DNA ANALYSIS: कृषि कानून पर दुष्प्रचार की सच्चाई क्या है, जानिए MSP क्यों खत्म नहीं कर सकती सरकार?
आंदोलन कर रहे किसानों को डर है कि सरकार MSP की व्यवस्था खत्म करने वाली है. हालांकि सरकार देश की संसद में इस बात को कह चुकी है कि उसकी MSP समाप्त करने की कोई योजना नहीं है.
नई दिल्ली: दो दिन पहले किसान आंदोलन को लेकर बोला था और वो सच ये था कि इस आंदोलन में अब खालिस्तान और राजनैतिक पार्टियों की एंट्री हो चुकी है. लेकिन हमारी ये बात कुछ लोगों को बहुत कड़वी लगी, हमें ट्रोल किया गया और यहां तक कह दिया गया कि हम किसान विरोधी हैं. लेकिन सच ये है कि पिछले कई वर्षों में किसानों की परेशानियों के बारे में जितनी खबरें Zee News ने देश तक पहुंचाई है उतनी किसी ने नहीं पहुंचाई, हम किसानों के हर सुख और दुख में शामिल रहे हैं और देश को ये बताते रहे हैं कि किसान कितने संघर्षों के बाद 135 करोड़ लोगों का पेट भरते हैं. लेकिन जिन लोगों को सच हज़म नहीं होता वो हमें किसान विरोधी बताने लगते हैं. हम इस लड़ाई में ज़मींदारों के नहीं बल्कि छोटे और गरीब किसानों के साथ हैं और हम उनके हक की बात कर रहे हैं और हम नहीं चाहते किसानों के हक की लड़ाई खालिस्तानियों या राजनैतिक पार्टियों के हाथ का मोहरा बन जाए. लेकिन अफसोस ऐसा ही हो रहा है.
आंदोलन में खालिस्तान की एंट्री
हमें दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर एक ऐसा ट्रैक्टर दिखाई दिया, जिस पर AK 47 राइफल बनी हुई थी और खालिस्तान जिंदाबाद का नारा लिखा हुआ था. ये तस्वीर हमारे उस दावे को पुख्ता करती है जिसके मुताबिक इस आंदोलन को खालिस्तान समर्थकों ने हाईजैक कर लिया है. इस ट्रैक्टर पर कोई नंबर नहीं था और अभी तक ये भी पता नहीं चल पाया है कि ये इस ट्रैक्चर का मालिक कौन है लेकिन इससे इस आंदोलन में खालिस्तान की एंट्री का हमारा शक जरूर पुख्ता हो जाता है.
पंजाब से आए हजारों किसान अब भी देश की राजधानी दिल्ली में डटे हुए हैं. ये किसान देश की संसद का घेराव करना चाहते हैं, सरकार ने अभी तक इसकी इजाजत नहीं दी है और अब किसानों ने कहा है कि वो दिल्ली के 5 Entry Points को सील करने की तैयारी कर रहे हैं. आंदोलन कर रहे किसानों का कहना है कि उनके पास 4 महीने का राशन है और वो मांगे पूरी होने तक दिल्ली छोड़ कर नहीं जाने वाले.
किसान प्रदर्शनकारियों द्वारा जिन 5 रास्तों को बंद किए जाने की बात हो रही हैं, उनमें सिंघु बॉर्डर और टिकरी बॉर्ड को किसान पहले ही बंद कर चुके हैं, जबकि गाजियाबाद और दिल्ली को जोड़ने वाले बॉर्डर पर भी किसानों की संख्या धीरे धीरे बढ़ने लगी है और इसे भी आंशिक रूप से बंद किया जा चुका है. इसके अलावा दिल्ली जयपुर हाईवे और दिल्ली आगरा हाईवे को भी बंद किए जाने की तैयारी हो रही है.
अगर आने वाले दिनों में आप इन रास्तों से होकर कहीं जाने की योजना बना रहे हैं तो आप फिलहाल अपनी इस योजना को टाल दें. इस बीच केंद्र सरकार ने भरोसा दिलाया है कि सरकार किसानों से बिना शर्त बातचीत करने के लिए तैयार है. सरकार और किसानों के बीच ये बातचीत 3 दिसंबर को प्रस्तावित है.
कैसे गुमराह किया जा रहा आंदोलन को ?
