नई दिल्ली: रसगुल्ले के लिए 2015 से पश्चिम बंगाल और ओड़िशा के बीच कानूनी जंग चली आ रही थी. ये लड़ाई मंगलवार को उस समय समाप्त हो गई जब ‘बांगलार रॉसोगोल्ला’ को भारतीय पेटेंट कार्यालय से विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र के उत्पाद का प्रमाण पत्र दिया गया. बंगाल की ओर से पेश किए गए तर्क में कहा गया था कि रॉसोगोल्ला सबसे पहले 1868 में नोबीन चंद्र दास ने बनाया था. इस दावे को कमेटी ने सही माना. तो चलिए जानते हैं नोबीन चंद्र दास के बारे में जिनके रॉसोगोल्ला से बंगाल को जीत हासिल हुई.


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नोबीन चंद्र दास को ‘कोलंबस ऑफ रॉसोगोल्ला’ भी कहा जाता है. बताया जाता है कि नोबिन (1845-1925) के पिता की मृत्यु उनके जन्म से तीन महीने पहले हो गई थी. मुश्किलों और गरीबी में उनका आधा जीवन बीता. गरीबी से उबरने के लिए उन्होंने कोलकाता में मिठाई की एक दुकान खोली. उस समय सोंदेश मिठाई सबसे ज्यादा प्रचलित थी. इसे टक्कर देने के लिए नोबीन ने पहले छेना बनाया और फिर रॉसोगोल्ला बनाया.


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एक बार सेठ रायबहादुर भगवानदास बागला अपने बेटे के साथ कहीं जा रहे थे. बेटे को प्यास लगने पर वे नोबीन चंद्र दास की दुकान पर रुके और पानी मांगा. नोबीन ने सेठ के बेटे को पानी के साथ ही एक रॉसोगोल्ला भी दिया, जो उसे बेहद पसंद आया, जिस पर सेठ ने एक साथ कई रोसोगुल्ले खरीद लिए. इसके बाद रॉसोगोल्ला प्रसिद्ध होता गया.


नोबीन के बेटे कृष्ण चंद्र भी पिता के रास्ते पर चले और उन्होंने ‘रॉसोमलाई’ या रसमलाई नाम की डिश तैयार की. जो भारत में प्रचलित मिठाई में से एक है.


नोबीन दास का परिवार कोलकाता के 532 रबिंद्र सारनी में रहता है. उनके भवन को रॉसोगोल्ला भवन भी कहा जाता है.


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आज बंगाल में रसगुल्ला उनके संस्कृति का हिस्सा बन गया है. कोई भी त्योहार हो या खुशी का कोई भी मौका हो, यहां रसगुल्ला बड़े चाव से खाया जाता है. यहां तक कि बंगाल की पहचान में भी रॉसोगुल्ला शामिल हो चुका है.