जब युद्धों की कीमत 949000 अरब रुपए हो, तो गरीबी कैसे मिटेगी?
वर्ष 2030 तक प्रभावी स्तर तक सभी तरह की हिंसा और गैर-कानूनी हथियारों के व्यापार में कमी लाना. सवाल यह है कि जब हथियारों का `वैध कारोबार` का आकार ही इतना बड़ा है, तो हम शांतिपूर्ण समाज की स्थापना के लक्ष्य को हासिल कैसे कर पायेंगे?
सीरिया में पिछले दो महीनों में 600 लोग मारे गए, जिनमें से 250 बच्चे थे. वहां सत्ता और नियंत्रण के लिए युद्ध कराया जा रहा है. जहरीली गैस तक फैलाए जा रहे हैं. बच्चे मर रहे हैं. जो बच्चे जिन्दा बच रहे हैं, उनका शरीर पास पड़ी मां की लाश के खून से सना हुआ है. वे विस्फोट होते देख रहे हैं. दुनिया में 70 लाख से ज्यादा बच्चे हिंसा के माहौल में रह रहे हैं. इसके दूसरी तरफ दुनिया के सभी देशों ने मिलकर वर्ष 2015 में सतत विकास लक्ष्य तय किये हैं. इन लक्ष्यों के तहत हम गरीबी मिटाना चाहते हैं, शिशु मृत्यु दर-मातृत्व मृत्यु दर कम करना चाहते हैं, हर व्यक्ति को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध करवाना चाहते हैं. यह सब तो है ही, इन्हीं लक्ष्यों में 16वां लक्ष्य है– शांतिपूर्ण और समावेशी समाज की स्थापना करना, सभी को न्याय दिलाना और हर स्तर पर जवाबदेय-समावेशी संस्थागत व्यवस्था का ढांचा तैयार करना. इसमें तय किया गया है कि वर्ष 2030 तक प्रभावी स्तर तक सभी तरह की हिंसा और गैर-कानूनी हथियारों के व्यापार में कमी लाना. सवाल यह है कि जब हथियारों का 'वैध कारोबार' का आकार ही इतना बड़ा है, तो हम शांतिपूर्ण समाज की स्थापना के लक्ष्य को हासिल कैसे कर पायेंगे? वास्तव में एक अच्छे समाज की स्थापना के लिए नागरिकों को भ्रमित करने वाले हिंसक विकास के चक्रव्यूह से निकालने की तैयारी करना होगी.
आज की स्थिति में दुनिया के अलग अलग कोनों में 34 युद्ध और बड़े हिंसक टकराव चल रहे हैं. क्या ये हिंसक टकराव ताले नहीं जा सकते हैं? सभी जगह पर किसी खास धर्म के अस्तित्व को स्थापित करने के नाम पर युद्ध शुरू किये जाते हैं, किन्तु वास्तव में धर्म तो युद्ध का मुखौटा होता है. असल में तो प्राकृतिक संसाधन और तेल पर नियंत्रण के लिए दुनिया के बड़े देश, खास तौर पर अमेरिका और रूस, युद्धों की भूमिका रचते हैं. जब युद्ध होते हैं, तो स्वाभाविक रूप से हथियारों का बाज़ार भी सज ही जाता है. वर्ष 2014 की स्थिति में युद्ध की अर्थव्यवस्था के हालातों का आंकलन करने से पता चलता है कि अब हथियार बाजार अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा बन चुके हैं. अतः सरकारें और नीति बनाने वाले युद्धों को बंद करने के बारे में सोचते भी नहीं हैं.
हिंसा और हिंसक युद्ध किसी भी रूप में समाज के हित में नहीं रही है. ऐसा क्यों हो रहा है कि विकसित होते समाज और दुनिया में अशांति और हिंसा लगातार बढ़ रही हैं. यदि विकास हो रहा है, तो सबको रोज़गार मिलना चाहिए, पर भारत में 6 करोड़ लोग बेरोजगार हैं और विकास की दर के साथ-साथ बेरोज़गारी भी उतनी ही बढ़ रही है. विकास हो रहा है कि भुखमरी के साथ जीवन बिताने वाले लोगों की संख्या कम होना चाहिए. भारत में अब भी 19.50 करोड़ लोग भूखे सोते हैं. अब पता चल रहा है कि अस्पताल में ही बच्चों की मौतें अनियंत्रित होती जा रही है, क्योंकि वहां बच्चों को आक्सीजन ही नहीं मिल रही है. बच्चों के हिस्से की आक्सीजन के बजट से सरकार हथियार खरीदती है.