वैसे तो किसानों ने ये भी साफ किया है कि वो अपने मंच पर किसी भी राजनैतिक पार्टी को जगह नहीं देंगे. लेकिन ये आंदोलन जिस दिशा में जा रहा है उसे देखते हुए लग रहा है कि राजनैतिक पार्टियां, कुछ देश विरोधी तत्व और विदेशी ताकतें इस आंदोलन को हाईजैक करना चाहती हैं.
उदाहरण के लिए इस आंदोलन को कैसे खालिस्तान के नाम पर गुमराह किया जा रहा है और इस आंदोलन में देश विरोधी लोगों को जगह दी जा रही है ये हमने आपको शुक्रवार को DNA में दिखाया था, राजनैतिक पार्टियां कैसे इस आंदोलन के जरिए वोटों की फसल बो रही है इसके बारे में भी हमने आपको बताया था. लेकिन इतना ही नहीं अब इस आंदोलन से Geneticaly Modified फसलों को इजाजत देने की मांग भी उठने लगी हैं. इन्हें GM Crops भी कहा जाता है. भारत में जेनेटिकली मोडिफाइड फसलों के उत्पादन पर रोक है यानी ये गैरकानूनी है. लेकिन इस आंदोलन में इस तरह की मांग उठाए जाने से ये साफ है कि विदेशी कंपनियों ने भी अब अपने फायदे के लिए किसानों को मोहरा बना लिया है.
लेकिन ये दुष्प्रचार यहीं समाप्त नहीं होता. इस आंदोलन के केंद्र में किसानों की दो बड़ी मांगें हैं पहली है MSP यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य को खत्म न किए जाने की मांग और दूसरी है सरकारी मंडियों को समाप्त न किए जाने की मांग.
मंडियों को समाप्त किए जाने का कोई प्रावधान नहीं
सच ये है कि सरकार न तो MSP समाप्त करना चाहती है और न ही नए कृषि कानूनों में मंडियों को समाप्त किए जाने का कोई प्रावधान है.
वर्ष 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में किसानों की प्रति महीने औसत कमाई सिर्फ 6 हज़ार 400 रुपए है. यानी इनकी औसत सालाना कमाई सिर्फ 77 हज़ार रुपए है.
हमारे देश में 86 प्रतिशत किसान छोटे किसानों की श्रेणी में आते हैं, यानी जिनके पास 5 हेक्टेयर से कम जमीन है.
भारत में इस समय सिर्फ 0.39 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो इनकम टैक्स चुकाने की योग्यता रखते हैं और इन किसानों के पास औसतन कम से कम 15 हेक्टेयर ज़मीन है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि इनमें से भी ज्यादातर लोग असली किसान नहीं है बल्कि ये वो लोग हैं जो कागज़ों पर खुद को किसान साबित करते हैं और फिर अपनी आय को कृषि से हुई आय बताकर इनकम टैक्स बचाते हैं. इनमें बड़े बड़े फिल्म स्टार्स, नेता और उद्योगपति भी शामिल हैं. हमें इनमें से किसी का भी नाम लेने की जरूरत नहीं है क्योंकि आप हमारा इशारा समझ चुके होंगे.
भारत के 52 प्रतिशत किसानों पर औसत कर्ज का बोझ 1 लाख 4 हज़ार रुपए है. यानी किसानों की औसत सालाना कमाई से ज्यादा तो उन पर कर्ज है.
- देश में सिर्फ वर्ष 2019 में ही 10 हज़ार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की थी और इनमें से ज्यादातर किसान कर्ज चुकाने में असमर्थ हो चुके थे.
बिचौलियों की वजह से हमारे किसानों को किसी भी अनाज के बाज़ार मूल्य का सिर्फ 10 से 23 प्रतिशत ही मिल पाता है. यानी अगर आप बाज़ार में चावल की कोई किस्म 100 रुपए प्रति किलो खरीदते हैं तो किसान को अधिकतम 23 रुपए ही मिल पाते हैं.
- भारत एक कृषि प्रधान देश है. लेकिन दुनिया में कृषि उत्पादों के निर्यात में भारत का हिस्सा सिर्फ ढाई प्रतिशत है.
- एक सर्वे के मुताबिक भारत के गांवों में 72 प्रतिशत युवा कृषि से जुड़े हुए हैं, लेकिन उनमें से सिर्फ 1 प्रतिशत ही किसान बनना चाहते हैं.
- देश के 76 प्रतिशत किसान, कृषि के अलावा कोई और काम करना चाहते हैं. इसकी एक बड़ी वजह कृषि में कमाई कम होना है.
