लोकसभा चुनाव 2019: क्या A-सर्टिफिकेट हासिल करके ही मानेगा चुनाव प्रचार!
फिल्मों को सेंसर बोर्ड से दिए जाने वाले ए सर्टिफिकेट का मतलब है कि इसे सिर्फ वयस्क देख सकते हैं.
नई दिल्ली: दुनिया के ज्यादातर लोकतंत्र वयस्क मताधिकार पर टिके हुए हैं. यानी ऐसा चुनाव जिसमें बालिग ही चुनाव लड़ेंगे और बालिग ही वोट डालेंगे. लेकिन लोकतंत्र के संस्थापकों को यह गुमान कतई नहीं रहा होगा कि आगे चलकर यह वयस्क मताधिकार वाला चुनाव इस तरह की भाषा और तौर-तरीके इस्तेमाल करने लगेगा कि इसे फिल्मों की तरह ए सर्टिफिकेट देना पड़ेगा. फिल्मों को सेंसर बोर्ड से दिए जाने वाले ए सर्टिफिकेट का मतलब है कि इसे सिर्फ वयस्क देख सकते हैं. अगर किसी फिल्म में सामान्य से अधिक हिंसा और अश्लीलता होने का संदेह रहता है तो उस फिल्म को ए सर्टिफिकेट दिया जाता है.
ए कैटेगरी वाले लक्षण
पहले चरण का मतदान होने के बाद लोकसभा चुनाव 2019 का प्रचार अभियान अब इसी ए कैटेगरी वाले लक्षण दिखाने लगा है. समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खान ने अपनी प्रतिद्वंद्वी जया प्रदा का नाम लिए बिना उनके अधोवस्त्रों तक का रूपक इस्तेमाल कर दिया. आजम खान असल में यह कहना चाह रहे थे कि जया प्रदा दिखावे की समाजवादी रही हैं, लेकिन असम में वे शुरू से आरएसएस की एजेंट थीं. लेकिन इस बात को कहने के लिए उन्होंने जिस गंदी भाषा का इस्तेमाल किया, उसका कोई बचाव नहीं हो सकता. उनका यह संवाद अगर किसी फिल्म में होता तो उसे भी ए सर्टिफिकेट देना पड़ता या फिर सेंसर बोर्ड इसे काट देता. लेकिन यहां तो यह हो रहा है कि सभी समाचार माध्यम निंदा के बहाने उनके बयान को चला रहे हैं.
ओछी भाषा का प्रयोग
आजम खान ने अगर ओछी भाषा का प्रयोग किया तो हिमाचल प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती ने तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को सीधे मां की गाली दे दी. भारतीय राजनीति में यह संभवत: पहला मौका है जब किसी पार्टी के वरिष्ठ नेता ने इस तरह से दूसरी पार्टी के अध्यक्ष को अश्लीलतम गाली दी हो. इस तरह की गाली को तो फिल्म में ए सर्टिफिकेट के साथ भी पास नहीं किया जाता. एडल्ट सर्टिफिकेट वाली फिल्म में भी मां-बहन की गालियों के शब्दों को थोड़ा संयत कर लिया जाता है. लेकिन यहां तो बीजेपी के नेता ने भरे मंच से गाली उछाली.
आचार संहिता का उल्लंघन
एडल्ट सर्टिफिकेट देने के लिए अश्लीलता के साथ हिंसा भी वजह होती है. इसके अलावा हमारा संविधान नेताओं से यह भी उम्मीद करता है कि वे सार्वजनिक रूप से न तो झूठ बोलेंगे और न ही देश को तोड़ने वाली बात कहेंगे. चुनाव में बदजुबानी हो जाती है लेकिन वरिष्ठ नेताओं से उम्मीद की जाती है कि कम से कम वे ऐसी भाषा का इस्तेमाल करेंगे, जो अनुकरणीय हो. लेकिन इस चुनाव में तो प्रचार के जोश में आकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही सेना को लेकर इस तरह का बयान दे दिया कि चुनाव आयोग को कहना पड़ा कि उनका बयान आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन है. अगर देश का सबसे बड़ा और लोकप्रिय नेता ही आचार संहिता का पालन नहीं करेगा, तो बाकी नेताओं से क्या उम्मीद की जाएगी.
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जोश में आकर कह दिया कि सुप्रीम कोर्ट ने चौकीदार को चोर मान लिया है. अब सुप्रीम कोर्ट पूछ रहा है कि राहुल जी बताइये हमने कब चौकीदार को चोर कहा. चुनाव प्रचार के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत के बयान को ही तोड़ कर पेश कर देना देश को गुमराह करने की बुरी चाल है.
इसके अलावा सांप्रदायिक मामले पर तो जो बातें हो रही हैं, उनके बारे में जितना कम कहा जाए उतना अच्छा. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने एनआरसी के बहाने इशारों में कह दिया कि देश से हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध अवैध घुसपैठियों के अलावा सबको निकाल दिया जाएगा. यही सीधी-सीधी धमकी देश के अल्पसंख्यक समुदायों के लिए है. पाठकों को याद होगा कि अमित शाह को पिछले लोकसभा चुनाव में सांप्रदायिक बयानबाजी के चलते चुनाव प्रचार करने से रोक दिया गया था. शाह के अलावा यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की चाची और बीजेपी नेता मेनका गांधी लगातार मुसलमानों को टारगेट करते बयान दे रही हैं. योगी तो सेना को मोदी की सेना बताकर चुनाव आयोग का नोटिस पा चुके हैं.
यहां अब तक जिन नेताओं का जिक्र किया. वे सब बड़े नेता हैं. वे देश के जिम्मेदार पदों पर या तो हैं या पहले रह चुके हैं. ये सब जब उन पदों पर पहुंचे थे तो इन्होंने पद और गोपनीयता की शपथ खाई थी. इन लोगों ने अपनी शपथ में कहा था कि मैं देश की एकता और अक्षुण्ता बनाये रखने के लिए काम करूंगा. लेकिन क्या किसी संप्रदाय विशेष के बारे में गिरी हुई बातें करना, मुद्दों और नीतियों के बजाय गाली-गलौच से प्रचार करना और चुनावी फायदे के लिए सरेआम झूठ बोलना, इन नेताओं को शोभा देता है. और क्या यह लोकतंत्र के लिए अच्छा है.
जिस तरह का चुनाव प्रचार यह नेता कर रहे हैं. और जिस तरह से वह प्रचार टीवी, मोबाइल स्क्रीन और अखबारों में दिखाई दे रहा है, क्या वह वाकई बच्चों के देखने लायक है. क्या इस तरह की बदजुबानी, बदमिजाजी और बदतमीजी देखकर बच्चों के मन में लोकतंत्र के खेवनहारों के प्रति अरुचि पैदा नहीं हो जाएगी. पता नहीं इस बारे में संविधान की किताब में क्या लिखा है, लेकिन इस चुनाव की भाषा ऑनली फॉर एडल्ट्स हो गई है. कोई दे या न दे, लेकिन अब यह चुनाव प्रचार एडल्ट सर्टिफिकेट का पात्र बन गया है.
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)