नई दिल्ली: आज विश्व पुस्तक मेले में जिस लेखक की किताबें सबसे अधिक बिकती हैं, उस लेखक का अपना जीवन कैसा रहा होगा? आप कहेंगे कि अपने समय में तो वो एकदम सेलेब्रिटी रहे होंगे. दुनिया के सारे ऐशोआराम उनके कदमों में होंगे, लेकिन ऐसा था नहीं. जानेमाने आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है कि - प्रेमचंद गरीबी में पैदा हुए, गरीबी में जिन्दा रहे और गरीबी में ही मर गये. जी हां, हम बात कर रहे हैं हिंदी के महानतम कथाकार प्रेमचंद की.


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प्रेमचंद की आर्थिक स्थिति का जिक्र होते ही हरिशंकर परसाई का लेख 'प्रेमचंद के फटे जूते' याद आता है. ये लेख प्रेमचंद के एक चित्र पर आधारित है. चित्र में उनके जूतों को देखकर परसाई लिखते हैं, 'दाहिने पांव का जूता ठीक है, मगर बाएं जूते में बड़ा छेद हो गया है, जिसमें से अंगुली बाहर निकल आई है.' तो क्या प्रेमचंद इतने गरीब थे कि वो अपने लिए एक जूता भी नहीं खरीद सकते थे.


प्रेमचंद के बेटे अमृत राय ने प्रेमचंद की जीवनी 'कलम का सिपाही' में लिखा है कि उनकी अंतिम यात्रा में कुछ ही लोग थे. जब अर्थी जा रही थी, तो रास्ते में किसी ने पूछा, 'कौन था?' साथ खड़े आदमी ने कहा 'कोई मास्टर था, मर गया.' इनसे पता चलता है कि हम प्रेमचंद के साथ कितना न्याय कर पाए. वैसे भी हम कौन सा अपने लेखकों, साहित्यकारों के साथ न्याय कर पाते हैं.


प्रेमचंद का दूसरा पक्ष 
हालांकि प्रेमचंद के जीवन का एक दूसरा पक्ष भी है. प्रेमचंद पर शोध करने वाले कमल किशोर गोयनका ने हाल में जयपुर साहित्य सम्मेलन में कहा कि प्रेमचंद के पत्र, सर्विस बुक, बैंक पासबुक देखकर नहीं लगता कि वो गरीब थे. ये बात सही है कि प्रेमचंद के जीवन में संघर्ष था, अभाव था, लेकिन उन्हें वैसी गरीबी नहीं देखनी पड़ी जैसी उनके थोड़ा बाद आने वाले महाप्राण निराला ने अपने जीवन में झेली. 


प्रेमचंद का बचपन अभाव में बीता, लेकिन बाद में उन्हें अच्छी सरकारी नौकरी मिली और उनका जीवन अच्छा चल रहा था. लेकिन सरकारी नौकरी के कारण उनके लेखन में बाधा आती थी. इस बीच महात्मा गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी. इसके बावजूद वो अनुवाद, संपादन और लेखन से पर्याप्त पैसे कमा लेते थे.


प्रेमचंद ने एक बार अपनी बेटी के लिए 135 रुपये की हीरे की लौंग खरीदी और अपनी पत्नी के लिए भी 750 रुपये के कान के फूल खरीदना चाह रहे थे. हालांकि, पत्नी ने मना कर दिया. यानी प्रेमचंद के पास खर्च करने के लिए रुपये थे. लेकिन ये बात भी सच है कि जब उन्हें बंबई की फिल्म कंपनी 'अजन्ता सिनटोन' में काम करने के लिए जाना था, तो उनके पास बंबई जाने के लिए किराए के पैसे नहीं थे. उस समय उन पर बैंक का कुछ कर्ज भी था.


प्रेमचंद के सफेद हाथी 
दरअसल प्रेमचंद ने दो सफेद हाथी पाल रखे थे - हंस और जागरण. ये पत्रिकाएं उनकी अपनेे सरस्वती प्रेस से छपती थीं और इनकी छपाई का खर्च 700 रुपये महीना था. ये पत्रिकाएं घाटे में चलती थीं. इधर-उधर से प्रेमचंद कमाई करते. वो इन पत्रिकाओं को छापने में चली जाती थी. प्रेमचंद अकसर कहते थे कि उनके साहित्य प्रेम के कारण उनके परिवार को तकलीफ उठानी पड़ती है. इस ग्लानि के चलते उन्होंने अपने लिए स्वैच्छिक गरीबी अपना ली थी. वो अपने ऊपर बिल्कुल खर्च नहीं करते थे. उनके फटे जूतों का यही राज है. वर्ना साहित्य साधन के लिए हर महीने 700 रुपये खर्च करने वाले प्रेमचंद क्या अपने लिए पांच रुपये के जूते नहीं खरीद सकते थे.


ये बात एकदम सच है कि प्रेमचंद गरीबी में पैदा हुए, गरीबी में जिन्दा रहे और गरीबी में ही मर गये. उन्होंने सिर्फ साहित्य को समृद्ध किया.