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उम्मीद तो हम यही करते हैं कि सरकारों को ज्यादा जिम्मेदार होना चाहिए, पर सरकारें तो खुद को बाज़ार के हवाले करती जा रही हैं. चलिए, ये तो लोग भोग ही रहे हैं, पर इसका दूसरा पहलू बहुत दर्दनाक और स्याह है. जानते हैं कि साल 2014 में, केवल एक साल में हिंसा करने और हिंसा से निपटने के लिए कितनी कीमत चुकानी पड़ी? यह राशि है 14.3 ट्रिलियन डालर. इतनी कीमत वर्ष 2016 में भी चुकाई गई. यदि रुपए में जानना चाहेंगे तो इस राशि का मतलब है 949000 अरब रुपए (949 के बाद 12 शून्य). यह राशि दुनिया की कुल जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का 13.4 प्रतिशत हिस्सा है. वर्ष 2008, जब दुनिया में आर्थिक मंदी की बात हो रही थी, में अशांति और हिंसा का आर्थिक प्रभाव 12.4 ट्रिलियन डालर के बराबर था. सात सालों में यह नुकसान 2 ट्रिलियन डालर बढ़ गया. 14.3 ट्रिलियन डालर से भारत में 4.65 लाख मेडिकल कॉलेज खोले जा सकते हैं. भारत के हर गांव को 156 करोड़ रुपए दिए जा सकते हैं. दुनिया भर में 14.30 करोड़ स्कूल खोले जा सकते हैं.
दुनिया के हर व्यक्ति को 1986 डालर (1.30 लाख रूपए) की नकद सहायता की जा सकती है. जब हम हिंसा के प्रभाव का आंकलन करते हैं तब इसमें जिन पहलुओं को शामिल किया जाता है, वे हैं-सेना और हथियारों पर खर्च, अपराध और अंतर्वैयक्तिक हिंसा, जनसंहार से निपटना, यौनिक हिंसा, हिंसा से भय का प्रभाव, टकराव और उससे उपजी स्थितियों से निपटना, आतंकवाद, हथियार उद्योग को रियायतें, सेनाओं का इस्तेमाल, आंतरिक-घरेलू संघर्ष या गृह युद्ध, विस्थापन, सुरक्षा के के लिए निजी सुरक्षा सेवाओं का इस्तेमाल और सकल घरेलू उत्पाद को होने वाला नुकसान.
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अपनी दुनिया, जिसमें उदारीकरण की नीति लागू है, में केवल सैन्य खर्चा ही 6.18 ट्रिलियन डालर रहा. नरसंहार के अपराधों का आर्थिक प्रभाव 2 ट्रिलियन डालर और आंतरिक असुरक्षा का प्रभाव 1.55 ट्रिलियन डालर था. लोगों के बीच हिंसा और यौनिक हिंसा का आर्थिक प्रभाव 1.35 ट्रिलियन डालर रहा. दुनिया भर में हुई हिंसा से जीडीपी में 1.2 ट्रिलियन डालर का आघात हुआ, यानी लोगों और बाज़ार को होने वाला नुकसान इतना रहा.
भारत की स्थिति
जब दुनिया हथियारों के जरिये शान्ति स्थापित करने की नीति पर काम कर रही हो, तब भारत इससे कैसे अछूता रह सकता है. जी हां, भारत आज की तारीख में दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक देश है यानी महावीर, बुद्ध, गांधी, कबीर का देश आज सबसे ज्यादा हथियार खरीदने वाला देश है. हथियारों के बाज़ार में सबसे ऊंचे स्थान के देश हैं– भारत (14 प्रतिशत), सउदी अरब (5 प्रतिशत), चीन (5 प्रतिशत), संयुक्त अरब अमीरात (4 प्रतिशत), पाकिस्तान (4 प्रतिशत).
इसके दूसरी तरफ जो देश सबसे ज्यादा हथियार बेचते हैं, उनमें अमेरिका और रूस सबसे ऊपर हैं. उनके लिए यह मुनाफे का धंधा है. हथियारों के बाजार में सबसे ज्यादा बिक्री करने वाले देश हैं – अमेरिका (31 प्रतिशत), रूस (27 प्रतिशत), चीन (5 प्रतिशत), जर्मनी (5 प्रतिशत) और फ्रांस (5 प्रतिशत). सशस्त्र हिंसा पर जिनेवा घोषणा पत्र के मुताबिक सशस्त्र हिंसा में हर साल 5.08 लाख लोग मारे जाते हैं. इसके बावजूद शान्ति की स्थापना के लिए शस्त्रों को ही तवज्जो दी जाती है.