मौजूदा लोकसभा के 38 प्रतिशत सांसद किसान
सबसे बड़ी बात ये है कि मौजूदा लोकसभा के 38 प्रतिशत सांसद किसान हैं. ये आश्चर्य की बात है कि भारत में हर तीन में से एक सांसद किसान है. लेकिन फिर भी किसान आज सड़क पर हैं और नेता अपने अपने शाही बंगलों में आराम से बैठकर टेलीविजन पर आंदोलन की तस्वीरें देख रहे हैं.
MSP की व्यवस्था खत्म करने का डर
आंदोलन कर रहे किसानों को डर है कि सरकार MSP की व्यवस्था खत्म करने वाली है, लेकिन ये बिल्कुल भी सच नहीं है. इसे आप दो पॉइंट्स में समझिए.
पहली बात ये है कि सरकार, सरकारी राशन की दुकानों के जरिए गरीब लोगों तक मुफ्त में या बहुत सस्ती दर में अनाज पहुंचाती है. इसे PDS यानी Public Distribution System कहते हैं. ये दुनिया का सबसे बड़ा Public Distribution System है. इसके लिए सरकार किसानों से ही अनाज लेती है और ये खरीद ज्यादातर मौकों पर MSP पर ही होती है. लॉकडाउन के दौरान भारत के करीब 80 करोड़ लोगों को PDS के तहत अनाज दिया गया. सरकार की कोशिश होती है कि वो PDS के लिए कम से कम 6 महीनों तक का अनाज स्टोर करके रखे. ये अनाज सरकार MSP पर ही खरीदती है ऐसे में इस व्यवस्था के खत्म होने का सवाल ही नहीं उठता.
मुफ्त अनाज देने की जिम्मेदारी
इसी तरह भारत में राइट टू फूड भी लागू है और इसके तहत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को मुफ्त अनाज देने की जिम्मेदारी सरकारों की है. इसके लिए भी सरकार किसानों से ही अनाज खरीदती है.
दूसरी बात ये है कि सरकार देश की संसद में इस बात को कह चुकी है कि उसकी MSP समाप्त करने की कोई योजना नहीं है. कोई भी सरकार संसद में कही गई बात या किए गए वादे से नहीं मुकर सकती. अगर ऐसा होता है तो सरकार के खिलाफ कानूनी मुकदमा भी चल सकता है और सरकार गिर भी सकती है.
अब देश के लोगों को और किसानों को भी ये सोचना चाहिए कि जब लोग उद्योगपतियों द्वारा तय किए गए MRP यानी Maximum Retail Price पर विश्वास करते हैं तो फिर सरकार द्वारा तय MSP से क्या समस्या है.
MSP को कानूनी मान्यता
लेकिन यहां सरकार को भी एक काम जरूर करना चाहिए और वो ये कि MSP को उसी तरह से कानूनी मान्यता दिलानी चाहिए जैसे MRP को हासिल है क्योंकि, अगर देश में एक चिप्स का पैकेट या कोल्ड ड्रिंक की बोतल MRP पर बिक सकती है और उद्योगपतियों तक एक तय मुनाफा पहुंच सकता है तो फिर किसानों की फसल की कीमत फिक्स क्यों नहीं की जा सकती.
फिलहाल तो MSP की स्थिति भी ऐसी है कि भारत के सिर्फ 6 प्रतिशत किसान ही MSP पर अपनी फसल बेच पाते हैं. 94 प्रतिशत किसानों को तो इससे भी कम कीमत पर अपनी फसल बेचनी पड़ती है.
MSP का अर्थ है Minimum Support Price यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य, ये वो न्यूनतम कीमत होती है जिस पर सरकार किसानों से फसल खरीदती है. इससे होता ये है कि फसल के दाम जरूरत से ज्यादा गिर जाने पर भी किसानों की लागत निकल आती है और उन्हें कुछ न कुछ मुनाफा भी हो जाता है.
फिलहाल भारत में 23 फसलों पर सरकार MSP देती है. लेकिन इनमें से मुख्य फसलें गेंहूं और धान है. ये व्यवस्था वर्ष 1966-67 के दौरान लागू की गई थी, तब भारत में अक्सर अनाज का संकट हो जाया करता था. लेकिन जैसे जैसे कृषि की टेक्नोलॉजी बेहतर होने लगी. उत्पादन बढ़ने लगा, MSP की व्यवस्था पहले से चल रही थी इसलिए सरकार को ज्यादा मात्रा में फसल किसानों से खरीदनी पड़ती है. कई बार ये किसानों से ली गई फसल जरूरत से ज्यादा होती है. इसे स्टोर करके रखने पर सरकार को काफी पैसा खर्च करना पड़ता है और फसल खराब हो जाने की आशंका भी बनी रहती है.
