इस्मत चुगताई कहती हैं, 'यह मर्द की दुनिया है. मर्द ने बनाई और बिगाड़ी है. औरत एक टुकड़ा है उस दुनिया का जिसे उसने अपनी मुहब्बत और नफ़रत का ज़रिया बना रखा है. वह उसे मूड के मुताबिक़ पूजता भी है और ठुकराता भी है.'


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ऐसा ही कुछ धनिया अपने स्वर में कहती है, 'मैं धनिया उस होरी की ब्याहता हूं जो घर का मालिक है. मैं धनिया उस गोबर की मां हूं जो घर का वारिस है. मेरी दो बेटियां हैं सोना और रूपा, वे पराये घर की अमानत हैं. क़ायदे से हमारा घर गृहस्थ ठीक ठाक है. पति के लिए पतिव्रता नारी हो तो यह उसका सुख है, मेरा तन मन होरी को समर्पित है. अगर मेरे पास धन होता तो मैं पाई पाई पति की लालसा पूरी करने में लगा देती. धन नहीं है, ग़रीबी पछाड़ रही है फिर भी रोटी-कपड़ा तो मालिक देता ही है.'


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धनिया के पतिव्रत और कृतज्ञता पर मैं इस्मत चुगताई के संवाद को चस्पा करके बेरहमी नहीं बरत सकती. बहरहाल उनका कहा ग़लत तो नहीं है, 'एक बीबी शौहर से बस इसलिए चिपकी रहती है कि वह उसके लिए रोटी-कपड़ा का सहारा है. तो वह तवायफ़ से कम मजबूर नहीं.' (काग़ज़ी है पैरहन)


इस सबके बावजूद मैं कैसे कहूं कि यहां लेखक एक पुरुष ही था, वह कहां जान सकता था कि औरत के हरबे हथियार क्या होते है. सिर झुकाकर रहनेवाली भी अपनी रणनीति क्या बना रही है, मर्द नहीं जानता. अब यह धनिया की अतिरिक्त भलमनसाहत और संस्कारजन्य कर्तव्यपरायणता थी कि सोच लिया- मुझे किसी ज्ञान की क्या ज़रूरत? अपनी धुन और लगन में पति के बारे में सोचना ही मेरा लोक और परलोक है. यही बात है कि होरी के मन में गऊ लाने की साध है तो मेरे सपने में भी गाय ही गाय आती है.


एक बार की बात है कि होरी के मुंह से निकला- भोला कह रहा था धनिया सलीकेदार औरत है. लक्ष्मी है. जिस दिन उसका मुंह देख लेता हूं कुछ न कुछ ज़रूर हाथ लगता है.


भोला! मेरा मन बदल गया, यकायक पतिव्रत पल्टा खा गया. लगा कोई तो मेरी क़द्र करता है. मुझे धनिया या होरी की पत्नी से कुछ ज़्यादा समझता है. मेरे सुलक्षिणी होने की शिनाख्त करता है. एक होरी है जो मुझे नसीहत दे देकर बेवक़ूफ़ साबित करता रहता है. आज मुझे लगा कि मैं होरी के घर की न सही अपने वजूद की मालकिन हूं. बस कह डाली अपने मन की बात- भोला भूसा मांग रहा था तो दे दो न. एक नहीं तीन खांचे दे सकते हैं. भोलाराम तो भले आदमी हैं. ख़ातिरदारी की ऐसी लालसा जागी कि तमाखू पानी की पूछने की बात भी कह दी.


मन ही मन धनिया कहती है, 'मैं ऐसी कितनी ही सच्ची बातों को नहीं कह पाई, क्योंकि अपनी औक़ात जानती थी. परिवार की सेवा करना बच्चे जनकर ख़ानदान बढ़ाना और हुकुम मानना हमारी ज़िन्दगी का मक़सद है. बिना पूछे कोई काम न करना हमारी वफ़ादारी है. तभी तो मैं पुनिया देवरानी की सारी बात समझने के बाद भी यही बोली- पुनिया बहुरिया पराये मर्द से लड़ेगी तो डांटी ही जाएगी.


हां, मेरी रणनीति कच्ची थी तभी तो लेखक मेरी कमज़ोरी को पहचान गया और मेरे विरुद्ध फ़ैसला दिया कि धनिया की उग्रता जनमत को उसके विरुद्ध कर देती है. उनका कहना सच है क्योंकि हम जैसी औरतें बिना पतवार की नाव पर सवार रहती हैं और ख़ानदानी लोग ही उस नाव में सुराख कर देते हैं. अब उग्रता भी किसके लिए, बाहरी लोगों के लिए. मैंने यह भी देखा कि सरकारी अफ़सरों से लड़ना आसान है पति से लड़ना गुनाह.


