दरअसल, प्रयागराज में भारद्वाज आश्रम है. भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण के साथ भारद्वाज आश्रम गए थे. यहीं से भारद्वाज मुनि ने उन्हें चित्रकूट जाने के लिए कहा था.
इतना ही नहीं भगवान राम लंका विजय के बाद भारद्वाज आश्रम ही आकर सत्यनारायण की कथा सुनी थी. उसका चित्र भी भारद्वाज आश्रम में दर्शाया गया था. भारद्वाज ने ही इस आश्रम की स्थापना की थी.
प्रचीन काल में यह प्रसिद्ध शैक्षणिक केंद्र था. वनगमन के समय श्रीराम, सीताजी और लक्ष्मण के साथ यहां आकर भारद्वाज जी से मिले थे. योगी सरकार महाकुंभ से पहले भारद्वाज आश्रम को कॉरिडोर बनाने का काम किया.
प्रयागराज में ही नागवासुकि मंदिर, अलोप शंकरी मंदिर, मनकामेश्वर, द्वादश माधव, पड़िला महादेव जैसे प्रमुख मंदिर भी हैं. नागवासुकि मंदिर परिसर में स्थित भीष्म पितामह का मंदिर है.
नागवासुकी को सर्पराज माना जाता है. नागवासुकी भगवान शिव के कण्ठहार हैं. नागवासुकि जी कथा का वर्णन स्कंद पुराण, पद्म पुराण, भागवत पुराण और महाभारत में भी मिलता है.
पौराणिक कथाओं के मुताबिक, जब देव और असुर, भगवान विष्णु के कहने पर सागर को मथने के लिए तैयार हुए तो मंदराचल पर्वत मथानी और नागवासुकि को रस्सी बनाया गया, लेकिन मंदराचल पर्वत की रगड़ से नागवासुकि जी का शरीर छिल गया.
तब भगवान विष्णु के ही कहने पर उन्होंने प्रयाग में विश्राम किया और त्रिवेणी संगम में स्नान कर घावों से मुक्ति प्राप्त की. नागवासुकि प्रयाग से जाने लगे तो देवताओं ने उनसे प्रयाग में ही रहने का आग्रह किया.
कहा जाता है कि पृथ्वी पर सबसे पहला यज्ञ खुद भगवान ब्रह्मा ने गंगा, यमुना और सरस्वती की पवित्र संगम पर किया था.
इसी प्रथम यज्ञ से प्रथम के प्र और याग अर्थात यज्ञ से मिलकर प्रयाग बना. जब ब्रह्मा यज्ञ कर रहे थे तो स्वयं भगवान श्री विष्णु 12 माधव रूप में इसकी रक्षा कर रहे थे.
पौराणिक मान्यता है कि इस स्थान की पवित्रता को देखते हुए भगवान ब्रह्मा ने इसे 'तीर्थ राज' या 'सभी तीर्थस्थलों का राजा' भी कहा है. शास्त्रों- वेदों और महान महाकाव्यों- रामायण और महाभारत में इस स्थान को प्रयाग के नाम से संदर्भित किया गया है.
तीर्थराज को लेकर एक और कथा प्रचलित है. इसके मुताबिक, शेष भगवान के निर्देश से भगवान ब्रह्मा ने सभी तीर्थों के पुण्य को तौला था. फिर इन सभी तीर्थों, सात समुद्रों, सात महाद्वीपों को तराजू के एक पलड़े पर रखा गया.
दूसरे पलड़े पर तीर्थराज प्रयाग थे. तीर्थराज प्रयाग वाले पलड़े ने धरती नहीं छोड़ी, वहीं बाकी तीर्थों वाला पलड़ा ध्रुवमंडल को छूने लगा था. इसलिए इसे तीर्थराज कहा गया.
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