खुदीराम बोस पुण्यतिथि विशेष: फांसी देने वाला जज भी हैरान था उनके जज्बे को देखकर
2 मई 1908 के दिन जब इस कम उम्र के लड़के खुदीराम को हथकड़ियों में जकड़कर मुजफ्फरपुर लाया जा रहा था, तो पूरा शहर उसे देखने उमड़ पड़ा था
नई दिल्ली: 12 अगस्त 1908 को ब्रिटेन (Britain) का अखबार द एम्पायर लिख रहा था, ‘Khudiram Bose was executed this morning.. it is alleged that he mounted the scaffold with his body erect. He was cheerful and smiling’. सोचिए कितने जीवटवाला रहा होगा 18 साल का वो लड़का, जो एक दिन पहले 11 अगस्त को देश की खातिर फांसी पर चढ़ रहा था. जब खुदीराम को फांसी की सजा सुनाई गई तो चेहरे पर मुस्कराहट देखकर अंग्रेज जज ने पूछा था कि क्या उसको समझ आया कि उसको क्या सजा मिली है? फिर खुदीराम ने मुस्काराते हुए ही जवाब दिया कि, हां बिलकुल. तो जज ने पूछा कि क्या वो कुछ कहना चाहता है? खुदीराम ने मुस्कराते हुए ही जवाब दिया था कि अगर मुझे कुछ समय दिया जाए तो मैं जज को बम बनाने की तकनीक सिखा सकता हूं.
आजादी के ऐसे मतवालों की वजह से हम आजाद हवा में सांसें ले पा रहे हैं. खुदीराम बोस आधुनिक भारत का पहला ऐसा क्रांतिकारी था, जो इतनी कम उम्र में फांसी पर चढ़ गया था. उन दिनों कोलकाता के प्रेसीडेंसी कोर्ट अलीपुर का चीफ मजिस्ट्रेट था डगलस किंगफोर्ड, जो क्रांतिकारियों से जुड़े मुकदमों में छोटी छोटी बातों के लिए कठोर सजाएं देने के चलते कुख्यात हो चुका था. क्रांतिकारी उसे सबक सिखाना चाहते थे. प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस ने इस मिशन की कमान संभाली.
अंग्रेजी सरकार को क्रांतिकारियों की योजना की भनक लग गई थी, किंग्सफोर्ड को मुजफ्फरपुर (बिहार) की कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया था. वहां उसकी सुरक्षा कड़ी कर दी गई थी, लेकिन क्रांतिकारियों के संगठन अनुशीलन समिति ने ठान लिया था, कि किंग्सफोर्ड को हर हाल में सबक सिखाना ही है. प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस मुजफ्फरपुर पहुंचे औऱ एक धर्मशाला में बदले हुए नामों दिनेश चंद्र रॉय और हरेन शंकर के नाम से रहने लगे. 3 हफ्तों तक दोनों ने जज की पूरी दिनचर्या को समझा, कब घर से निकलता है, कब वापस जाता है, दफ्तर के अलावा कहां कहां जाता है आदि.
29 अप्रैल 1908 को स्कूली बच्चों की ड्रेस में दोनों ने उस यूरोपियन क्लब के बाहर पार्क में डेरा डाल दिया, जहां अपनी पत्नी और एक अंग्रेज अधिकारी की पत्नी-बेटी के साथ किंग्सफोर्ड ब्रिज खेलने आया था. दो बग्घियां रात को 8.30 बजे बाहर आईं, दोनों उनकी तरफ भागे और बम एक बग्घी पर उछाल दिए. लेकिन ये वो बग्घी नहीं थी, जिसमें किंग्सफोर्ड और उनकी पत्नी थी, इसमें केनेडी की बीवी और बेटी थी. दोनों की मौत हो गई. किंग्सफोर्ड बच गया.
उसके बाद दोनों अलग अलग दिशाओं में भागे, लेकिन एक रेलवे स्टेशन पर संदिग्ध समझकर दो पुलिसवालों ने खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया, खुदीराम के पास 2 रिवॉल्वर और 37 कारतूस मिले. आज उस स्टेशन को खुदीराम बोस पूसा स्टेशन के नाम से जाना जाता है, लेकिन प्रफुल्ल चाकी एक रात कहीं रुककर जब ट्रेन से कोलकाता के लिए निकला तो उसी कम्पार्टमेंट में एक पुलिस वाले को उस पर शक हुआ. मोकामाघाट स्टेशन पर उसने प्रफुल्ल चाकी को पकड़ने की कोशिश की, दोनों तरफ से फायरिंग हुई, आखिरी गोली बची तो प्रफुल्ल चाकी ने वो गोली खुद को मार ली.
2 मई 1908 के दिन जब इस कम उम्र के लड़के खुदीराम को हथकड़ियों में जकड़कर मुजफ्फरपुर लाया जा रहा था, तो पूरा शहर उसे देखने उमड़ पड़ा था औऱ वो मुस्कराता हुआ ‘वंदेमातरम’ के नारे लगाता आगे बढ़े रहा था. उस वक्त का अंग्रेजी अखबार स्टेट्समेन लिखता है, ‘The Railway station was crowded to see the boy. A mere boy of 18 or 19 years old, who looked quite determined. He came out of a first-class compartment and walked all the way to the phaeton, kept for him outside, like a cheerful boy who knows no anxiety.....on taking his seat the boy lustily cried 'Vandemataram’.
खुदीराम बोस की फांसी के बाद बंगाल के युवाओं ने स्पेशल किस्म की धोतियां सिलवाईं, जिन पर नाम लिखा हुआ होता था ‘खुदीराम बोस’. खुदीराम बोस के बलिदान ने क्रांतिकारी आंदोलन को एक नया रूप दे दिया, गांव गांव से नौजवान देश पर मरने मिटने को तैयार होने लगे थे. कोलकाता में उन दिनों अंग्रेजी राज की राजधानी हुआ करती थी, एक दिन बंगाली क्रांतिकारियों से परेशान होकर अंग्रेजों ने अपनी राजधानी दिल्ली ले जाने का ऐलान कर दिया और 1911 में राजधानी दिल्ली बना दी गई.