हमें यह जान लेना चाहिए कि पिछले 7 दशकों में लड़े गए सभी युद्धों में में अमेरिका की केन्द्रीय भूमिका रही है. विश्वभर में हथियारों और हवाई परिवहन के सभी सबसे बड़े उत्पादक निजी क्षेत्र से सम्बन्ध रखते हैं. अत्याधिक आधुनिक हथियारों का उत्पादन उनके लिए मुनाफे का व्यापार है और सरकारें उनके लिए सहजकर्ता की भूमिका निभाती हैं.
जरा इसे यूं समझिए. विश्व के 20 सबसे बड़े हथियारों के उत्पादकों में से 9 अमेरिका के हैं. जरा जानिये ये कौन हैं –लाकहीड मार्टिन (अमेरिका, 36 बिलियन डालर), बोईंग (अमेरिका, 31 बिलियन डालर), बीएई सिस्टम्स (यूके, 27 बिलियन डालर), रेथियोन (अमेरिका, 22 बिलियन डालर), नार्थरोप ग्रुमन (अमेरिका, 21 बिलियन डालर), जनरल डायनामिक्स (अमेरिका, 19 बिलियन डालर), ईएडीस/एयर बस समूह (यूरोप, 18 बिलियन डालर), यूनाइटेड टेक्नालाजीस कार्पोरेशन (अमेरिका, 12 बिलियन डालर), फिन्मेक्कानिका (इटली, 11 बिलियन डालर), थेल्स (फ्रांस, 10.5 बिलियन डालर), एल-3 कम्युनिकेशंस (अमेरिका, 10.5 बिलियन डालर), अल्मेज़ आन्टी (रूस, 8.1 बिलियन डालर), हंटिग्टन इन्गाल्स (अमेरिका, 7 बिलियन डालर), रोल्स रायस (यूके, 6 बिलियन डालर), यूनाइटेड एयर क्राफ्ट कार्पोरेशन (रूस, 6 बिलियन डालर), सेफ्रान (फ्रांस, 6 बिलियन डालर), यूनाइटेड शिपबिल्डिंग कार्पोरेशन (रूस, 5.2 बिलियन डालर), हनीवेल (अमेरिका, 5 बिलियन डालर), डीसीएनएस (फ्रांस, 5 बिलियन डालर) और टेक्सत्रों (अमेरिका, 5 बिलियन डालर).
चीन भी हथियारों के उत्पादन में बहुत आगे है, पर वहां के उत्पादकों के बारे में जानकारियाँ सार्वजानिक नहीं हैं. माना जाता है कि वहाँ के सबसे बड़े उत्पादक चाइना नार्थ इंडस्ट्रीज़ कार्पोरेशन – नारिंको की बिक्री 62 बिलियन डालर है.
चीन अब हथियारों का बड़ा निर्यातक है. उसके व्यापारियों में पाकिस्तान (41 प्रतिशत), बांग्लादेश (16 प्रतिशत), म्यांमार (12 प्रतिशत) सबसे ज्यादा हिस्सेदारी करते हैं. अब जरा स्मरण कीजिये कि पाकिस्तान में चीन क्या निवेश कर रहा है और उसकी धरती का किस तरह इस्तेमाल कर रहा है?
जब अमेरिका कहता है कि भारत उसका प्यारा दोस्त है, तो उसका कारण यह है कि वर्ष 2006-10 की तुलना में वर्ष 2011-15 के सालों में अमेरिका से हथियारों का भारतीय आयात 11 गुना बढ़ गया है.
कितनी मंहगी है शान्ति?
वर्ष 2001 में अमेरिका का रक्षा बजट (जिसमें हथियारों की खरीदी, दुनिया में कहीं भी युद्ध में भाग लेना और शान्ति सेनाओं की स्थापना का खर्च शामिल है) 312 बिलियन डालर था. जो वर्ष 2005 में 503 बिलियन डालर हुआ. वर्ष 2015 में यह 597 बिलियन डालर था.