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लोग गोदान की धनिया को बहादुर कहते हैं. हां, इसी रूप में मैंने घर और घूंघट में से समय समय पर अपनी आवाज़ बुलंद की है. बुलंद आवाज़ में बोलना मेरा धर्म रहा है लेकिन आवाज़ तो मेरी थी मगर स्वर वही था जो होरी के कंठ से आना चाहिये था. होरी डरपोक था, मैंने अपनी दिलेरी अर्पण कर दी. औरत पतिव्रता एक ही तरह से नहीं होती, पतिव्रत कितनी कितनी जगह दिखाया जा सकता है यह कोई किसान या मज़दूर औरतों से पूछे.


इसमें भी शक नहीं कि मैं थी अपने पति की हृदयेश्वरी मगर जिसकी अपनी कोई जगह नहीं, कोई दुनिया नहीं, तो जोखिम उठाना फिर किस मतलब का? यह तो हमारे प्रेमचंद जी की रवायत रही है कि पति के चरणों वाले स्थान को ही सुरक्षित रखा और वहीं जमे रहने को विकसित होना भी माना. नहीं तो हमारी इच्छा थी कि वे हमें ज़र ज़मीन बख़्शते. बेशक हम भी गाय पालते और समय आते कारख़ाना भी लगता. फिर हम औरतें बधिया बैलों की तरह जोते और भोगे जाने के लिये नहीं होतीं.


मैं दिलेर थी, क्योंकि मैंने हौसला नहीं छोड़ा. बिना वजूद की औरत की तरह होरी की चारपाई के किनारे बैठकर रोई नहीं. मगर बात यह भी तो है कि मैं किसी के किस काम आई. मैं कैसे आती किसी के काम, हम रोएं या गाएं या कि अच्छी से अच्छी सलाह दें, कौन मंज़ूर करेगा हमारी राय? बस तभी तो औरतें घर के मुखिया की राय में राय मिलाती रहती हैं. यहीं हमारे बुद्धि विवेक दब जाते हैं और चेतना की धार मारी जाती है. 


आज के ज़माने में एक मालती नहीं हज़ारों हैं जो अपनी तरह जी कर दिखा रही हैं मगर मर्दों का भरम अब भी हाथ पांव मार रहा है और उनको कॉलगर्ल्स कहकर पुकार रहा है. इस पर तो प्रेमचंद ने कहा है- पुरुष को स्त्री की बुद्धिमती छवि लुभाती तो है मगर भीतर ही भीतर उसको स्त्री का व्यक्तित्व डराता है.


बहरहाल धनिया 'गोदान' की नायिका मान ली गई, क्योंकि 'गोदान' के दो महत्वपूर्ण पात्र होरी और गोबर पति और बेटे के रूप में उसके संसार के नियंता रहे. मैं धनिया, इन दोनों की ही चिंता करती रही और यही मेरे प्रेम का रूप माना गया. असल में नायिका की यह कामयाबी उस नियमावली की कसौटी पर होकर गुज़री है जिसे वेद पुराणों में सती के दर्जे पर रखा जाता है.


अब बात तब की है जब गोबर और झुनिया के आपसी प्रेम को देखकर मेरे भीतर क्रोध धधक उठा था. अपने क्रोध को मैंने बेटे पर नहीं झुनिया पर उतारा. मैं समझ चुकी थी गोबर मर्द बच्चा है किसी भी उम्र में उसे उसकी मर्दानगी से ही तोला जाएगा. उसकी यही योग्यता भी है. मेरी निगाह में झुनिया गुनाहगार थी- 'भोला की यह रांड लड़की बहत्तर घाट का पानी पिए हुए है. गोबर बेचारा इन बातों को क्या जाने? घर आए तो मैं मुंह झुलस दूं रांड का.' यह सब धनिया की दिलेरी तो नहीं थी, मर्दों की सरपरस्ती ही रही.


दूसरी यह बात कि झुनिया का गर्भ गोबर से रह गया है, मैं समझ रही थी मगर कह रही थी, 'चुड़ैल ने मेरे लड़के को चौपट कर दिया. मेरे घर ऐसी छत्तीसियों के लिए जगह नहीं है.'


और पहली बार होरी ने मेरे कहे को ग़लत नहीं ठहराया बल्कि यह कहकर समर्थन दिया, 'तूने उसको घर आने ही क्यों दिया? यह नहीं उठेगी तो घसीटकर बाहर निकाल दूंगा.'


मगर मुझे क्या हुआ, 'मैं अपनी चाल से बेचाल कैसे हुई कि मैं झुनिया को अपने घर ले आई. क्या मैं औरत होने के नाते औरत का दर्द समझ रही थी? ख़तरों से खेलने की भावना मेरे भीतर क्यों जागी?'


