बात इसी साल के जनवरी माह की है. नोटबंदी ने हर तरफ एक अफरा-तफरी का माहौल बना दिया था. एटीएम मशीन के बाहर लंबी-लंबी कतारें लगी हुई थी, जिसमे लोग पैसा निकालने की जद्दोजहद में लगे हुए थे. इन हालातों को देखकर लगभग सभी मीडियाकर्मियों/राजनीतिक विश्लेषकों ने यह मान ही लिया था कि ‘नोटबंदी’ बीजेपी के लिए ‘वोट-बंदी’ साबित होगी, अर्थात आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी का सूपड़ा साफ़ हो जाएगा. ऐसे में एक पत्रकार ने विपरीत धारा में यह लिखा कि नोटबंदी को बीजेपी के ताबूत की कील मान लेना शायद ठीक नहीं होगा और परेशान होने के बावजूद लोग ‘आतंकवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ एक साहसिक कदम’ के रूप में इसका समर्थन कर रहे हैं जिसका परिणाम शायद बीजेपी के हित में जाए. और ऐसा हुआ भी, बीजेपी को उत्तर प्रदेश चुनाव में एतिहासिक जीत और प्रचंड बहुमत हासिल हुआ. उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में घूम-घूम कर अपनी रिपोर्ट और अपना निष्कर्ष लिखने वाले यह पत्रकार थे प्रशांत झा.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

प्रशांत झा जाने-माने लेखक होने के अलावा अंग्रेजी समाचार-पत्र हिंदुस्तान टाइम्स के एसोसिएट एडिटर भी हैं और अपनी निष्पक्षता और कई चुनावों को कवर करके अपनी मज़बूत ग्राउंड रिपोर्टिंग के लिए जाने जाते हैं. उनकी इसी राजनीतिक सूझबूझ, कठोर ग्राउंड रिपोर्टिंग और लंबी शोध का लेखा-जोखा है उनकी नयी पुस्तक How the BJP wins: Inside India’s Greatest Election Machine. लगभग ढाई सौ पन्नों की यह पुस्तक बीजेपी समर्थकों और बीजेपी आलोचकों दोनों के लिए पढ़ना बहुत ही ज़रूरी है ताकि वो यह समझ सकें कि आखिर ऐसा क्या कारण है कि जिससे बीजेपी साल 2014 से एक के बाद एक चुनाव जीतती चली जा रही है और उसका विजय-रथ दिल्ली और बिहार में झटके खाने के बाद भी उत्तर प्रदेश में इतने व्यापक रूप से कैसे उभरा. सात भागों में बंटी यह पुस्तक हर उस पहलु पर रौशनी डालती है जिससे बीजेपी का ‘विनिंग फ़ॉर्मूला’ तैयार होता है, फिर चाहे वो उसकी ‘सोशल इंजीनियरिंग’ और ‘सोशल मीडिया’ हो, परोक्ष रूप से ध्रुवीकरण का समर्थन करना या उसको बढ़ावा देना हो, संघ परिवार का व्यापक नेटवर्क और संगठन हो या प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता.


झा का मानना है कि दो कारणों से बीजेपी आज इतनी सशक्त स्थिति में पहुंची है- पहला है प्रधानमंत्री मोदी की ख्याति और एक  कर्मठ, जुझारु, साफ़-सुथरी छवि और दूसरा है पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की चुनावी और संगठनात्मक रणनीति जिससे वो आज बीजेपी को देश ही नहीं दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करते हैं और संसद से लेकर बूथ स्तर तक के प्लान भी वो ही बनाते हैं. झा के अनुसार उत्तर प्रदेश में मोदी स्वयं एक ‘कम्पलीट पैकेज’ के रूप में पेश किये गए. 


