नई दिल्ली: सवा महीने से ऊपर चला लोकसभा चुनाव 2019 आखिर पूरा हो गया. देश के सबसे बड़े लोकतंत्र में 90 करोड़ से ज्यादा वोटरों ने अपना फैसला ईवीएम में बंद कर दिया है. आधिकारिक नतीजे 23 मई को आ जाएंगे. लेकिन उससे पहले 19 मई को चुनाव का अंतिम चरण पूरा होने के साथ ही एग्जिट पोल की बहार आई. ज्यादातर एग्जिट पोल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तख्त पर बने रहने की संभावना जताई है. यह संभावना एनडीए को 250 से लेकर 350 सीटों तक जा रही है.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

एग्जिट पोल को लेकर सत्तारूढ़ गठबंधन प्रसन्न है तो विपक्ष याद दिला रहा है कि 2004 और 2009 में भी एग्जिट पोल जनता की नब्ज नहीं समझ पाए थे. वैसे 2014 में भी एग्जिट पोल बहुत ज्यादा सही नहीं हुए थे, क्योंकि एनडीए ने पूर्वानुमानों से कहीं ज्यादा सीटें हासिल की थीं. एग्जिट पोल के इस इतिहास के साथ यह भी याद रखना चाहिए कि तकनीक के आधुनिक होते जाने के साथ एग्जिट पोल सच्चाई के ज्यादा करीब पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं.


ऐसे में इन एग्जिट पोल को परिणाम का एक रुझान तो माना ही जा सकता है. ऐसे में सवाल उठेगा कि यह रुझान क्यों इस तरह आ रहा है. यह भी सवाल उठेगा कि चुनाव का असल मुद्दा क्या था.


वैसे तो मुद्दे बीजेपी, कांग्रेस सहित सभी दलों के घोषणापत्र में देखे जा सकते हैं. बीजेपी ने अपने चुनाव को पाकिस्तान के बालकोट में हुए एयरस्ट्राइक पर फोकस किया तो कांग्रेस ने गरीब लोगों को हर साल 72000 रुपये के वादे को आगे किया.



लेकिन असल में इन चुनावों में इन दोनों चीजों से बड़ा मुद्दा खुद ब्रांड मोदी रहा. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पीएम मोदी के नेतृत्व में एक ऐसी रणनीति बनाई, जिसमें सरकार के पांच साल के कामकाज की चर्चा होने की कोई संभावना नहीं बन सकी. इस प्रचार अभियान में नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय अस्मिता या कम से कम राष्ट्रवादी अस्मिता के प्रतीक तौर पर पेश किया गया. जब चुनाव शुरू हुआ तो भाजपा की ओर जनता को जो नारा असल में दिया गया वह था- मोदी नहीं तो कौन. और चुनाव के मध्य में पहुंचने के बाद यही नारा पलटकर हो गया- आएगा तो मोदी ही.


ये दोनों नारे बड़े दिलचस्प हैं. इन दोनों नारों में सोचने विचारने की बहुत गुंजाइश वोटर को नहीं दी जा रही है. सीधा सवाल था कि एक मजबूत, राष्ट्रवादी नायक प्रधानमंत्री के रूप में मौजूद है. वह देश की रक्षा कर सकता है और दुनिया में देश का मान बढ़ा सकता है. इसे इस तरह से पेश किया गया कि अगर टाइम मैगजीन ने पीएम मोदी को डिवाइडर इन चीफ बताया तो इसे दुनिया में भारत की गिरती हुई साख के बजाय इस तरह लिया गया कि मोदी ने दुनिया में भारत का इतना नाम कर दिया है कि दुनिया मोदी और इस तरह भारत से जलने लगी है.


इस तरह ब्रांड मोदी एक जबरदस्त भावुक मुद्दा बनकर लोगों तक पहुंचा. वहीं दूसरी तरफ बिखरा हुआ विपक्ष था, जिसकी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस थी. कांग्रेस 2014 की तुलना में 2019 में बेहतर स्थिति में थी. उसके पीछे बहुत सी हारों के अलावा पांच प्रमुख राज्य पंजाब, कर्नाटक्, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की जीत थी. इसके साथ ही कांग्रेस ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया. गरीबों के लिए 72000 रुपये का वादा किया और युवाओं के लिए 22 लाख सरकारी नौकरी का वादा किया. लेकिन ये सारे मुद्दे मिलकर भी ब्रांड मोदी के सामने ठहरते नजर नहीं आए. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पूरे चुनाव में खुद को पीएम की तरह पेश करने से झिझकते रहे.


कांग्रेस के अलावा बीजेपी के सामने बाकी चुनौती क्षत्रपों की थी. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, तमिलनाडु में एम के स्टालिन, उत्तर प्रदेश में अखिलेश और मायावती का गठबंधन और ओडिशा में नवीन पटनायक. इन सब नेताओं की खासियत यह है कि वे अपने राज्य तक सीमित हैं. इन सबके पास अपने अपने इलाके के मुद्दे हैं और इलाके के हिसाब से सामाजिक समीकरण भी हैं. लेकिन इनमें से किसी के पास ऐसा सपना नहीं है जो पूरा देश देख सके. ऐसे में वे अपने पारंपरिक आजमाये हुए सामाजिक समीकरणों के साथ मैदान में उतरे. अगर एग्जिट पोल सही हैं तो ब्रांड मोदी ने इन सामाजिक और क्षेत्रीय समीकरणों में उतनी सेंध तो लगा ही दी है, जिससे एनडीए की बढ़िया बहुमत के साथ सरकार बन जाए.


सारे एक्जिट पोल में एनडीए बहुमत  के साथ सत्ता में वापसी करती दिख रही है. तस्वीर साभार: रायटर्स

यह बिखरा हुआ विपक्ष उस तरह को कोई शख्स सामने नहीं कर सका, जिस तरह का किरदार अतीत में भारी भरकम कांग्रेस को हरा पाता था. इमरजेंसी के बाद अगर जय प्रकाश नारायण वह चेहरा थे तो 1989 में वी पी सिंह उसी तरह से सामने आए थे. अगर पाठक मानने को तैयार हों तो 2014 का असली चेहरा अन्ना हजारे का आंदोलन था. 2019 का विपक्ष इसमें से किसी तरह का विकल्प पेश करता नहीं दिखा. 


ऐसे में अगर विपक्ष के सामाजिक और सियासी समीकरण कामयाब हो जाते हैं और उन्हें ठीक ठाक सीटें मिलती हैं तब भी उन्हें भविष्य के बड़े सपने के बारे में सोचना होगा. क्योंकि नरेंद्र मोदी पुराने किस्म के नेता नहीं हैं जिनकी चर्चा गांव की चौपाल तक सीमित थी. नरेंद्र मोदी नाम चार साल के बच्चे से लेकर 90 साल के बुजुर्ग तक के लिए सहज है. वे कम से कम एक नए हिंदू उत्थान के प्रतीक तो हैं ही. यह हिंदू उत्थान इसी तरह आगे बढ़ा तो पुराने सामाजिक समीकरण आज नहीं तो कल ढह जाएंगे.


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)