Book Review : धीरे-धीरे पढ़ें, इतवार को छोटा होने दें
अगर गज़ल को माशूक से बात करने का ज़रिया भी माना जाए या विवशता या किसी तरह की मन की कचोट के बाहर निकलने के माध्यम के तौर पर भी देखा जाए तो भी बात एक ही हो जाती है.
शराबी फिल्म के नायक को शायरी करने का शौक है. लेकिन वह शायरी कर नहीं पाते हैं. उनके एक गुरु हैं जिन्होंने उनकी बचपन से देखरेख भी की है. वह उन्हें सिखाते भी हैं और उनकी कटु आलोचना भी करते हैं. एक दृश्य में नायक के किसी शेर पर वह उन्हें बोलते हैं कि ‘तुम्हारा शेर अच्छा नहीं है. अपने शेर में वजन पैदा करो. काफिये से बात करो, शेर में वजन पैदा करो.' उनके इस तरह समझाने पर हीरो उनसे पूछता है - बस यही तो बात है मुंशी जी, ये कम्बख्त वजन कहां से लाएं, देखिए रदीफ पकड़ते हैं, तो काफिया तंग पड़ जाता है, काफिये को ढील देते हैं तो वजन गिर पड़ता है, ये वजन मिलता कहां है.' इस पर मुंशी जी जवाब देते हैं – ‘दिल की दुकान पर, इश्क के बाज़ार में, मोहब्बत के शहर में और प्रेम की दुनिया में.'
फिल्मों में ग़ज़ल की इतनी खूबसूरत मीमांसा कम ही देखने को मिलती है. ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जो धीरे- धीरे फिल्मों से ही नहीं साहित्य से भी लुप्त होती जा रही है. कुछ फेसबुकिया शायरी के दौर में जो लिखा जा रहा है उसमें न रदीफ की समझ जान पड़ती है न काफिये की तुक दिखती है. प्रताप सोमवंशी हमें उसी वजन से रूबरू करवाते हैं.
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ग़ज़ल को जज्बात और शब्दों का एक बेहतरीन गुलदस्ता कहा जा सकता है. ग़ज़ल हमेशा से उर्दू काव्य का एक बहुत ही दिलकश और सुरीला अंदाज़-ए-बयां रही है. लेकिन इसे लेकर उर्दू साहित्य की गलियों में ही हमेशा चर्चा बनी रही. ग़ज़ल अरबी और पर्शियन भाषा से उर्दू में आई जहां पर इसका मतलब औरत के बारे में बातचीत होता है. आमतौर पर ग़ज़ल को माशूक से बातचीत का ज़रिया भी बताया जाता है. वहीं ग़ालिब ग़ज़ल के लिए कहते हैं-
बकद्रे शौक नहीं ज़र्फे तंगना-ए-ग़ज़ल.
कुछ और चाहिए वसुअत मेरे बयां के लिए.
यानी मेरी भावनाओं को खुलकर बयां करने के लिए ग़ज़ल छोटी पड़ जाती है इसलिए मुझे अपनी बात रखने के लिए कोई और ज़रिया चाहिए.
उर्दू के प्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय रघुपति सहाय ‘फिराक’ गोरखपुरी ने ग़ज़ल की बड़ी ही बेहतरीन परिभाषा दी है. उनका कहना है, 'जब कोई हिरण भागते-भागते किसी ऐसी झाड़ी में फंस जाता है जहां से वह निकल नहीं सकता, उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज़ निकलती है. उस करुण आवाज़ को ग़ज़ल कहते हैं. इसीलिए विवशता का दिव्यतम रूप में प्रकट होना, स्वर का करुणतम हो जाना ही ग़ज़ल का आदर्श होता है.’
अगर ग़ज़ल को माशूक से बात करने का ज़रिया भी माना जाए या विवशता या किसी तरह की मन की कचोट के बाहर निकलने के माध्यम के तौर पर भी देखा जाए तो भी बात एक ही हो जाती है. माशूक परिस्थितियां भी हो सकती हैं. दुनिया भी हो सकती है, इंसानियत भी और अंदर के जज़्बात भी. जब अपने इर्द गिर्द कुछ ऐसा होता हुआ दिखता है जिसे व्यक्त करने के लिए जज्बात बाहर निकलने को आतुर हो जाते हैं तो वो ग़ज़ल हो जाती है.
ऐसी ही एक किताब है ‘इतवार छोटा पड़ गया’, पत्रकार-लेखक-शायर (आप जो मर्जी कहें) प्रताप सोमवंशी की बीते दिनों प्रकाशित हुई ये कृति जिसमें लिखे शेर आपको इस लुप्त होती कला को फिर से जीवित हो जाने का अहसास दिलाते हैं.