इसलिए कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि MSP की जगह सरकार किसानों को प्रति हेक्टेयर ज़मीन के हिसाब से 10 हज़ार रुपये की राशि देने लगे तो ज्यादा बेहतर होगा, देश भर में इसे लागू करने का खर्च 1 लाख 97 हज़ार करोड़ रुपये के आसपास बैठेगा और ये MSP पर आने वाले खर्च के लगभग बराबर है.
इस व्यवस्था का समर्थन करने वाले लोगों का कहना है कि वैसे भी भारत में ज्यादातर किसान MSP से बहुत कम कीमत पर अपनी फसल बेच पाते हैं और इससे किसानों को नुकसान होता है जबकि इस व्यवस्था के तहत किसान जिस दाम पर चाहें अपनी फसल बेच सकते हैं और 10 हज़ार रुपये का अतिरिक्त मुनाफा भी कमा सकते हैं.
भारत में MSP को संवैधानिक गारंटी का दर्जा हासिल नहीं
भारत में MSP को अभी संवैधानिक गारंटी का दर्जा हासिल नहीं है. लेकिन फिर भी सरकार किसानों से हर साल MSP पर फसल खरीदती है. लंबे समय से इस बात की मांग की जा रही है कि सरकार MSP को संवैधानिक दर्जा दे. आजादी के बाद से भारत में अब तक अलग अलग पार्टियों के 15 प्रधानमंत्री हुए, इस दौरान कांग्रेस ने या उसके समर्थन से चलने वाली पार्टियों ने करीब 54 साल तक शासन किया. लेकिन कभी भी इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया. वर्ष 1979 से 1980 तक चौधरी चरण सिंह भारत के प्रधानमंत्री थे, वो खुद किसानों के बड़े नेता थे. लेकिन तब भी MSP को संवैधानिक दर्जा नहीं मिला.
किसानों के आंदोलन के जरिए MSP को कानूनी मान्यता देने की मांग उठाने वाले राजनैतिक दलों को सोचना चाहिए कि जब उनकी खुद की सरकार थी तो उन्होंने कभी ऐसा क्यों नहीं किया ?
73 वर्षों से भारत में किसानों पर सिर्फ राजनीति होती रही है और इसका नतीजा ये हुआ है कि राजनीति करने वाले नेता तो अमीर होते चले गए. लेकिन किसानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया, बल्कि किसान पहले से भी ज्यादा बुरी हालत में पहुंच गए.
वर्ष 2001 से 2016 तक भारत में सांसदों की सैलरी 1 हज़ार 250 प्रतिशत तक बढ़ी. लेकिन किसानों की आमदनी पिछले 10 वर्षों में करीब डेढ़ गुना ही बढ़ पाई है.
वर्ष 2014 में 123 सांसदों पर एक स्टडी की गई थी, जिसमें पता चला था कि 10 वर्षों में इन सांसदों की संपत्ति में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि इस दौरान भारत की GDP और देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों की संपत्ति भी सिर्फ 7 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ी.
किसानों की घटती आमदनी की चिंता
इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इन नेताओं को असल में किसानों की घटती आमदनी की कितनी चिंता होती होगी.
वर्ष 2016 में सूचना के अधिकार कानून के तहत मांगी गई एक जानकारी से पता चला था कि वर्ष 2007 से 2016 के बीच भारत के कुछ लोगों की कृषि से हुई आय 1 लाख 55 हज़ार करोड़ रुपये के आस पास थी. ज़ाहिर है इतना पैसा देश के छोटे और गरीब किसानों ने तो कमाया नहीं होगा, ये पैसा उन लोगों का था जो खुद को किसान दिखा कर अपना इनकम टैक्स बचाते हैं.
कुछ विशेषज्ञों का तो ये भी दावा है कि नकली किसान बनकर काला धन जमा करने वालों की संख्या विदेश में काला धन जमा करके रखने वालों से भी ज्यादा हो सकती है.
भारत में जब भी चुनाव आते हैं तो उससे पहले या तो सरकारें MSP बढ़ाने का वादा करने लगती हैं या फिर किसानों की कर्ज़ माफी की घोषणाएं की जाने लगती हैं. इस वर्ष तक भारत के 11 राज्य किसानों के लाखों करोड़ों रुपये के कर्ज़ को माफ कर चुके हैं. हर साल किसानों की हालत सुधारने के लिए नई नई योजनाएं लाई जाती हैं, राहत पैकेज दिए जाते हैं. लेकिन किसानों की स्थिति जस की तस बनी रहती है.
