लोकतंत्र में बच्चों की आवाज सुना जाना सबसे जरूरी
देश के चार राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं. इनमें मध्यप्रदेश भी शामिल है. मध्यप्रदेश में इस चुनाव के संदर्भ में बच्चों की आवाज शामिल करने की एक साझा कोशिश की जा रही है. प्रदेश के तकरीबन 27 जिलों के पांच हजार बच्चों ने मिलकर अपना एक जनघोषणापत्र बनाया है और इसे सभी राजनैतिक दलों को सौंपा है.
सनसनी के इस दौर में देश के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य में क्या कोई बच्चों की मजबूत आवाज है. बच्चों के अधिकारों के अंतरराष्टीय घोषणापत्र में बच्चों को एक महत्वपूर्ण हक दिया गया है और वह है सहभागिता. क्या हमें समाज में बच्चे कहीं नीति और निर्णय में सहभागिता करते नजर आते हैं. पर क्या यह प्रक्रिया उतनी विस्तृत है जितनी कि अन्य लोगों की. क्या हमें ऐसा नहीं लगता कि देश में बच्चे भी योजनाओं के हितग्राही भर हैं, वास्तव में उनकी आवाज को सुनने का कोई व्यवस्थित और व्यावहारिक होना तंत्र अब भी एक चुनौती बना हुआ है. और यदि बात चुनाव के संदर्भ में हो तब तो बिलकुल भी नहीं.
देश के चार राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं. इनमें मध्यप्रदेश भी शामिल है. मध्यप्रदेश में इस चुनाव के संदर्भ में बच्चों की आवाज शामिल करने की एक साझा कोशिश की जा रही है. प्रदेश के तकरीबन 27 जिलों के पांच हजार बच्चों ने मिलकर अपना एक जनघोषणापत्र बनाया है और इसे सभी राजनैतिक दलों को सौंपा है. इसमें उन्होने अपने परिवार, समाज और देश के सभी मुद्दों पर अपनी बेबाक राय दी है और मांग की है कि उनके मुद्दों को राजनैतिक पार्टियों को अपने एजेंडे में जगह देनी चाहिए. वादा किया जाना चाहिए कि वह मांगें सबसे पहले पूरी की जाएं, क्योंकि वह ही देश का भविष्य हैं.
यह ऐसे मासूम आवाजें हैं जिन्हें सुनने वाला कोई नहीं हैं! उनको बनाने वाले बड़े लोग हैं, खुद क्या-कैसा बनना है, यह तय बड़े कर देते हैं. बच्चों से राय नहीं पूछी जाती, उन्हें फरमान सुनाए जाते हैं. तो क्या वाकई उनमें इतनी समझ और क्षमता नहीं है कि वह एक बेहतर समाज निर्माण में अपनी सीधी भागीदारी निभा सकें?
यह प्रक्रिया जो हम इस साझी बात के तहत इस बार ला रहे है, वह यह साबित करती है. पहली बार नहीं, बार—बार यह साबित होता रहा है. केवल क्षमताओं के स्तर पर नहीं मंशा के स्तर पर भी, क्योंकि इस देश में और संकटों के साथ सबसे बड़ा संकट मंशा का हो चला है. इस पैमाने पर बच्चे बड़ों से कहीं ज्यादा खरे उतरते हैं. तिरंगा उनकी किताबों में ही नहीं दिल में लहराता दिखता है, कहीं अधिक तीव्रता के साथ.
इस जनघोषणा पत्र को आप देखेंगे तो पाएंगे कि किस तरह बच्चों ने खुद को समाज से, अपने घर—परिवार से, देश से खुद को जोड़ा है. उन्होंने बताया कि यदि वह अपना पर्यावरण साफ रखेंगे तो यह उनके लिए ही फायदेमंद होगा. उनके पशुओं के लिए फायदेमंद होगा. इसलिए वह जब चित्र बनाते हैं तो उसमें एक बहती हुई नदियों की तस्वीर पेश करते हैं, उनके चित्रों में किस्म—किस्म की चिड़ियों को सामने लाते हैं, सूरज मुस्कुराता है, उनके आसमान पर साफ—सुथरे तारे भी हैं, वह चित्रों में दिखाते हैं कि पेड़ पर कुल्हाड़ी चलाना हमारे ही पर्यावरण के लिए घातक है, लेकिन हम बड़े ही तो नदियों को खोद—खोद कर सुखाने की कगार पर ले आते हैं, उंची अट्टालिकाओं
वाले शहर में सूरज का दिखना मुश्किल है, और चिड़ियों की खैरख्वाह पूछने वाला ही कौन है शहर के चंद फोटोग्राफर्स बस. क्या इतने से काम बनने वाला है?