नहीं औरत की बात नहीं, मैं यहां निख़ालिस मां होकर सोच रही थी- जो झुनिया के गर्भ में है वह गोबर का अंश है, मेरे हृदय का टुकड़ा.


यहीं से मैंने खुलकर कह दिया - झुनिया ब्याहता न सही महाराज, मेरे बेटे ने उसकी बांह तो पकड़ी है.


मैं क्या क्या याद करूं... धनिया की दिलेरी न जाने कितनी जगह सिर पटक कर रह जाती है और जब सिर उठाती है तो घर के मर्द ही सामने होते हैं. याद आता है सोना का ब्याह. होरी ने सोना के लिए जो वर खोजा वह होरी की ही उम्र का था. रामसेबक नाम का यह आदमी बड़े जीवट की बात कर रहा था. मैं देख रही थी अब होरी के प्राण शांत होते हुये पनप रहे थे. पर मेरा कलेजा तार तार ...मेरी छोटी सी सोना के लिए यह आदमी! मेरे भीतर से चीख़ उठी पर मेर गला रुंधने लगा, 'हाय यह कैसा अजस!'


ओ कुजात होरी, अरे शेखचिल्ली के मंसूबे मत बांध. अपना हाथ कन्यादान के लिए बढ़ा दिया अन्यायी! ओ बेटी बेचवा बाप... होरी! मैं आत्महत्या करूं या मुझे मौत के घाट उतार दे. इस हालत में किस मां का जीने का मन करेगा...


पर हाय औरत की दशा, न गला खुला और न मैं चीख़ी. होरी का मुंह देखती रही चुपचाप. मेरी हिम्मत मेरी दिलेरी घुटन के सिवा कुछ न निकली. मैं बुज़दिल कायर अपने आप से शर्मिन्दा होकर जीती रही कि मरती रही. मैं कितनी ज़ोर से कहना चाहती थी, 'होरी तूने सोना को बेचकर ज़मीन बचा ली. अरे अन्यायी इसमें क्या बेटी का हिस्सा नहीं था. अरे, हिस्सा तो दूर तूने बिटिया की देह का भी मोल भर लिया. गाय की रटन लगी है, सोना क्या गाय से भी गई बीती है? देख लिया अपना न्याय अन्याय कि गोबर ने मरजाद बेच खाई और हमने उसे फिर भी गले लगा लिया. हम खुद इतनी नाइंसाफ़ी करके अपने लिए न्याय किस मुंह से मांगते हैं?


पर मैं धनिया क्या ऐसा कुछ, इतना कुछ कह सकी? मैं तो एक पशु की तरह मूक और बहरी होकर बस घर का विधान देखती रही. नहीं मैं पशु से भी बदतर क्योंकि पशु अपनी नापसंदगी दिखाते हुए सींग तो हिलाता है.


मैं देख रही हूं, हमारे विवाह को पच्चीस वर्ष बीत गए. इतना समय बीता कि होरी का आख़िरी वक़्त आगया. संग साथ छूटने लगा. रिश्ते की डोर टूट रही है. होरी अपने कहे सुने की, करे धरे की माफी मांग रहा है. मेरा कलेजा फटता है ऐसे ही जैसे सोना को उस बाप बराबर आदमी के साथ विदा करते हुए फटा था. विदा बड़ी बेरहम होती है. बड़े से बड़े पत्थर को दरका देती है. आज होरी का बुरे से बुरा व्यवहार मुझे याद नहीं, लगता है यादों में अच्छाइयां ही रह जाती हैं.


मैं मौत की सूरत पहचान रही हूं. ज़िन्दगी की मंज़िल ढहने लगी है. मगर होरी को मेरी नहीं, सोना की नहीं, रूपा की नहीं, गाय की लालसा है. गाय का दूध दुहकर गोबर के बेटे मंगल को पिलाने की लौ लगी है. होरी के लिए गाय ही कामधेनु, गाय ही देवी, गाय ही भवसागर पार कराने वाली वैतरणी है.


मैं धनिया, होरी की धर्मपत्नी, अपने आख़िरी फ़र्ज़ के लिये खड़ी होती हूं क्योंकि मेरी पहचान फ़र्ज़ों से गहरे जुड़ी है. सारा मोल पारिवारिक रिश्तों का रहा. मैं अब भी प्राणपण से वही करना चाहती हूं जो होरी ने चाहा. मेरे पास बीस आने की जमापूंजी है जो मैंने सुतली कातकर कमाए हैं.


बस काज क्रिया में उन्हीं बीस आनों को पुरोहित के हाथ पर धर दिया और मान लिया कि अपनी मेहनत के रूप में पति के लिए गऊदान कर दिया. होरी सदा सदा को विदा ले रहा था और विलाप करती हुई मैं सोच रही थी कि आख़िर यह ‘गोदान’ किसका था?


(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)