कांग्रेस पार्टी की राज्याें  में सरकारें गिनती पर गिने जाने लायक चंद बड़े राज्यों में ही हैं. इनमें से ही एक बड़ा राज्य है छत्तीसगढ़ जिसके मुख्यमंत्री भूपेश बघेल आजकल उत्तरप्रदेश के चुनाव में खासे सक्रिय दिख रहे हैं और यहां के चुनावी मैनेजमेंट की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाये हुए हैं व प्रियंका के साथ कंधे से कंधे मिलाकर चल रहे हैं. उन्हें उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव का वरिष्ठ पर्यवेक्षक नियुक्त किया गया है। बघेल और उनकी टीम ने भी जबरदस्त तरीके से मैदान संभाल लिया है. आइए जानते हैं छत्तीसगढ के इस नेता के यूपी में रोल के बारे में पांच बड़ी बातें.


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क्या मिला बघेल का रोल 
सीएम बघेल यहां वरिष्ठ पर्यवेक्षक की जिम्मेदारी देख रहे हैं. चुनाव के दौरान पर्यवेक्षक का काम होता है कि वे वरिष्ठ नेताओं की सभाओं का मैनेजमेंट देखे. श्रोताओं और कार्यकर्ताओं की भीड़ जुटा सके. वे छतीसगढ़ मॉडल की तर्ज़ पर यूपी में हर बूथ पर कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करवा रहे हैं. कार्यकर्ताओं को बूथ प्रबंधन, सोशल मीडिया का उपयोग की ट्रेनिंग उनकी टीम दे रही है. यूपी के 100 नेताओं को बघेल के कहने पर ही छत्तीसगढ़ के रायपुर में मास्टर ट्रेनिंग दिलाई गई है. यूपी का पर्यवेक्षक नियुक्त होने से पहले से ही सीएम बघेल की टीम राज्य में सक्रिय है.


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कैसे मिली जिम्मेदारी
ज़ी मीडिया को मिली जानकारी के अनुसार जब छत्तीसगढ़ में सीएम की कुर्सी को लेकर अलग ही सियासी खेल चल रहा था, उस दौरान भूपेश बघेल ने सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी से मुलाकात की थी. तब सोनिया और प्रियंका से छत्तीसगढ़ के राजनीतिक संकट को सुलझाने पर बात करने के साथ ही भूपेश ने उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान व्यवस्था संभालने की खुद ही इच्छा जाहिर की थी. कांग्रेस हाईकमान को वैसे भी यूपी चुनाव में अपने वरिष्ठ नेताओं के सहयोग की जरूरत थी और भूपेश के खुद पेशकश करने से उनकी यह मुश्किल आसान हो गई, इस तरह भूपेश को राज्य की ड्यूटी पर लगा दिया गया.


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जाति भी बनी बड़ा फैक्टर
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कुर्मी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और इस जाति के वोटर उत्तरप्रदेश में बहुत बड़ी तादाद में हैं. बघेल की जाति का यह फैक्टर भी उन्हें यूपी की जिम्मेदारी दिए जाने की वजह बना उनके नाम को भुनाकर कांग्रेस उत्तरप्रदेश में कुर्मी मतदाताओं के वोट खींचने में सफल हो सकती है. जब कांग्रेस का यूपी में राज था तब दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़ी जातियों के वोटर्स उसकी ताकत थे। आज ये वोटर्स भाजपा, सपा और बसपा में बंट गया है। ओबीसी वोटर्स को फिर से अपने पाले में लाना कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है. कांग्रेस ऐसा संदेश भी देना चाह रही है कि उनके दल में अगर कोई पिछड़ों का बड़ा नेता है तो वो भूपेश बघेल हैं.


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जुनून से मिली जिम्मेदारी
कांग्रेस ने इससे पहले भूपेश और उनकी टीम को आसाम और बिहार के असेंबली इलेक्शन में भी जिम्मेदारी दी थी. उन्होंने और उनकी टीम ने वहां मेहनत तो बहुत की, 100 से ज्यादा सभाएं कराईं, पूरा इलेक्शन मैनेजमेंट संभाला, पर इस सबके बावजूद उनकी पार्टी चुनाव में जीत हासिल नहीं कर सकी. हां इतना जरूर है कि असम की मेहनत ने भूपेश की टीम के जबरदस्त जुनून को सामने ला दिया जिसकी वजह से पार्टी हाईकमान ने उन्हें उत्तर प्रदेश के बड़े चुनाव की जिम्मेदारी देना भी उचित समझा. इसके अलावा जब वे पहली बार पांच अक्तूबर को लखीमपुर खीरी जाने के लिए लखनऊ पहुंचे थे, तब सरकार ने उन्हें हवाई अड्डे से बाहर नहीं निकलने दिया था. उन्होंने वहीं  तीन घंटे धरना देकर मीडिया की सुर्खियां अपनी ओर मोड उप्र में अच्छी आमद दर्ज कराई थी. 


अपनी कुर्सी भी बचाए रखेंगे बघेल 
सीएम बघेल को उत्तर प्रदेश का चुनावी प्रबंधन दिए जाने से उनके ऊपर मंडराया कुर्सी जाने का संकट भी टल गया लगता है. पार्टी और बघेल का प्रदर्शन का कैसा रहेगा ये तो चुनाव परिणाम वाले दिन ही साफ होगा, लेकिन इतना तो तय है कि बघेल के पर्यवेक्षक बनने से छत्तीसगढ़ में जारी राजनीतिक उथलपुथल पर विराम जरूर लग गया है.


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