आखिर क्यों सबसे अधिक बच्चों ने कहा, पिटाई होना सही है!
गुरुकुल में दंड को लेकर मत भिन्न-भिन्न रहे हैं. प्राचीन भारत की शिक्षा भौतिक वातावरण से मुक्त कही जा सकती है. प्राचीन शिक्षा का उद्देश्य विद्या सा विमुक्तये का था. उस समय के नरेशों को भी गुरुकुल के आगे शीश नवाना पड़ता था. उस समय आत्मसंयम शिक्षा के लिए अति आवश्यक गुण माना जाता था.
पिछले ब्लॉग में हमने सवाल उठाया था कि क्या हम बच्चों को हम उनके सपनों की दुनिया सौंप रहे हैं? 'बच्चों की आवाज' नामक एक ताजा ओपिनियन पोल में यह बात बेहद दम से निकलकर सामने आई थी कि बच्चे सबसे पहले एक अच्छा इंसान बनना चाहते हैं. हम बड़ों का समाज बच्चों के साथ क्या सुलूक करता है, इसका चेहरा भी यही रिपोर्ट बताती है. इसकी शुरुआत उस व्यवस्था से होती है जिसमें हम बच्चों को सीखने-समझने के मौके उपलब्ध कराते हैं. वह औपचारिक-अनौपचारिक कैसे भी होते हैं, मसलन स्कूल, आंगनवाड़ी, घर, आसपड़ोस.
इस अध्ययन में निकलकर आया है कि 72 प्रतिशत बच्चों के साथ स्कूल में पिटाई होती है. सोचने की बात यह है कि पिटाई को इतना सामान्य मान लिया गया है कि 46 प्रतिशत बच्चे स्कूल में पिटाई होने को सही मानते हैं. 28 प्रतिशत बच्चों ने कहा है कि स्कूल, घर या बाहर उन्हें अपशब्द कहे जाते हैं. स्कूल ही नहीं घर में भी बच्चों की पिटाई होती है और 54 फीसदी बच्चों ने इसे सही बताया है. 34 प्रतिशत बच्चों ने बताया कि घर में पिताजी उनकी पिटाई करते हैं, 20 प्रतिशत बच्चों को मां से पिटाई खानी पड़ती है. 31 प्रतिशत बच्चों ने इस सवाल पर चुप रहना ही उचित समझा. क्या इस बात पर सोचा गया है कि पिटाई का बच्चों के कोमल मनोमस्तिष्क पर क्या असर होता होगा.
दंड की परंपरा आज से नहीं है. भारत में गुरुकुल परंपरा का चलन रहा है. नालंदा विश्वविद्यालय के दस्तावेज में उल्लेख है कि शिक्षकोंको उन बच्चों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जिन्हें ज्यादा सहयोग की जरूरत है और फिर भी अगर जरूरत पड़े तो अनुशासन बनाए रखने के लिए ऐसे तरीके अपनाए जाने चाहिए जिनसे सीखने और जिम्मेदार बनने की प्रवृत्ति का विकास हो. गुरुकुल व्यवस्था के तहत भी अपना निर्धारित कार्य पूरा न करने वाले या अनुशासनहीनता करने वाले बच्चों को दंड दिए जाने के उदाहरण मौजूद हैं, लेकिन वहां सजा का मकसद बच्चों को ज्यादा रचनात्मक और जिम्मेदार बनाना रहा न कि डर पैदा करना.
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गुरुकुल में दंड को लेकर मत भिन्न-भिन्न रहे हैं. प्राचीन भारत की शिक्षा भौतिक वातावरण से मुक्त कही जा सकती है. प्राचीन शिक्षा का उद्देश्य विद्या सा विमुक्तये का था. उस समय के नरेशों को भी गुरुकुल के आगे शीश नवाना पड़ता था. उस समय आत्मसंयम शिक्षा के लिए अतिआवश्यक गुण माना जाता था. प्राप्त दस्तावेज में उल्लेखित है कि शिक्षा का उद्देश्य विवेक और निर्णय शक्ति को बढ़ाना है और इसी से अनुशासन स्थापित होता है. संबंध में विभिन्न विद्वानों के मत इस प्रकार हैं.
आपस्तम्ब का विचार है कि आचार्य हठी विद्यार्थियों को अपनी उपस्थिति से दूर हटा दें या उनसे उपवास करवाएं.
मनु का विचार है कि यथासंभव अनुशासनहीन विद्यार्थियों को समझाना चाहिए. अगर अत्यंत हठी है तो पतली छड़ी या रज्जू से पीटना चाहिए.
गौतम कठोर दंड के विरोधी थे. कठोर दंड देने वाले आचार्य को वे अपराधी मानते थे. परंतु उचित रास्ते पर लाने के लिए साधारण दंड का औचित्य वे मानते थे.
आचार्य विष्णु भी कभी-कभी अल्प शारीरिक दंड अपरिहार्य बताते हैं.
