने में रोम के सैनिकों को वेतन भी नमक के रूप में मिलता था और यहीं से अंग्रेज़ी का शब्द सैलरी बना, जो लैटिन भाषा के शब्द Salarium से आया. उस समय इसका अर्थ होता था, रोम के सैनिकों को आय के रूप में मिलने वाला नमक.


आजकल लोकतंत्र के नाम पर हमारे देश में खूब विरोध प्रदर्शन, सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन होते हैं और इसमें सरकार के ख़िलाफ़ असहयोग का विचार छेड़ा जाता है और सड़कों को बंद कर दिया जाता है. इसलिए आज ये समझना भी ज़रूरी है कि जब गांधीजी ऐसा करते थे तब देश गुलाम था और ब्रिटिश सरकार का राज. उस समय ब्रिटिश सरकार का असहयोग होता, लेकिन आज देश आज़ाद है और देश में लोकतांत्रिक सरकार है. ऐसे में आज सत्याग्रह का इस्तेमाल करना सही नहीं हो सकता.