सोना-चांदी, लोहा-तांबा... ब्रह्मांड में धातुएं कहां और कैसे बनीं? सुपरनोवा में छिपा राज आखिर खुल ही गया
Science News: हमें यह तो पता है कि सभी धातुओं का निर्माण ब्रह्मांडीय आग में हुआ. लेकिन वह आग कब और कैसे धधकी थी, इस बारे में हमें कुछ खास नहीं मालूम था. एक नई स्टडी इस बारे में कई सवालों के जवाब देती है.
Science News in Hindi: ब्रह्मांड तमाम रहस्यों से पटा पड़ा है. इसके महान रहस्यों में से एक यह भी है कि सारी धातुएं वास्तव में कहां से आती हैं. वैज्ञानिकों को यह तो पता है कि धातुएं किसी ब्रह्मांडीय अग्नि में तपकर बनती हैं, लेकिन कौन सी आग में और किस अनुपात में? यह अब तक अबूझ पहेली बना हुआ था. हाइड्रोजन और हीलियम से रहित एक दुर्लभ प्रकार का सुपरनोवा कई धातुओं का ज्ञात स्रोत है. हालांकि, यह कभी साफ नहीं हो पाया कि क्या ऐसी भट्ठियों को जन्म देने वाले तारे अकेले भारी वजन वाले हैं या लालची साथी के साथ छोटे द्रव्यमान वाले हैं.
पोलैंड में एडम मिकीविक्ज यूनिवर्सिटी के मार्टिन सोलर और माइकल मिचलोव्स्की के नेतृत्व में खगोलविदों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने बड़ी खोज की है. उन्होंने पाया कि टाइप Ic सुपरनोवा के सभी पूर्वज बहुत बड़े, अकेले तारे नहीं थे, बल्कि आम तौर पर कम छोटे तारे हैं जिनके पास एक बाइनरी साथी है.
टाइप Ic सुपरनोवा: ब्रह्मांड में बेहद दुर्लभ है ऐसा विस्फोट
टाइप Ic सुपरनोवा उन विशाल तारों के कोर के ढहने के कारण बनते हैं जो अपने जीवन के अंत तक पहुंच चुके होते हैं. तारे की कोर में मौजूद सभी हाइड्रोजन भारी तत्वों में विलीन हो चुके होते हैं, और तारा एक ऐसे बिंदु पर पहुंच चुका होता है जहां उसके कोर तत्व इतने भारी हैं कि उन्हें संलयन करने में संलयन प्रक्रिया से निकलने वाली ऊर्जा से ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होती है.
चूंकि इन तारों की परमाणु भट्टी से पर्याप्त ऊर्जा नहीं निकलती, इसलिए बाहरी दबाव कम हो जाता है, जिससे तारे का घना कोर गुरुत्वाकर्षण के आगे झुक जाता है. कोर हिंसक रूप से एक अति-घने न्यूट्रॉन तारे या ब्लैक होल में ढह जाता है, जबकि बाहरी परतें इतनी ताकत से अंतरिक्ष में विस्फोट करती हैं कि भारी धातुएं भी उत्सर्जित पदार्थों में बदल जाती हैं.
टाइप Ic सुपरनोवा के साथ प्रॉब्लम यह है कि अन्य सुपरनोवा के उलट, उनके बाहरी खोल में हाइड्रोजन या हीलियम का पता नहीं चलता है. हालांकि तारकीय कोर में कम हो जाने के बावजूद, हल्के तत्व पर्याप्त मात्रा में वायुमंडल में बने रहने चाहिए थे.
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कहां गायब हो जाते हैं छोटे तत्व?
हल्के तत्वों की गैर-मौजूदगी को लेकर दो संभावनाएं जाहिर की जाती रहीं हैं. पहली थ्योरी में एक तारा शामिल है जिसका द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान से लगभग 20 से 30 गुना अधिक है, और वह इतना विशाल है कि उसमें से तेज तारकीय हवाएं निकलेंगी जो उसके हाइड्रोजन और हीलियम को उड़ा ले जाएंगी. दूसरा विकल्प है बाइनरी साथी - एक छोटा तारा जो सूर्य के द्रव्यमान से लगभग 8 से 15 गुना द्रव्यमान वाले तारे से हाइड्रोजन और हीलियम को सोखने के लिए पर्याप्त करीब है. दोनों ही मामलों में, हाइड्रोजन और हीलियम सुपरनोवा विस्फोट से पहले ही दूर चले जाते हैं, तभी सुपरनोवा उत्सर्जन में वे गायब रहते हैं.
कोर के ढहने से होने वाले सुपरनोवा कई प्रकार के होते हैं. ऐतिहासिक डेटा और सुपरनोवा की जगह से गायब हो चुके तारों को खोजकर, रिसर्चर्स केवल 23 देखी गई घटनाओं के पूर्वजों की पुष्टि करने में सक्षम हुए. उनमें से कोई भी पूर्वज टाइप Ic सुपरनोवा से नहीं है, लेकिन मिचलोव्स्की और उनकी टीम ने सोचा कि उनके वातावरण ने कुछ सुराग छोड़े होंगे.
सुपरनोवा के कहर से बच जाता है छोटा तारा
रिसर्चर्स ने टाइप Ic सुपरनोवा द्वारा पीछे छोड़ी गई आणविक गैस को देखा, और इसकी तुलना टाइप II सुपरनोवा द्वारा पीछे छोड़ी गई आणविक गैस से की, जिसके पूर्वज तारे 8 से 15 सौर द्रव्यमान के बीच होते हैं. दोनों बादलों में हाइड्रोजन एक समान था - जिसका अर्थ है कि टाइप Ic सुपरनोवा आखिरकार कम विशाल तारों से हैं. मिचलोव्स्की ने कहा़, 'हमें यह पता चला कि इनमें से अधिकांश सुपरनोवा इस तरह से व्यवहार नहीं करते हैं.'
मिचलोव्स्की ने समझाया, हाइड्रोजन और हीलियम को अभी भी कहीं जाना है; और सबसे संभावित स्थान एक बाइनरी साथी है. यह साथी आमतौर पर सुपरनोवा से बच जाता है, लेकिन विस्फोट की ताकत उसे अंतरिक्ष में फेंक देती है, जहां वह अपने जीवन के बाकी समय को सामान्य रूप से जीता है, हालांकि एक अलग वेग से.
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नई रिसर्च में दिया गया यह स्पष्टीकरण हमें यह समझने में मदद करता है कि ब्रह्मांड में कई तत्व कहां से आते हैं. हम जानते हैं कि एक बाइनरी साथी से जुड़े सुपरनोवा विस्फोटों से कार्बन की दोगुनी मात्रा उत्पन्न होती है - जो जीवन का निर्माण खंड है - इसलिए अब हम टाइप Ic सुपरनोवा के योगदान को कार्बन की मात्रा के अनुसार समायोजित कर सकते हैं. टीम की रिसर्च Nature Communications पत्रिका में छपी है.