Lala Lajpat Rai birth anniversary: पंजाब केसरी के सिर पर पड़ी वे लाठियां बन गईं ब्रिटिश सरकार के ताबूत की कील
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Lala Lajpat Rai birth anniversary: पंजाब केसरी के सिर पर पड़ी वे लाठियां बन गईं ब्रिटिश सरकार के ताबूत की कील

Lala Lajpat Rai birth anniversary: 28 जनवरी 1865 को आज ही के दिन पंजाब केसरी लाला लाजपत राय का जन्म हुआ था. लाहौर में साइमन कमीशन का विरोध करते हुए उन्होंने निडरता और साहस का अद्भुत प्रदर्शन किया था.

Lala Lajpat Rai birth anniversary: पंजाब केसरी के सिर पर पड़ी वे लाठियां बन गईं ब्रिटिश सरकार के ताबूत की कील

कुलदीप नागेश्वर पवार. नई दिल्ली. 63 साल की उम्र में जवानों सा जज्बा लिए,  अंग्रेजों के सामने सीना तानकर "इंकलाब जिंदाबाद", "भारत माता की जय" और "साइमन गो बैक" के नारों के साथ कदम-कदम पर ब्रिटिश सैनिकों की लाठियों को झेलते हुए एक जांबाज बढ़ा जा रहा था. उनके पीछे चल रही थी, आजादी के मतवालों की एक टोली जो उनके लगाए नारों को दहाड़ का रुप देकर अंग्रेजी हुकुमत के रोंगटे खड़े कर रही थी. दिन था 30 अक्टूबर 1928 का, जब अविभाजित भारत के लाहौर में साइमन कमीशन का विरोध किया जा रहा था और इस विरोध का झंडा थामने वाले वह वीर जांबाज थे, पंजाब केसरी लाला लाजपत राय जिन्होंने इस दिन निडरता और साहस का अद्भुत प्रदर्शन किया. 
यही वह दिन था जिसके लिए इस साहसी बालक का जन्म हुआ था. साइमन कमीशन का विरोध करने की उनकी हिम्मत से बौखलाई अंग्रेजी पुलिस ने उन पर  लाठीचार्ज किया जिसमे लालाजी गंभीर घायल हुए, जिसके बाद उनकी स्थिति में सुधार नहीं हुआ. अपने सिर से बहते खून की धार से जब उनका बदन भीग गया तो लालाजी ने ये कथन कहे,  "मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी."  लालाजी पर हुए इस कायराना प्राणघातक हमले से गरम दल में खासा रोष था, मानो एक ज्वालामुखी धधक रहा था, जो किसी भी पल अंग्रेजों पर फूट पड़ेगा.  ब्रिटिश पुलिस अफसर सांडर्स जिसने लाठीचार्ज के आदेश दिए थे, वो भी अब खौफ में था. 17 नवंबर 1928 को पंजाब के शेर ने हमेशा के लिए आंखें मीच ली. नतीजन गरम की प्रतिकार रुपी ज्वालामुखी फूट पड़ा और 17 दिसंबर 1928 को सांडर्स का वध कर दिया गया। 
देश में आजादी की अलख जगाने वाले उन लाला लाजपत राय की आज जयंती है. इस अवसर पर हम उनके इन प्रसंंगों को याद कर रहे हैं.

जब लालाजी ने वकालत को बनाया पेशा 
28 जनवरी,1865 आज पंजाब के मोगा जिले में लाला राधाकृष्ण अग्रवाल के घर खुशियां मनाई जा रही हैं. उनकी अर्धांगिनी गुलाब देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया है. इस क्षण किसी को भी ये आभास नहीं है कि ये बालक भारत माता को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्ति दिलाने के मार्ग को प्रशस्त करने वाला है. लाला लाजपत राय बचपन से ही तीक्ष्ण बुद्धि के बालक थे. घर के बड़े बेटे होने के नाते उन पर पारिवारिक जिम्मेदारियांं भी कम नहीं थीं. लेखन और भाषण के शौकीन लालाजी ने वकालत को बतौर पेशा चुना. लाहौर के राजकीय कॉलेज में साल 1880 में कानून की पढ़ाई शुरू की. और इसके साथ ही शुरु हुआ आर्य समाज के आंदोलनों और कांग्रेस की बैठकों में शामिल होने का सिलसिला.

बिना बलिदान आजादी की देवी प्रसन्न नहीं होगी
देश की आजादी का ख्वाब उन दिनों हर भारतीय की आंखों में जुगनू बनकर चमकता दिखाई देता था. लालाजी ने स्वाधीनता प्राप्ति के लिए वकालत छोड़ दी और पूरी तरह से क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए. हर कोई अपने-अपने तरीकों से अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए पहली पंक्ति में खड़ा प्रतीत होता था. देश में क्रांति की लड़ाई दो विपरीत विचारों के साथ लड़ी जा रही थी. एक गुट था नरम दल जो आवेदन, निवेदन और अहिंसा का मार्ग पकड़कर आजादी पाने के स्वप्न देख रहा था तो दूसरा गरम दल जो आंदोलन, प्रदर्शनों के इतर सीधे अंग्रेजों से दो-दो हाथ करना सही मानता था. इनके विचारों में था कि - "बिना बलिदान दिए आजादी की देवी प्रसन्न नहीं होने वाली, उसे हमें अपने खून की बलि देनी ही होगी।" लालाजी इसी गरम दल के वरिष्ठ नेता थे. इसमें चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद-ए-आजम भगत सिंह जैसे कई विरले क्रांतिकारियों के नाम शुमार थे, जो गरम दल रुपी ज्वाला से ब्रिटिश हुकूमत को स्वाहा करते जा रहे थे. 

हालातों के कारण लालाजी को जब छोड़ना पड़ा देश
अपने विचारों की स्पष्टवादिता के चलते लालाजी का प्रभाव क्रांतिकारियों और जनमानस पर सीधे दिखाई पड़ता था, जिससे उनकी लोकप्रियता भी बढ़ी. बंगाल विभाजन 1905 की वो घटना थी, जब लाल-बाल-पाल (लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल) की तिकड़ी ने अंग्रेजों को अपने शौर्य से लोहे के चने चबवा दिए थे. 1917 में बने हालातों के कारण लालाजी को देश छोड़ना पड़ा. भारत की आजादी की लड़ाई अब अप्रत्यक्ष रुप से अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर से लड़ी जा रही थी.  1920 में लालाजी की वतन वापसी के साथ ही वो स्वाधीनता क्रांति के महानायक गए.

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