14 अप्रैल भारत के लिए किसी भी राष्ट्रीय पर्व से कम नहीं है. आज एक कृतज्ञ राष्ट्र संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को उनके 127वें जन्मदिवस पर श्रद्धांजलि अर्पित करता है. किसी भी व्यक्ति की महानता इस बात से आंकी जाती है कि उसके जीवन-काल की समाप्ति के बाद भी उसके विचार समाज में कितना परिवर्तन ला पाने में सक्षम हुए हैं. और महानता के इस पैमाने पर बाबासाहेब बहुत ऊपर आते हैं क्योंकि उनके दिखाए मार्ग पर चल कर देश में समानता, बंधुत्व और समरसता की जो क्रांति आई, वह विश्व में शायद ही कहीं देखने को मिली होगी. मानव-जाति की इस लंबी विकास यात्रा में कोई भी दस्तावेज़ इतना क्रांतिकारी नहीं हुआ जितना की बाबासाहेब द्वारा रचित भारत का संविधान है. इस अकेले दस्तावेज़ ने हजारों सालों की गुलामी, अत्याचार और छुआछूत का दंश झेल रहे समाज के बहुत बड़े हिस्से को समान नागरिकता, समान अधिकार और आरक्षण जैसे अतुल्यनीय प्रावधान दे कर उनके सम्मानपूर्वक जीवन जीने का मार्ग दप्रेषित किया. डॉ. आंबेडकर का पूरा जीवन संघर्ष में बीता, उनके साथ खुद बहुत अत्याचार और अन्याय हुआ, लेकिन इसके बावजूद भी उन्होंने संविधान बनाते हुए द्वेषहीन भावना से कार्य किया जिसका परिणाम है कि भारत का हर नागरिक, फिर चाहे वो किसी भी धर्म, जाति, संप्रदाय, लिंग और क्षेत्र से क्यों न हो, संविधान के प्रति पूरी आस्था रखता है. ऐसा विश्वास शायद ही किसी उत्तर-औपनिवेशिक राज्य (post-colonial स्टेट) में देखने को मिला हो. हालांकि जैसे आंबेडकर को आज विभिन्न-विभिन्न विचारधाराओं को मानने वाले दलों द्वारा इतना पूजा जा रहा है, अगर उनको पहले ही इतना सम्मान दिया जाता तो शायद दलित और पिछड़े समाज की परिस्तिथि कुछ और होती. इससे बड़ी क्या विडंबना हो सकती है कि जो दल आज आंबेडकर के प्रति इतना ‘भीषण’ प्रेम दिखाते हैं उन्हें 80 के दशक के दलित-अभिकतन (dalit-assertion) के पहले कभी भी आंबेडकर को सम्मानित करने की याद नहीं आई और 1990 में जा कर कहीं उनको ‘भारत-रत्न’ की उपाधि दी गई. यह स्थिति तो तब है जब पंडित नेहरू को 1955, श्रीमती इंदिरा गांधी को 1971 और राजीव गांधी को 1991 में ही यह सम्मान दे दिया गया था.


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आंबेडकर एक व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व हैं
लेकिन सबसे दुख की बात ये है कि हम आंबेडकर के साथ आज भी पूरा न्याय नहीं कर पाए हैं. बहुमुखी प्रतिभा और ज्ञान के धनी आंबेडकर को हम सामान्य रूप से ‘दलितों के मसीहा’ या ‘सामाजिक न्याय के पुरोधा’ के रूप में ही संबोधित करते हैं. यह उनके साथ आज तक हुई सबसे बड़ी नाइंसाफी है, जिसकी ज़िम्मेदार मूल रूप से हमारी शिक्षा-व्यवस्था और स्वतंत्रता के बाद की सरकारें एवं इतिहासकार हैं जिन्होंने कई दशकों तक आंबेडकर को महज़ इन्हीं दोनों सांचों में डाल कर उनको पूरे देश के समक्ष प्रस्तुत किया. निश्चित रूप से डॉ. आंबेडकर ने दलितों के उत्थान के लिए अतुल्यनीय कार्य किया लेकिन उनका पूरा जीवन राष्ट्र-निर्माण और समाज-कल्याण में बीता, जिसकी सीमा दलित समुदाय के उत्थान तक नहीं थी. पर इसके बावजूद भी हम क्यों उनको महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद आदि कि भांति राष्ट्रीय-नेता का दर्जा नहीं देते हैं, जिन्होंने यही सब काम ही किए हैं.