आजादी के बाद से किसानों का कितना कर्ज़ माफ हुआ?
भारत में आजादी के बाद से किसानों का कितना कर्ज़ माफ हुआ है, इसका कोई ठीक ठीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. लेकिन वर्ष 1990 के बाद से अब तक किसानों के लिए करीब साढ़े तीन लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज जारी किए जा चुके हैं. अगर भारत के रक्षा बजट से पूर्व सैनिकों को पेंशन दिए जाने का खर्च हटा दें तो ये राहत पैकेज इस वर्ष के भारत के रक्षा बजट के बराबर है और ये भारत के इस वर्ष के कृषि बजट से भी ज्यादा है.
एक ज़माना था जब भारत में प्रजा भी किसान हुआ करती थी और राजा भी किसान हुआ करते थे.देवी सीता के पिता राजा जनक जब हल चला रहे थे..उसी दौरान मां सीता प्रकट हुईं थी. यहां तक कि सिखों के पहले गुरु, गुरु नानक देव जी भी खेती किया करते थे.
करीब 6 दशक पहले जब देश अनाज के संकट से गुजर रहा था. तब तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने प्रधानमंत्री आवास में हल चलाकर देश वासियों को अनाज के ज्यादा से ज्यादा उत्पादन का संदेश दिया था. ये वो ज़माना था जब किसानों और जवानों को देश में एक जैसा सम्मान मिलता था, जय जवान जय किसान जैसे नारे लगाए जाते थे, लेकिन धीरे धीरे किसान राजनीति का मुद्दा बन गए. किसानों के नाम पर देश में बड़ी बड़ी रैलियां होने लगी, और देखते ही देखते किसान राजनीति का मोहरा बन गए, किसानों के हितों की बात करने वाले किसान नेता खुद विशुद्ध राजनीति में आ गए और सांसद भी बने और प्रधानमंत्री भी बने.
कांग्रेस को मिल गया किसानों पर सियाय़त का मौका
आजाद भारत में किसानों का सबसे बड़ा सम्मेलन वर्ष 1977 में हुआ था, तब 10 लाख किसान देश की राजधानी दिल्ली पहुंचे थे. दिल्ली के बोट क्लब में हुए इस सम्मेलन का नेतृत्व किसान नेता चौधरी चरण सिंह कर रहे थे. जो उस समय देश के गृह मंत्री थे. उस समय जनता पार्टी की सरकार थी और मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री थे, इस सम्मेलन में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी पहुंची थी जो कुछ समय पहले ही जेल से रिहा हुईं थी, इस सम्मेलन में इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह से कहा था कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि वही उत्तर भारत के सबसे बड़े किसान नेता हैं. इसके बाद 1978 में चौधरी चरण सिंह ने मोरारजी देसाई से मतभेद की वजह से गृहमंत्री का पद छोड़ दिया और 23 दिसंबर 1978 को दिल्ली के बोट क्लब में उन्होंने फिर से किसानों का एक बड़ा सम्मेलन बुलाया, जिसमें लाखों किसान पहुंचे, इसके जरिए उन्होंने अपनी ताकत दिखाई, कांग्रेस को भी किसानों पर सियाय़त का मौका मिल गया और जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद चौधरी चरण सिंह कांग्रेस की मदद से देश के प्रधानमंत्री बन गए.
विपक्ष पर किसानों को भ्रमित करने का आरोप
दिल्ली और आसपास के इलाकों में आंदोलन आम लोगों के साथ साथ ट्रांसपोर्ट सिस्टम के लिए भी परेशानी की वजह बन गया है. हिमाचल, पंजाब और हरियाणा से आने वाले सैकड़ों ट्रक सिंघु बॉर्डर पर फंसे हुए हैं. इनमें दवाइयों से भरे एक ट्रक को लद्दाख पहुंचना है, लेकिन किसानों के प्रदर्शन की वजह ये ट्रक आगे नहीं बढ़ पा रहे. अगर ये ट्रक समय पर लद्दाख नहीं पहुंचा तो वहां दवाइयों की कमी हो सकती है और बर्फबारी की वजह से अगर रास्ते बंद हो गए तो इस ट्रक के लिए लद्दाख पहुंचना लगभग असंभव हो जाएगा.
किसानों के आंदोलन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी. उन्होंने विपक्ष पर किसानों को भ्रमित करने का आरोप लगाया.