अपने 27 सालों के लेखन को एकत्र करके किताब की शक्ल में प्रस्तुत इस पुस्तक में कहीं शायरी का वो कच्चापन भी नज़र आता है जो उनके शुरुआती दिनों की याद दिलाता है. कहीं ये शेर किसी आग में तपे हुए मटके की तरह इतने पक्के नज़र आते हैं कि पढ़कर आपके मुंह निकल जाता है, मुकम्मल.
उनकी ईमानदारी उनके शेरों में भी नज़र आती है –
‘लायक कुछ नालायक बच्चे होते हैं
शेर कहां सारे ही अच्छे होते हैं.’
वहीं वह कहीं हमारे समाज के शोषित वर्ग की व्यथा को भी खूबसूरती से बयान करते हुए दिखते हैं-
राम की शबरी जंगल में तो रहती है.
बेरों पर उसका अधिकार नहीं होता.
वहीं वह आगे विश्वास पर विश्वास रखने की सलाह भी दे देते हैं-
खुद से ड़रना, कश्ती पे भी शक करना
अब ऐसे तो दरिया पार नहीं होता है.
उनकी लेखनी में जीवन की आपाधापी और उसमें चूर इंसान की व्यथा का चित्रण भी देखने को मिल जाता है जिसे उन्होंने बेहद ही खूबसूरती और मार्मिक तरीके से लफ्जों में गूंथा है-
पहले दिन छोटे पड़ते थे.
अब लगता है रात बड़ी है.
घर लौटें है सपने थककर
देहरी पर इक आस खड़ी है.
वहीं वह समाज के दोगलेपन को भी उघाड़ते हुए नज़र आते हैं-
परिन्दे सिर्फ इतना चाहते हैं
शिकारी हो शिकारी बन के आओ.
आगे एक शेर में भी एक औऱ अंदाज़ कुछ इस तरह से निकलता है –
उल्टे दिन है दुख बांटोगे तो बढ़ जाएगा
खुद को खुद ही चिट्ठी लिखना, पढ़कर रख लेना.
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उनकी रचनाएं जितनी मासूम और सरल हैं उतना ही उसमें सामाजिक सरोकार भी नज़र आता है. उनका ग़ज़ल कहने का अपना एकअलग ही अंदाज़ है. उनकी यही शैली बात को मन में घर करवाने की ताकत रखती है. किताब में लिखी हुई ग़ज़लों की सबसे बड़ी खूबी है उसमें पानी की तरह रवानी का होना जो मुंह को लगते ही गले से खुद ब खुद नीचे उतर जाता है. एक बानगी देखिये-
ये ख्वाहिंशे भी वो सीढियां हैं जो खत्म होती नहीं कभी भी
समझ गया हूं मैं चढ़ते-चढ़ते कई बरस से उतर रहा हूं .
उनके शेरों में वो तल्खी भी नज़र आती है जिससे हम अक्सर वाबस्ता होते हैं. खासकर रचनात्मक काम करने वाला जब उनके शेरों से गुज़रता है तो वह महूसस करता है कि ये तो उसके ही दिल की बात है. मसलन-
कितना प्रतिभाशाली है
काम नहीं है खाली है .
केवल फल से मतलब है
कैसे कह दू माली है .
सपनों की दुकानें है
भाषण हैं और ताली है .
वहीं कहीं पर उनका दार्शनिक अंदाज़ भी देखने को मिलता है जहां आप दुनिया को एक नए चश्मे से देखते हैं.
सबका पैमाना अलग, जोड़-घटाना भी अलग
हर इक शख्स को लगता है वो नुकसान में है .
उन्हें पढ़ते हुए 'भावुक मन' की ऐसी झलक मिलती है जो जीवन की आपाधापी में हमसे हाथ छुड़ाकर भाग खड़ा होने को तैयार बैठा है, शायर ने उसे ही मजबूती से पकड़कर रखा है-
कितना मुश्किल काम है अच्छाइयों को ढूंढना
यूं तो खबरों से भरे है रोज़ ही अख़बार सौ.
ये संग्रह उस बड़े से कैनवास की तरह है जहां सबके लिए कुछ रंग हैं. लड़कियों को लेकर प्रताप की चिंता उनके शेरों में साफ दिखाई देती है-
ये जो लड़की पे हैं तैनात पहरेदार सौ/ देखती है उसकी आंखे भेड़िए खूंखार सौ.
इस ग़ज़ल संग्रह की खूबी यही है कि इसे पढ़ने वाले हर पाठक के लिए कुछ न कुछ है. हो सकता है एक साथ दो लोग जब इसे पढ़ें तो दोनों अपने अपने तरीके से अलग अलग शेरों को पेंसिल से अंडरलाइन करें. लेकिन इसे जब भी पढ़ें तो धीरे-धीरे चुगलाते हुए पढ़ें. इतवार को छोटा पड़ जाने दें...
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)