UP Politics: सवर्णों से दूरी, क्या है मजबूरी? 13 बार मुख्यमंत्री देने वाली जातियों से मुंह मोड़कर जीतेंगे अखिलेश?
UP Politics: सबसे बड़ा सवाल ये है कि उत्तर प्रदेश को 13 बार मुख्यमंत्री देने वाली जातियों को दरकिनार करके क्या अखिलेश यादव आगामी लोकसभा चुनाव में बीजेपी की राह का रोड़ा बन पाएंगे? क्या 80 लोकसभा सीट वाले यूपी में सवर्ण समाज के समर्थन के बिना जीत संभव है?
Akhilesh yadav new political team for 2024 election: 'दिल्ली की सियासत का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है...' समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को ये बात बहुत अच्छे से पता है और इसिलिए उन्होंने 2024 में लगातार तीसरी बार दिल्ली की गद्दी तक पहुंचने की भारतीय जनता पार्टी की कोशिश को ध्वस्त करने की तैयारी शुरू कर दी है. अखिलेश यादव पार्टी के संगठनात्मक स्तर पर ताबड़तोड़ फैसले ले रहे हैं, लेकिन उनके फैसलों से कई सवाल भी खड़े होते दिख रहे हैं.
इसमें सबसे बड़ा सवाल ये है कि उत्तर प्रदेश को 13 बार मुख्यमंत्री देने वाली जातियों को दरकिनार करके क्या अखिलेश यादव आगामी लोकसभा चुनाव में बीजेपी की राह का रोड़ा बन पाएंगे? क्या 80 लोकसभा सीट वाले यूपी में सवर्ण समाज के समर्थन के बिना जीत संभव है? इन सवालों के जवाब आगामी चुनावों के नतीजों में ही देखने को मिल पाएंगे, लेकिन फिलहाल अखिलेश यादव द्वारा जारी की गई समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की लिस्ट ये बताने के लिए काफी है कि उन्हें सवर्ण समाज के वोट बैंक से कोई मतलब नहीं है. राष्ट्रीय कार्यकारिणी के नाम ये बता रहे हैं कि अखिलेश की पार्टी में ब्राह्मणों और ठाकुरों के लिए कोई जगह नहीं है.
अखिलेश की नई टीम में क्या है खास?
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने आगामी लोकसभा चुनावों की तैयारी के मद्देनजर संगठन में कई बड़े बदलाव किए हैं. हाल ही में उन्होंने नई राष्ट्रीय कार्यकारिणी का ऐलान किया है. लेकिन कार्यकारिणी में मौजूद नए नामों में एक भी सवर्ण समाज के नेता का नाम नहीं है. अखिलेश ने पार्टी के उपाध्यक्ष, प्रमुख राष्ट्रीय महासचिव, राष्ट्रीय महासचिव और अन्य राष्ट्रीय सचिवों का चयन किया है. पार्टी के नए 14 राष्ट्रीय महासचिवों में एक भी ठाकुर या ब्राह्मण नाम नहीं है. वहीं, ओबीसी नेताओं को काफी जगह मिली है.
अखिलेश यादव ने रवि प्रकाश वर्मा, स्वामी प्रसाद मौर्य, विश्वंभर प्रसाद निषाद, लालजी वर्मा, राम अचल राजभर, हरेंद्र मलिक और नीरज चौधरी को राष्ट्रीय महासचिव बनाया है. अखिलेश की नई टीम में मौर्य, जाटव, निषाद, कुर्मी, पासी जैसी जातियों को भी जगह मिली है. इसके अलावा दूसरी पार्टियों से आने वाले नेताओं को भी पार्टी ने खुलकर स्वागत किया है और सम्मान दिया है.
एक साल में बदल गई अखिलेश की राजनीति?
अखिलेश इतनी जल्दी सियासी दांव बदल लेंगे इसके बारे में किसी ने नहीं सोचा था. 2022 के विधानसभा चुनावों में भगवान परशुराम की मूर्ती लगवाने और ब्राह्मण नेताओं को अपने साथ करने वाली समाजवादी पार्टी ने अचानक सियासी गाड़ी की राह को दलित, पिछड़े और वंचित समाज की तरफ मोड़ दिया है.
विधानसभा चुनाव में ठाकुर बनाम ब्राह्मण का दांव खेलने वाले अखिलेश यादव इस बार सर्वण बनाम अन्य का दांव लगाते नजर आएंगे. इसकी तैयारी उन्होंने कर ली है. पहले राष्ट्रीय लोक दल के प्रमुख जयंत चौधरी के साथ गठबंधन और फिर आजाद समाज पार्टी के मुखिया चंद्रशेखर को साथ लाने की कवायद ये बताती है कि अखिलेश यादव सवर्णों के अलावा सभी जातियों के मजबूत चेहरों को अपने साथ लाकर यूपी के 80 फीसदी वोट बैंक को बटोरने की कोशिश में हैं.
80 फीसदी वोट बैंक पर अखिलेश का निशाना
उत्तर प्रदेश के जातिगत समीकरण को देखें तो पाएंगे कि प्रदेश के 80 फीसदी वोटर पिछड़े, अति पिछड़े, दलित, मुस्लिम समाज से आते हैं. वहीं वोट प्रतिशत में सवर्णों का हिस्सा 19 फीसदी के करीब ही है. इसमें 11 फीसदी ब्राह्मण वोट और 6 फीसदी ठाकुर वोट हैं. वहीं अखिलेश के निशाने पर जो जातियां हैं उनमें ओबीसी का वोट बैंक 41 फीसदी, एससी का वोट बैंक 21 फीसदी और मुस्लिम वोट बैंक 19 फीसदी है.
अखिलेश यादव जानते हैं कि अगर वो 80 फीसदी वोट बैंक को साधने में थोड़ा भी कामयाब हुए तो 2024 में यूपी में भारतीय जनता पार्टी को चारो खाने चित कर सकते हैं. अखिलेश यादव ये भी जानते हैं कि उन्हें सवर्ण उतना ज्यादा वोट नहीं करेंगे जितना वो बीजेपी को करते हैं. यही कारण है कि वो इस वोट बैंक पर बिलकुल भी मेहनत नहीं करना चाहते. वो अपना पूरा फोकस सवर्ण बनाम अन्य पर लगाना चाहते हैं.
क्या हो सकता है घाटा?
सवर्णों को दरकिनार करने की वजह से अखिलेश को पार्टी के अंदर ही बगावत झेलनी पड़ सकती है. पार्टी के अंदर पहले से मौजूद ब्राह्मण नेता और ठाकुर नेता उनके खिलाफ हो सकते हैं. जिसकी झलक सोशल मीडिया पर दिखने लगी है. संभावना इस बात की भी है कि बड़ी संख्या में सवर्ण नेता समाजवादी पार्टी का साथ छोड़कर बीजेपी का दामन थाम सकते हैं.
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