Tulsi Ramayan in Hindi: गोस्वामी तुलसीदास जी ने भौतिक सुखों से भरे पड़े इस संसार में आत्मसुख के लिए रामचरित मानस की रचना की. उनका कहना था कि मैं अंत:करण को सुख देने के लिए रामचरित मानस की रचना भाषा में कर रहा हूं. उन्होंने इसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की भी दाता बताया है. रामकथा की शुरुआत होती है बालकांड से. सबसे पहले गोस्वामी जी मां सरस्वती व गणेश जी की वंदना करते हैं, फिर वे मां पार्वती, भगवान शंकर, गुरुदेव, ऋषि वाल्मीकि, हनुमान जी, माता सीता, श्रीहरि को सिर नवाते हैं. पृथ्वी के देवता यानी ब्राह्मणों की भी वंदना करते हैं. 


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तुलसीदास जी ने संत समाज को चलते-फिरते तीरथराज की संज्ञा दी है ,जो शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष देने वाला है. उनका तो यहां तक कहना है कि संतों की संगति के बिना व्‍यक्ति में विवेक हो ही नहीं सकता है. जब साक्षात प्रभु राम कृपा करते हैं तभी संत मिलते हैं. संतों की महिमा पारस जैसी है, जो लोहरूपी मूर्ख मनुष्यों को सोने जैसा बना देती है. बाद में उन्होंने पीछा छुड़ाने के लिए दुष्टों को भी प्रणाम किया है. गोस्वामी जी कहते हैं-


जड़ चेतन गुन दोषमय।
बिस्व कीन्ह करतार।।
संत हंस गुन गहहिं पय।
परिहरि बारि विकार।।


विधाता ने गुण-दोष दोनों को मिलाकर इस संसार की रचना की है. इसमें संत ही ऐसे हैं, जिनके पास नीर-क्षीर विवेक की ताकत है. जैसे हंस दूध में से पानी को अलग करके उसे पीता है, ठीक उसी प्रकार संत भी दोषों को अलग करके गुण ग्रहण करते हैं. उन्होंने शिक्षा भी दी है कि यदि ऐसा विवेक चाहिए तो संतों के साथ रहो. गोस्वामी जी के मुताबिक चीजों को सुसंग और कुसंग ही भला-बुरा बनाता है. जैसे घर, मंदिर भी हो सकता है और शराब का ठेका भी. दवा का दुरुपयोग हो तो वह जहर बन जाती है. पानी को शराब, दूध आदि जिसमें मिला दें उसी का रूप ले लेगा. सुंगध और दुर्गंध से हवा भी प्रभावित हो जाती है. सारा खेल संगति का है. आगे तुलसीदास जी ने चारों वेद, ब्रह्मा जी, ग्रह व अन्य देवताओं के अलावा मां गंगा, दशरथ जी, जनकी जी, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न की वंदना की है. 


अलग-अलग नहीं, एक ही हैं सीता और राम


जैसे वाणी और उसका अर्थ, जल और जल की लहर कहने में तो अलग-अलग हैं लेकिन वस्तुत: एक ही हैं. गोस्वामी जी ने इसी तरह सीता राम को भी अलग-अलग नहीं एक मानकर वंदना की है. 


गिरा अरथ जल बीचि सम।
कहिअत  भिन्न न भिन्न।।
बंदउँ सीता राम पद। 
जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न।।


तुलसीदास जी ने राम नाम की महिमा का भी बखान किया है. इसमें राम नाम को राम और निर्गुण ब्रह्म से भी बड़ा बताया है. 



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