लगभग 70 प्रतिशत दलित और पिछड़े जातियों की जनसंख्या वाले प्रदेश में मोदी एक ‘पिछड़े’ जाति के नेता बन कर जनता के बीच गए जो अपनी हिन्दुत्ववादी और विकासवादी छवि को साथ लेकर चलता है और ऐसा करने में वो गर्व महसूस करता है. अपनी सरकार की सभी सामाजिक कल्याणकारी योजनाओं को और यहाँ तक कि नोटबंदी को भी उन्होंने गरीबों के हित में और आतंकवाद, भ्रष्टाचार को ख़त्म करने वाले एक ‘बलिदानी’ कदम और ‘आहुति’ के रूप में प्रस्तुत किया जिसको प्रदेश की जनता ने परेशानियों के बावजूद भी हाथों-हाथ लिया. मोदी को अपनी हिन्दुत्ववादी छवि बनाने के लिए कुछ भी करना नहीं पड़ा क्योंकि विपक्ष के हमलों का कारण उत्तर प्रदेश में वैसे ही चुनाव में वो एक ‘हिन्दू-नेता’ के रूप में देखे जाने लगे थे.


झा मानते हैं कि अमित शाह ने पार्टी में जिस तरह से परिवर्तन किया और उसको अधिक से अधिक समावेशी बनाने का प्रयास किया  उससे बीजेपी उन समुदायों तक भी अपनी अच्छी पैठ बना सकी जो अन्य पार्टियों के वोट बैंक माने जाते थे. बीजेपी ने अपनी छवि एक ‘ब्राह्मण-बनिया’ पार्टी को बदलने के लिए एक नयी सोशल इंजीनियरिंग की. सवर्णों को साथ लेने के अलावा बीजेपी ने गैर-यादव पिछड़ी जातियों और गैर-जाटव दलितों को अपने खेमे में लाना शुरू किया जो सत्ता में अपने हिस्से की भागीदारी चाह रहे थे. 


झा से साक्षात्कार के दौरान बीजेपी के राज्यसभा सदस्य और पार्टी के बड़े नेता भूपेंद्र यादव ने बताया कि क्योंकि प्रदेश के मुसलमान, जो की 20 प्रतिशत हैं, जाटव दलित, जो कि बसपा समर्थक हैं, और यादव, जो कि सपा समर्थक हैं, बीजेपी को वोट देंगे नहीं, इसलिए पार्टी ने अपना सारा ध्यान अन्य 55-60 % जनता पर केन्द्रित किया. इसके लिए पार्टी की कमान पिछड़ी जाति से आने वाले कट्टर हिंदूवादी समझे जाने वाले सांसद केशव मौर्या को दे दी गई और अन्य पार्टियों के बड़े और प्रभावशाली नेताओं को पार्टी में जगह और टिकेट दोनों ही दिए गए, फिर चाहे वो बसपा से आए स्वामी प्रसाद मौर्या हों या कांग्रेस से आई रीता बहुगुणा जोशी.


झा वर्णन करते हैं की जिन राज्यों में पार्टी कमज़ोर है या रही है वहां पर पार्टी ने तीन सिद्धांतों का सहारा लेकर अपना आधार बढ़ाया है. पहला, उस राज्य के बड़े राजनीतिक व्यक्ति को अपनी पार्टी में शामिल करना, जैसा कि पार्टी ने असम में किया जहाँ पर कांग्रेस के बड़े नेता और मंत्री रहे हिमंता बिस्वा सरमा को पार्टी में शामिल करवाया जिससे पार्टी को पूरे पूर्वोत्तर में अपने आधार और सरकार दोनों बनाने का मौका मिला. कुछ ऐसा ही रणनीति पार्टी ने मणिपुर में भी अपनाई जहाँ पूर्व की कांग्रेस सरकार में मंत्री रहें एन. बिरेन सिंह को पार्टी ने शामिल कर के उनको मणिपुर में बीजेपी का पहला मुख्यमंत्री भी बना दिया.


