बीएचयू में छात्राओं के साथ जो हुआ वो कुछ नया नहीं है. हर गली, कोने, स्कूल, कॉलेज यूनिवर्सिटी में इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं. हमें आदत है बच के निकल जाने की. लेकिन बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की छात्राएं पलट गई हैं, बच-बच के निकलने, नजरें झुकाने से बेहतर है कि एक बार मज़बूती से खड़ा हुआ जाए. बीएचयू में छात्राओं का गुस्सा एक दिन का गुस्सा नहीं है, लड़कियां एक दिन की छेड़छाड़ से परेशान नहीं हुईं ये लंबी खामोशी के बाद का तूफान है. बीएचयू में छात्राएं जो मांगे कर रही थीं उन्हें यूनिवर्सिटी के कुलपति बड़ी आसानी से पूरा कर सकते थे. लेकिन उन्होंने शायद मामले की गंभीरता को नहीं समझा और यूनिवर्सिटी में पुलिस बुलाकर अपनी ही भद्द पिटवा ली. अपनी सुरक्षा की मांग करती हुई लड़कियों पर किया जाने वाला लाठीचार्ज पूरे देश में बीएचयू प्रशासन और पुलिस पर थू-थू करवा रहा है. नवरात्र में जब पूरे देश में देवी को पूजा जा रहा है तो वहीं बीएचयू में देवी मानी जाने वाली बेटियां लाठियां खा रही थीं.


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बीएचयू से लड़कियों की जो तस्वीरें आ रही हैं उनको देखिए गौर से कितना गुस्सा है, कितनी खीज है, कितनी नाराज़गी है. ये लड़ाई आत्मसम्मान की है, खुली हवा में सांस लेने की है. यूनिवर्सिटी जितनी छात्रों की है उतनी ही छात्राओं की है, ये लड़ाई बराबरी की है. ये लड़ाई बेखौफ हॉस्टल्स से निकलने की है. ये लड़ाई इस बात की है कि कहीं कोई शोहदा उनको अश्लील फब्तियां कहता हुआ ना निकल जाए. रास्ते में कहीं कोई हाथ छात्राओं के सीने, उनके कपड़ों के अंदर ना चला जाए. सोचिए कैसी स्थिति होगी जब कोई अपने साथ हुई छेड़छाड़ की शिकायत करने अधिकारियों के पास पहुंचे तो जवाब मिले की बाहर निकली ही क्यों. लड़कियों का गुस्सा इसी मानसकिता के खिलाफ है.


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बीएचयू में लाठीचार्ज के बाद हॉस्टल खाली करा लिए गए. माता-पिता ने अपनी बेटियों को वापस बुला लिया है. जो छात्राएं डटकर खड़ीं थी अश्लीलता, बत्तीमजी, छेड़छाड़ के खिलाफ उनको मां-बाप ये कहकर घरों में कैद कर रहे हैं कि बीएचयू में पढ़ाई करने भेजा था राजनीति करने नहीं. लेकिन क्या ये माता-पिता की जिम्‍मेदारी नहीं कि वो अपनी बेटियों की सुरक्षा, आत्मसम्मान के लिए उनका साथ दें, उनके साथ सड़कों पर उतरें. हजारों छात्राओं के परिजन अगर अपनी बेटियों का साथ देंगे तो कोई सरकार, कोई यूनिवर्सिटी, कोई कॉलेज प्रबंधन कैसे नहीं सुनेगा.


ये जिम्‍मेदारी माता-पिता की है कि वो अपनी बेटियों को शारीरिक रूप से मजबूत तो बनाएं लेकिन उनमें इतनी हिम्मत भर दें कि वो जुल्‍म के खिलाफ खड़ी हो सकें. वो बिना शर्म, बिना झिझक के गलत को गलत कह सकें. माता-पिता को अपनी बेटियों को ये भरोसा दिलाना होगा कि हम तुम्हारे साथ हैं. जब भी कोई तुम्हारे साथ बत्‍तमीजी करे या गलत करे उसे वहीं जवाब देकर आओ बाकी जो होगा हम देख लेंगे. लेकिन हमारे परिवारों को समाज क्या कहेगा इसकी चिंता ज्यादा रहती है. समाज के डर से बेटियों को चुप करा दिया जाता है. क्योंकि ज्‍यादा बोलने वाली, अपने हक जानने वाली लड़कियों को अच्छा नहीं माना जाता है, उनसे कौन शादी करेगा.


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जरूरत मानसिकता बदलने की है. माता-पिता बेटियों को मजबूत भी बना सकते हैं और माता-पिता ही बेटियों को डरपोंक बनाते हैं. बेटों को भी संवेदनशील बनाने की जरूरत है. बेटों को अपने घर की औरतों, मां, बहन की इज्‍जत करना ना सिखाए बल्कि औरत की इज्जत करना सिखाएं ताकि वो सड़क चलती किसी लड़की को माल, आइटम ना समझे बल्कि उसकी इज्‍जत करे. बीएचयू तो सिर्फ एक बानगी है. देश में बेटियां हर कही इसी तरह की समस्याओं से जूझती हैं. कुछ टूटकर खुद को खत्म कर लेती हैं, कुछ को समाज खत्‍म कर देता है और कुछ को परिवार. संवेदनशील बनिए छेड़छाड़ कोई आम घटना नहीं है. इग्नोर करना, रास्ता बदलना उपाय नहीं है बल्कि हमें बदमाश, बत्तमीज, अश्लील और छेड़छाड़ करने वालों को सबक सिखाने की जरूरत है. जरूरत से ज्यादा दवाब बगावत लाता है, और बीएचयू की छात्राएं अब बागी हो गई हैं.


(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)