Supreme Court Reprimands NIA: सुप्रीम कोर्ट ने एनआईए और निचली अदालत को त्वरित सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन करने के लिए फटकार लगाई है. सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि हर आरोपी को उसके खिलाफ लगाए गए अपराध की गंभीरता के बावजूद त्वरित सुनवाई का मौलिक अधिकार है. ऐसे मामलों में भी सुनवाई में अत्यधिक देरी हुई तो आरोपी को जमानत मिलने का हक है. 


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सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को चार साल से जेल में बंद एक आरोपी को जमानत देते हुए मुकदमे में देरी के लिए राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को कड़ी फटकार लगाई. मुकदमा गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए)1967 के तहत दर्ज किया गया था।. शीर्ष अदालत ने एनआईए से कहा कि वह न्याय का मजाक न उड़ाए. कोर्ट ने कहा कि भले ही अभियुक्त पर गंभीर अपराध का आरोप है, लेकिन उसे त्वरित सुनवाई का अधिकार है.


किस मामले में अदालत ने दिया ये आदेश 
अदालत ने जावेद गुलाम नबी शेख नामक एक व्यक्ति को जमानत देते हुए यह आदेश दिया है. जिसे 9 फरवरी 2020 को मुंबई पुलिस ने सहार हवाई अड्डे के बाहर गिरफ्तार किया था. उसके पास से कथित तौर पर 21 लाख रुपये की नकली मुद्रा बरामद की गई थी. बाद में मामला राष्ट्रीय जांच एजेंसी को सौंप दिया गया. हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने पाया एनआईए द्वारा आरोपपत्र दायर किया गया था, लेकिन निचली अदालत ने अभी तक आरोप तय नहीं किए हैं. ‌


एनएनआई को लगाई फटकार
इसके बाद जस्टिस जेबी पारदीवाला की अध्यक्षता वाली अवकाश पीठ ने एनआईए से कहा, मुकदमा शुरू करना आपका दायित्व है. वह पिछले चार साल से जेल में है. आज तक आरोप तय नहीं हुआ है. पीठ ने यह भी गौर किया कि अभी 80 गवाहों का परीक्षण किया जाना है. पीठ बॉम्बे हाईकोर्ट के उस आदेश के खिलाफ अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें अपीलकर्ता जावेद गुलाम नबी शेख को जमानत पर रिहा करने से इन्कार कर दिया था. 


एनआइए और सरकार के वकीलों ने समय देने की मांग करते हुए मामले की सुनवाई स्थगित करने का अनुरोध किया, लेकिन पीठ ने कहा, हम सुनवाई स्थगित नहीं करेंगे. हम आरोपी को जमानत दे रहे हैं. आरोपी मुंबई न छोड़े और हर 15 दिन में एनआइए के मुंबई कार्यालय में हाजिरी दे.

4 साल से जेल में आरोपी बंद
आरोपी को 9 फरवरी, 2020 को गिरफ्तार कर मुंबई पुलिस ने नकली नोट बरामद किए थे. कथित तौर पर नोट पाकिस्तान से आए थे. उसके खिलाफ यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया गया. मामले की जांच एनआइए को सौंप दी गई. ट्रायल में देरी को लेकर आरोपी ने बॉम्बे हाईकोर्ट में जमानत याचिका दायर की थी. याचिका खारिज होने पर उसने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.


जमानत पर क्या है संवैधानिक अधिकार?
फरवरी 1979 में हुसैन आरा खातून मामले में अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन के अधिकार के साथ त्वरित सुनवाई के अधिकार को जोड़ा था. जिसमें  फैसला सुनाया था, "एक त्वरित सुनवाई आपराधिक न्याय का सार है और इसलिए, अपने आप में मुकदमे में देरी न्याय से इनकार करती है. हालांकि एक त्वरित सुनवाई को विशेष रूप से मौलिक अधिकार के रूप में नहीं गिना जाता है, लेकिन यह अनुच्छेद 21 के व्यापक दायरे और सामग्री में निहित है."