जब हम उनसे बात करते हैं तो बच्चे बताते हैं कि उनके आसपास क्या कुछ घट रहा है ? बच्चों के साथ अपराध हो रहे हैं. रैप जैसे शब्द बच्चों के मुंह से सुनना भर त्रासदीपूर्ण लगने लगता है, क्या होंगे वह लोग जो ऐसा कर पाते हैं बच्चों के साथ. हम हैरानी से अपना कैमरा बंद करके पूछते हैं यह कहां से सुन लेते हो आप लोग ? टीवी से, न्यूज चैनलों से, अखबारों से ! नहीं वह अपना पड़ोस बता देते हैं. उनको यह घर तक याद है जहां उनकी अपनी आठ साल की सहेली का ब्याह 13 साल के लड़के के साथ कर दिया गया. उफफ, यह कैसा आसपास बना दिया हमने बच्चों का !!! बच्चे पिड्डू, घोड़ा बदाम छाई, डुंई, खोखो, कंचे, कबड्डी के किस्से नहीं, यह कैसे किस्से सुना रहे हैं ?
बच्चे केवल भावनापूर्ण बात नहीं करते. उनको पता है कि किसानों के लिए सबसे जरूरी कर्जा नहीं है उनकी फसल का उचित मूल्य है. उनकी जुबान पर पिछले साल का किस्सा है. किस तरह लहसुन खराब हो गया, और दूसरी फसल का सही दाम ही नहीं मिला. उनको पता है कि भैया को काम चाहिए और गांव में ही काम मिल गया होता तो उसे बाहर नहीं जाना पड़ता. यह जरा—जरा सी बातें नीति—नियंताओं को क्यों समझ नहीं आती. और हम कितनी आसानी से कह देते हैं कि वह तो बच्चे हैं, समझते नहीं.
ऐसी अनगिनत बातें, जो रह—रह कर कानों में गूंजती हैं, ठहर जाती हैं, कहीं अंदर धंसी हुई सी बातें क्योंकि सिर्फ लिख देने भर से क्या होगा? सुन लेने भर से क्या होगा? क्या हम अपना मुंह लेकर दोबारा उन बच्चों तक जा पाएंगे? क्या बताएंगे कि उन्होंने जो सवाल हमारी तरफ बड़ी उम्मीद से उछाले हमने उनका किया क्या?
सवाल हमसे ही तो नहीं हैं. सवाल आपसे भी हैं, हां बिलकुल आपसे, मेरी उंगली ठीक आपकी तरफ है. सवाल समाज से भी है, समाज पहले इसलिए क्योंकि हमने मैं नहीं मानता कि यह पूरी जिम्मेदारी सरकार भर को सौंप दी जाए. सवाल सरकार से भी है, वह बच्चों के हितों के छोटे—छोटे काम अभी तक नहीं कर पाई ! सोचे, क्या वह वाकई इतना कठिन था ? बिलकुल भी नहीं. सवाल प्राथमिकता का है. इस प्राथमिकता में बच्चे दिखाई नहीं देते हैं.
इसलिए लोकतंत्र में बच्चों की आवाज सुना जाना जरूरी है. लोकतंत्र की परिपक्वता के लिए नहीं, पूर्ण लोकतंत्र के लिए, क्योंकि क्या बिना बच्चों की आवाज को शामिल किए इसे पूरा लोकतंत्र मान लेना उचित होगा. हां ये तर्क भी है कि जब तक यह इसमें उन्हें शामिल नहीं किया गया है बच्चे लोकव्यवस्था की दुराग्रहों से बचे हुए हैं, जिस दिन उन्हें भी वोटर जैसा कुछ माना जाना लगेगा, उनका दाम लगा देना कौन सी बड़ी बात होगी. पर यह लोकतंत्र का ऐसा चेहरा है जिसे विसंगतियों ने कुरूप बनाया है, सिद्धांत में यह व्यवस्था मनोहारी है, हो सकती है और ऐसा भी नहीं कि इसे कहीं बनाया नहीं जा सका हो. इसलिए ही जब हम देश के मजबूत निर्माण का सपना देखते हैं तो इससे बच्चों को अलग नहीं किया जा सकता, केवल हितग्राही नजरिए से नहीं सहभागी नजरिए से.
अब देखना होगा कि क्या कोई राजनैतिक दल अपने एजेंडे में इन मु्द्दों को लेकर आता है? क्या विपक्ष बच्चों से संबंधित इन ज्वलंत सवालों को सामने रखकर सत्ता के सामने एक वास्तविक चुनौती रख पाता है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)