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भारत का रक्षा व्यय वर्ष 2001 में 14.60 बिलियन डालर था, यह वर्ष 2005 में 23 बिलियन डालर हुआ और वर्ष 2015 में 51.26 बिलियन डालर हो गया. इन 15 सालों में चीन का व्यय 27.90 बिलियन डालर से बढ़ कर 215 बिलियन डालर तक पंहुच गया. साथ में आंकलन है कि भारत ने पिछले 15 वर्षों में 120 बिलियन डालर के हथियार दूसरे देशों से खरीदे हैं. अगले एक दशक में वह और 120 बिलियन डालर खर्च करने वाला है. अगर हथियारबंद लोग ही ताकतवर हैं, तो इसका मतलब है कि महावीर, बुद्ध, गांधी सबसे कमज़ोर व्यक्ति थे!
अमेरिका नीतिगत रूप से इराक, सीरिया, अफगानिस्तान के युद्धों में आगे आया, पर हथियारों की आपूर्ति का काम निजी क्षेत्रों के उत्पादक ही करते हैं. इतना ही नहीं जब ये देश युद्धों के बाद बर्बाद हो जाते हैं, तब निर्माण के काम के ठेके भी अमेरिकी कंपनियों को ही मिलते हैं. यह ध्यान रखना जरूरी है कि जब अमेरिकी सेनाओं और युद्ध में इस्तेमाल होने वाले साजो सामान का खर्चा भी युद्ध के मेजबान देश ही उठाते हैं. यही कारण है कि इराक, सीरिया, लीबिया सरीखे देशों में युद्ध के बाद कुवैत और सउदी अरब लगभग बर्बादी की कगार पर आ गए.
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इसके अलावा बड़ी कंपनियों को फायदा देने के लिए अशांति फैलाने की श्रृंखला में अमेरिकी लोगों को भी भारी खर्चा वहाँ करना पड़ता रहा है. अतः यह नहीं कहा जा सकता है कि अमेरिका के नागरिक युद्ध से सहमत होते हैं. अमेरिकी सत्ताओं ने “विश्व का मालिक” होने की भ्रमित करने वाली सोच न केवल भारत जैसे देशों के दिमाग में जमा दी है, बल्कि यही सोच दूसरे रूप में अमेरिकी नागरिकों के मन में भी भर दी है. यह इतनी प्रभावशाली है कि शान्ति के नाम पर 13.4 ट्रिलियन डालर के भारी खर्चे पर न तो भारतीय सवाल उठाते हैं, न ही अमेरिकी. हर रोज बिना किसी अवकाश यह सन्देश प्रसारित किया जाता है कि इस्लामिक स्टेट समूह का मतलब है, दुनिया का हर वह इंसान जो मुसलमान है, वह आतंकवादी है. यह तथ्य कभी चर्चा में नहीं आता है कि उन्हें खड़ा किसने किया? लश्कर-ए-तैय्यबा नाम का आतंकी संगठन बना और बड़ा कैसे? किसने उन्हें बनाया? जरा छोटी सी बात पर गौर कीजिये कि हथियारों में सबसे ज्यादा हित किसके हैं? कौन हर युद्ध में नेतृत्व लेता है? हर युद्ध के बाद कौन और ज्यादा मजबूत और ताकतवर हो जाता है? कौन शान्ति की परिभाषा गढ़ रहा है?
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बहुत जरूरी है कि विकास की परिभाषा के केंद्र में इंसानियत की रक्षा सबसे बड़ा लक्ष्य हो. सबसे बड़ी उपलब्धि होगी जब हम युद्ध से युद्ध के बीच के काल को शान्ति नहीं कहेंगे, बल्कि मन, वचन, कुदरत और व्यवहार की शान्ति को विकास के सूचक के रूप में स्वीकार कर लेंगे. हिंसा और युद्ध के खिलाफ खड़े हुए बिना हम समाज में बराबरी और गरिमा का तत्व नहीं ला सकते हैं. हमें उन सरकारों से भी सवाल पूछने होंगे, जो युद्धों को उत्सव मानते हैं. शुरुआत हम करें कि हम भीतर से इतने ताकतवर होंगे कि बाहर से कोई आक्रमण न कर सके. हम भीतर से जितने कमज़ोर होंगे, हमें बाहर उतने ही ज्यादा युद्ध लड़ने होंगे. हम भीतर से मजबूत होंगे – शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, सहिष्णुता, समानता और आध्यात्मिक विकास के रास्ते से.
(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)