शिक्षा व्यवस्था में बच्चों को दिया जाने वाला दंड अब भी अहम मुद्दा बना हुआ है. इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि दंड हमारे सामने चुनौती के रूप में आ खड़ा हुआ है. यही वजह है कि इसे बच्चों के साथ की जाने वाली हिंसा के रूप में देखा जाने लगा है.
यूनिसेफ के अनुसार, किसी भी तरीके की हिंसा, दुर्व्यवहार या शारीरिक सजा बच्चों के अधिकारों का हनन है और इस तरह के व्यवहार से मुक्ति बच्चों का अधिकार है. बाल अधिकार समझौते पर भारत ने हस्ताक्षर किए हैं और उसमें भी बच्चों पर किसी भी तरह की हिंसा को बच्चों के स्वाभिमान पर ठेस पहुंचाने वाला माना गया है. अब इस बहस ने जन्म ले लिया है कि क्या किसी भी रूप में इन सजाओं को सैद्धान्तिक मान्यता मिलनी चाहिए.
शिक्षाविद् अनिल सद्गोपाल का मानना है कि बच्चों को सजा दिए जाने का कारण है हमारी विकृत पाठ्यचर्या! जो हम बच्चों को पढ़ा रहे हैं या पढ़ाते रहे हैं वह बच्चों की उम्र, मनोवैज्ञानिक स्थिति और क्षमताओं से ज्यादा और विकृत है. बच्चे उस ज्ञान या सूचना में रुचि रखते हैं जो उनके परिवेश, आस-पास के समाज-माहौल और जिंदगी को सीधे छूती है. पर अब हम अपने स्कूलों में ऐसा कुछ पढ़ाते ही नहीं हैं, जिसे बच्चे अपने जीवन से जोड़कर देख-समझ पाएं. हमारे नीति बनाने वालों के पास यह स्पष्टता ही नहीं है कि वह बच्चों को क्या और क्यों बनाना चाहते हैं, वे बच्चों को यह स्वतंत्रता ही नहीं देते हैं कि बच्चे खुद सपने देख सकें. हमारी शिक्षा पद्धति प्रतिस्पर्धा और हिंसा सिखाती है, वह प्रेरित करती है कि बस किसी भी तरह से दूसरे बच्चे से आगे निकलना है. हम अपनी उम्मीदों का बोझ उनके कंधों पर डालते हैं और चाहते हैं कि उसे वे पूरा करें.
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हम बच्चों पर एक पाठ्यक्रम भी लादते हैं और उससे अपेक्षा कर रहे हैं कि वह उसे रटे और परीक्षा में उगल दें. हम उसे ज्ञान का परीक्षण ही नहीं करने देना चाहते, जो की किसी भी बच्चे का बुनियादी व्यवहार होता है.
जब वह सवाल पूछता है तो हम गुस्सा होते हैं. बच्चे बहुत ही स्वाभाविक सवाल पूछते हैं. शिक्षाशास्त्री प्रोफेसर यशपाल कहते थे कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली बच्चों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति पर ताला लगाती है. यह बात सही भी लगती है क्योंकि स्वाभाविक सवाल बुनियादी होते हैं, उनके जवाब देने में मेहनत करनी पड़ती है. ऐसे में स्कूल हो या घर बच्चों के सवालों को नकार दिया जाता है. गोल-मोल जवाब दिया जाता है. समझाने की कोशिश की जाती है हमारी अक्षमता यदि फिर भी सवाल का जवाब प्रस्तुत नहीं करती तो कुंठित होकर सजा का उपयोग करता है. यही सीधा और सरल रास्ता हमें दिखाई देता है. जो रटने को तैयार न हो उसे सजा दो.
शिक्षा के अधिकार कानून को लागू हुए आठ साल हो गए हैं. इसमें दंड से निपटने का प्रावधान भर कर देने से यह संकट कम नहीं हुआ है. असल शुरुआत जहां से होनी थी, वह तो हमने की ही नहीं. ज्ञान का चरित्र, पक्षधरता और परीक्षण के मापदंड वैसा का वैसा है. हमारी सोच भी वैसी ही है. हमने केवल इतना भर जान लिया है कि ऐसा कोई काम नहीं करें जिससे कानून का उल्लंघन हो सके, लेकिन उसे लागू किए जाने का असली मसकद तो वैसा का वैसा ही है. अपराधी शिक्षक भर नहीं है, अपराधी तो यह समाज और राज्य है, जिसने शिक्षा व्यवस्था को ज्यादा से ज्यादा विकृत बनाने की हरसंभव कोशिशें की हैं, जैसे जैसे यह दबाव बढ़ेगा, वैसे-वैसे बच्चों पर हिंसा बढ़ेगी.शिक्षकों को कोई भी प्रशिक्षण देकर, कानून बनाकर, बच्चों को सजा से नहीं बचा पाएगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)