जिस तरह से सरदार वल्लभभाई पटेल को पाटीदारों/पटेलों का नेता या मौलाना आज़ाद को मुसलमानों का नेता कहना उनके साथ अन्याय होगा उसी तरह आंबेडकर को भी सिर्फ ‘दलितों का नेता’ कहना राष्ट्र-निर्माण में उनके योगदान को अनदेखा करने जैसा होगा. आंबेडकर एक कुशल अर्थशास्त्री भी थे जिन्होंने भारत की मौजूदा आर्थिक व्यवस्था की नींव रखी. 1935 में गठित भारतीय रिजर्व बैंक (आर.बी.आई) का आधार बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा हिल्टन यंग कमीशन के समक्ष प्रस्तुत किये गए विचारों के आधार पर किया गया था. प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार विजेता एवं भारत रत्न से सम्मानित जाने-माने अर्थशास्त्री प्रो. अमर्त्य सेन ने भी दावा किया है कि “डॉ. बी. आर. आंबेडकर अर्थशास्त्र में मेरे पिता है”. 


आंबेडकर योजना बनाने में न केवल कुशल, बल्कि दूरदर्शी भी थे, जिनका लाभ देश को आज तक हो रहा है. आंबेडकर ने बिजली उत्पादन और थर्मल पावर स्टेशन की जांच पड़ताल की समस्या का विश्लेषण करने, बिजली प्रणाली के विकास, जलविद्युत स्टेशन, साइटों, हाइड्रो इलेक्ट्रिक सर्वे के लिए केन्द्रीय तकनीकी विद्युत बोर्ड (CTPB) की स्थापना की. वे दामोदर घाटी परियोजना, हीराकुंड परियोजना, सूरजकुंड नदी-घाटी परियोजना के निर्माता भी रहे हैं. उन्होंने अति-महत्वपूर्ण आवश्यकताओं के रूप में ”ग्रिड सिस्टम” पर बल दिया जो आज भी सफलतापूर्वक काम कर रहा है. मजदूरों के मुक्तिदाता- डॉ. आंबेडकर भारत में मजदूरों के लिए 8 घंटों का कार्य निर्धारण कर श्रमिकों के जीवन में नया प्रकाश लेकर आए थे, उनके प्रयासों से ही 1942 से पूर्व से 12 घंटे के रूप में चला आ रहे समय को बदल कर 8 घंटे कर दिया गया था.


महिलाओं के अधिकारों के लिए उनका संघर्ष विशेष रूप ध्यान रखने योग्य है. भारत के प्रथम विधि/कानून मंत्री के रूप में डॉ. आंबेडकर द्वारा भारतीय महिलाओं के उत्थान के लिए ‘हिन्दू मैरिज बिल’ बनाया गया था. तीन साल तक उन्होंने इस बिल को पारित करवाने के लिए लड़ाई लड़ी. उन्होंने कहा था की यह बिल भारतीय महिलाओं को गरिमा वापस दे रहा है और लड़कों और लड़कियों को समान अधिकार देने की बात करता है. उन्होंने ‘हिन्दू मैरिज बिल’ पारित न होने को लेकर पंडित नेहरू की कैबिनेट से त्यागपत्र दिया था, न कि किसी दलित-मुद्दे पर. लेकिन फिर भी भारत के नारीवादी आंदोलनों में भी इसका को विशेष ज़िक्र नहीं होता है.


भारत की एकता और अखंडता को लेकर उनकी प्रतिबद्धता का स्तर ऐसे समझा जा सकता है कि वो जाति-व्यवस्था को केवल ऊंच-नीच के परिपेक्ष से नहीं, बल्कि बाहरी आक्रान्ताओं के विरुद्ध समाज के एकजुट होने की दिशा में सबसे बड़ी बाधा के रूप में देखते थे. ऐसे समय में जब देश का तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष’ वर्ग हर विषय पर आंबेडकर को याद करते हैं, तो जम्मू कश्मीर को लेकर संविधान के विवादित अनुच्छेद 370 को लेकर भी उनके विचार जानना अति आवश्यक है. कश्मीर के शासक रहे शेख अब्दुल्लाह अनुच्छेद 370 के बाबत जब आंबेडकर के पास पहुंचे तो उन्होंने इसकी मंजूरी देने से साफ इंकार कर दिया. उनका मानना था कि यह नियम भारत की स्थिरता के लिए खतरनाक होगा जिसको वह कभी भी इसकी मंजूरी नहीं दे सकते. ऐसे राष्ट्रवादी और प्रतिभावान न्यायविद, श्रमिक नेता, समाज सुधारक, स्कॉलर, और भारतीय दर्शनशास्त्र के विद्वान् को जब हम ‘दलित-नेता’ कहते है तो हम उनको पुनः उसी जाति-व्यवस्था के दंष में ढकेल देते हैं जो एक दलित को सिर्फ़ हीन दृष्टि से देखने के लिए प्रेरित करता है. समय आ गया है कि हम भारत-रत्न डॉक्टर बाबासाहेब भीमराव रामजी आंबेडकर को ‘भारत के रत्न’ के रूप में देखें.