आधुनिक और तेजी से बदलती जीवनशैली ने हमारे त्योहारों की आस्था को ही सवालों के दायरे में ला कर खड़ा कर दिया है. इस भागती-दौड़ती जिंदगी में फुर्सत ही कहां है किसी आस्था को साकार रूप देने की. तर्क-वितर्क के बीच परंपरा और मान्यता खोती जा रही है. अब करवा चौथ को ही लें, ये अपार श्रद्धा व विश्वास का प्रतीक, नारी के संपूर्णता का आधार, परमेश्वर रूप में प्रतिष्ठित पुरुष को जीवन का आधार मान लेने का त्योहार है. हमेशा से करवा चौथ की बड़ी मान्यता रही है. प्राचीनकाल से ही महिलाएं इसे श्रद्धा भाव से मनाती हुई आई हैं. 


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पहले के समय में जीवन सीधा-सादा व शांत था. त्योहारों को मनाने के लिए समय के साथ ही आस्था और भक्ति थी. ज्यादातर महिलाओं का जीवन घर की चारदिवारी तक ही सीमित था. मनोरंजन के साधन नहीं थे. घर के खर्चों के लिए भी महिला अपने पति पर निर्भर रहती थीं. हिंदू धर्म में रीति-रिवाजों का बड़ा महत्व व आदर था. जरा सी भूल से भी दंड पाने का डर रहता था. ऐसे में महिलाएं पूरी निष्ठा व विश्वास के साथ सभी मान्यताओं को स्वीकारते हुए उन पर अमल करती थीं. करवाचौथ भी ऐसा ही एक त्योहार रहा.



करवा चौथ नारी श्रद्धा व श्रृंगार का ही नहीं बल्कि पति की लंबी आयु का त्योहार है. प्राचीन समय में विवाह के बाद महिला का अस्तित्व पति तक ही सीमित हो जाता था. परिवार के सदस्यों से भी उसे तभी स्नेह मिलता था जब उसका पति उसका सम्मान करे. त्योहारों की परंपरा में करवा चौथ त्योहार को उसके जीवन के साथ अटूट स्नेह व बंधन के रूप में बांध दिया गया. वो हर संभव कोशिश करती रहती कि उससे कोई भूल न हो जाए. उसे यही सिखाया गया था कि अगर उसके एक दिन के निर्जल उपवास से उसके पति की आयु बढ़ जाएगी तो ये उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए.


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करवा चौथ पत्नियों के उनके सुहागिन होने का एक जश्न था. प्राचीन समय में नारी की दयनीय स्थिति से कौन परिचित नहीं है. समाज में हिंदू विधवा को हीनता की दृष्टि से देखा जाता था. अज्ञात आशंका से पीड़ित महिला करवा चौथ के व्रत में कोई भी भूल नहीं करना चाहती थी. अपने पति की दीर्घायु और सिंदूर के खातिर एक दिन के उपवास से उसे खुशी होती थी. किसी एक भी वजह से यदि नारी के जीवन में पुरुष न रहे तो जो शून्यता और खालीपन उसके जीवन में आता है, उसे देख अन्य महिलाओं का भी साहस टूट जाता. उनके लिए जीवन की खुशियां पति के अस्तित्व के साथ ही जुड़ी रहती थीं.



ये भी एक वजह है कि महिला पूरे हर्षोल्लास से करवाचौथ का त्योहार मनाती, क्योंकि पति ही उसके जीवन का आधार होता है. बिंदिया, सिंदूर, चूड़ियां, बिछिया, लाल साड़ी ये सब सुहाग ही नहीं बल्कि उनकी खुशियों का प्रतीक है. जरूरी नहीं कि पूरी श्रद्धा से मनाने पर भी किसी के साथ कुछ अनिष्ट न हो, लेकिन करवा चौथ का व्रत अपनी सत्यता के साथ हर नारी के हृद्य में पूर्ण निष्ठा को भी दर्शाता है.


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रीति रिवाज समय के मोहताज नहीं होते इनका जुड़ाव दिल से होता है. आज समाज बदला है, नारी समाज में जागरुकता आई है. मान्यताएं भी बदली हैं, लेकिन नारी के जीवन में करवा चौथ व्रत का महत्व कम नहीं हुआ. आधुनिक समय में भी महिलाएं इस व्रत को करती हैं. पारंपरिक ढांचे को नए स्वरूप में ढालकर भी इस त्योहार की गरिमा का सम्मान करती हैं, क्योंकि हमारी संस्कृति से अमूल्य धरोहर उन्हें विरासत में मिली है. आधुनिक युग का प्रभाव महिलाओं पर पड़ा है, पर प्राचीनकाल से चले आ रहे इस त्योहार की मान्यता पर वो कोई भी सवाल नहीं करना चाहतीं.



करवा चौथ व्रत का नवीनीकरण भी होता जा रहा है. कुछ पति भी ये व्रत करने लगे हैं जो आपसी रिश्तों के अटूट प्रेम की कहानी को दर्शाता है. विवाह जैसे संबंधों में भारतीय महिलाओं की आस्था है तो करवा चौथ वैवाहिक जीवन की एक अनिवार्य कड़ी है. यह न सिर्फ पति की लंबी आयु के लिए व्रत है बल्कि इस भागदौड़ भरी जिंदगी में भी पति-पत्नी के रिश्ते का एक अनोखा बंधन है. 


आज की परिस्थिति में भी पति-पत्नी इस व्रत के माध्यम से एक दूसरे को दिल से स्वीकार करते हैं. न केवल करवाचौथ का व्रत वरन् दिल से जुड़े अन्य त्योहार व परंपराएं हमें आधुनिक ही नहीं बल्कि सुसंस्कृत होने का गौरव प्रदान करते हैं. 


ये सभी त्योहार यह दर्शाते हैं कि हम भारतीय हैं और हमारी संस्कृति हमें सच्चाई, प्रेम, ईमानदारी, निष्ठा, सौहार्द व पवित्रता का पाठ इन त्योहारों के माध्यम से ही पढ़ाती है. ये त्योहार हमारे सद्गुणों को व्यक्त करके पारिवारिक व सामाजिक सौहार्द व रिश्तों की गरिमा को बनाए रखते हैं. ये जीवन की गतिशीलता व समरस्ता को बनाए रखने में सक्षम होते हैं. इसलिए हमें इनका सम्मान करना चाहिए.


( रेखा गर्ग- लेखिका मुजफ्फरनगर निवासी हैं. वे सामाजिक व समसामयिक मुद्दों पर लिखती हैं.)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)