दूसरा है अपनी मूल विचारधारा के साथ थोड़ा समझौता कर लेना या कहा जाए थोड़ा ‘फ्लेक्सिबल’ होना. मसलन राज्यों की जन-भावना और संस्कृति को देखते हुए बीजेपी ने बीफ-बैन और उस से सम्बंधित राजनीति को पूर्वोत्तर राज्य में बिलकुल भी इस्तेमाल नहीं किया. तीसरा है ज़मीनी हकीकत को समझते हुए व्यावहारिक दृष्टिकोण. सामान्य रूप से किसी भी एनकाउंटर को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का हवाला देकर उसके ऊपर प्रश्न न उठाने वाली पार्टी ने स्वयं मणिपुर में सुरक्षा बलों द्वारा तथाकथित फर्जी एनकाउंटर (extra judicial killing) का मुद्दा उठाया.


साम्प्रदायिकता को लेकर झा बीजेपी की आलोचना करते हुए कहते हैं कि पार्टी के कुछ नेताओं ने चुनाव में धार्मिक ध्रुवीकरण लाने की कोशिश भी की और चुनाव को ‘हिन्दू-मुस्लिम’ मुद्दा बनाने का प्रयास किया. झा के अनुसार इसका कारण है पार्टी की यह सोच कि जिस राज्य में लघभग 20 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या है और जो बीजेपी को बिलकुल भी वोट नहीं देना चाहती, वहां पर पार्टी के पास जाति से ऊपर उठ कर ‘हिन्दू एकता’ का कार्ड खेलने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था, क्योंकी कहीं न कहीं सभी जातियों में यह भावना थी कि अन्य दल मुस्लिम तुष्टिकरण में लगे हुए हैं, जिसका फायदा बीजेपी को हुआ. झा मानते हैं कि बीजेपी यदि सचमुच में समावेशी दल के रूप में उभरना चाहती है तो उसको अपने नारे ‘सबका साथ, सबका विकास’ को ज़मीन पर लागू करना होगा. इसके लिए उसको मुस्लिम समुदाय में व्याप्त भय और चिंताओं को दूर करना होगा जो काफ़ी हद तक भ्रम भी है और हकीकत भी, और जिसको समय-समय पर पार्टी के ही कुछ नेता अपने उग्र बयानों से और भी ताज़ा कर देते हैं. 


झा यह भी मानते हैं कि भले ही पार्टी ने ‘हिन्दू-एकता’ के नाम पर चुनाव जीत लिया हो लेकिन प्रशासनिक और सामाजिक स्तर पर इसको बरक़रार रखना पार्टी के लिए एक बड़ी चुनौती होगी क्योंकि पार्टी के सवर्ण समर्थक और नेता और पिछड़े, दलित समर्थकों और नेताओं के हितों में कई मतभेद होना लाज़मी है. सहारनपुर इसका एक उदहारण मात्र है, जहाँ कुछ समय पहले दो जातियों में हिंसक झड़पें हुई थी.बीजेपी के विरोधियों के लिए भी यह पुस्तक बहुत लाभकारी हो सकती है क्योंकी इसमें झा पार्टी कि कमियों, उसकी कथनी और करनी के बीच के विरोधाभासों और उसकी वैचारिक खामियों को खुल के उजागर करते हैं.


झा जैसे पत्रकारों द्वारा लिखी गयी पुस्तकों का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि इसमें दिया हुआ ज्ञान ज्यादातर एक निष्पक्ष ग्राउंड रिपोर्टिंग, आम जनता से बातचीत और अनेक पार्टी के नेताओं से साक्षात्कार से उत्पन्न होता है, जिसको पढ़ कर ऐसा अनुभव होता है कि पाठक स्वयं उन सब गतिविधियों का हिस्सा है और जैसे कि हर एक चीज़ उसके सामने ही घटित हो रही हो. अफ़सोस ऐसी पुस्तकें हिंदी में कम ही आती हैं और मेरे अनुसार झा को इसका हिंदी अनुवाद भी जल्द से जल्द लान चाहिए जिससे ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश की वो हिंदी-भाषी जनता पढ़ सके, जिनके ऊपर शोध करके और जिनके बारे में चर्चा और ज़िक्र कर के झा ने यह बेहतरीन पुस्तक लिखी है.  


(लेखक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में एम.फिल. के रिसर्च स्कॉलर हैं.)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)