Moradabad News: "आप दोस्त बदल सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं" – यह कहावत मुरादाबाद के TDI सिटी कॉलोनी में सच होती दिख रही है. यह कॉलोनी मुरादाबाद की एक प्रतिष्ठित और पॉश जगह है. यहां का माहौल तब गरमा गया, जब एक हिंदू डॉक्टर ने अपना मकान एक मुस्लिम डॉक्टर को बेच दिया.


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450 परिवार, लेकिन एक सौदे पर विवाद


TDI सिटी कॉलोनी में लगभग 450 हिंदू परिवार रहते हैं, जिनकी संख्या करीब 1,800 है. ये परिवार एक साथ रहते हुए सांस्कृतिक और धार्मिक एकता बनाए रखते थे. लेकिन हाल ही में डॉक्टर अशोक बजाज ने अपना मकान डॉक्टर इमरान नाम के एक मुस्लिम व्यक्ति को बेच दिया. इसके बाद कॉलोनी के हिंदू परिवारों ने विरोध करना शुरू कर दिया.


गुपचुप मकान बिक्री और आरोप


कॉलोनी के लोगों का दावा है कि डॉक्टर बजाज का मकान उनके हिंदू पड़ोसी खरीदना चाहते थे. हालांकि, डॉक्टर बजाज ने ज्यादा पैसे के लालच में यह मकान एक मुस्लिम व्यक्ति को बेच दिया. कॉलोनी के निवासी इसे अपने सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश के खिलाफ मान रहे हैं. उन्होंने मकान की रजिस्ट्री रद्द करने की मांग को लेकर प्रदर्शन किया.


"मुस्लिम पड़ोसी नहीं चाहिए"


इस विवाद में कॉलोनी के निवासियों ने तर्क दिया कि जब कॉलोनी को बसाया गया था, तब यह तय हुआ था कि यहां किसी मुस्लिम परिवार को मकान नहीं दिया जाएगा. उनका कहना है कि पड़ोसी का धर्म, उसकी जीवनशैली, खानपान और त्योहार कॉलोनी के माहौल पर असर डाल सकते हैं.


देश का कानून और प्रशासन की उलझन


विवाद को देखते हुए प्रशासन के लिए यह मामला पेचीदा बन गया है. भारतीय संविधान के तहत कोई भी नागरिक देश के किसी भी हिस्से में मकान खरीद सकता है और रह सकता है. इस पर रोक लगाना गैरकानूनी है. ऐसे में प्रशासन इस मामले को हल करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन कॉलोनी के निवासियों का विरोध कम होने का नाम नहीं ले रहा है.


सांप्रदायिक सौहार्द का सवाल


यह विवाद केवल मुरादाबाद की एक कॉलोनी तक सीमित नहीं है. यह देशभर में बढ़ती सांप्रदायिक असहिष्णुता और सामाजिक ताने-बाने को लेकर एक बड़ा सवाल खड़ा करता है. पड़ोसी का धर्म या उसकी मान्यताएं समाज को कितना प्रभावित करती हैं? क्या किसी समुदाय को केवल उसके धर्म के आधार पर अलग-थलग करना सही है?


आगे क्या?


प्रशासन इस मामले को संवेदनशील तरीके से हल करने की कोशिश कर रहा है. हालांकि, यह घटना समाज में बढ़ते ध्रुवीकरण को दिखाती है. ऐसे में सवाल यह है कि क्या धार्मिक और सामाजिक सह-अस्तित्व का सपना कभी साकार हो पाएगा? यह मामला सिर्फ कानून का नहीं, बल्कि सामाजिक समझ और सहिष्णुता का भी है. इसे हल करने के लिए दोनों पक्षों को मिलकर सोचने की जरूरत है.