गांधी@150: बड़े कमाल की थी पत्रकार गांधी की शख्सियत
दुनिया में छिड़ी अभिव्यक्ति की आजादी की बहस के बीच यह जानना काम का होगा कि पत्रकार के रूप में महात्मा गांधी इस चुनौती का सामना कैसे कर रहे थे.
“भाषण स्वातंत्र्य, सभा सम्मलेन की स्वतंत्रता और मुद्रण स्वातंत्र्य इन तीनों अधिकारों की पुनः स्थापना लगभग पूर्ण स्वराज्य के सामान है.”
महात्मा गाँधी, सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय, खंड 22, पृष्ठ 188-90
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की सी.एन.एन. के पत्रकार जिन अकोस्टा के साथ हुई तीखी नोकझोंक और बाद में व्हाइट हाउस में उनके प्रवेश पर पाबंदी ने पत्रकारों और पत्रकारिता के सामने नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं. अमेरिका को प्रेस की स्वतंत्रता में अग्रणी देश माना जाता रहा है. वहीं दूसरी ओर भारत में पत्रकारिता की वर्तमान स्थितियां किसी से छुपी नहीं है. यहां इसे लेकर प्रतिदिन कुछ नया प्रकाश में आता है. पत्रकारिता का वास्तविक स्वरूप क्या हो और उससे की जा रही अपेक्षाएं, मतभिन्नता लिए हुए हो सकती है. परंतु इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता इसकी स्वतंत्रता बाधित नहीं होनी चाहिए. गांधी जी, भाषण, सभा व मुद्रण स्वतंत्रता की श्रेणी को पूर्ण स्वराज के समान मानते हैं. और आज जब यह दिखाई दे रहा है कि एक स्टार या एक सीमा के पश्चात उपरोक्त तीनों स्वतंत्रताएं कहीं न कहीं जकड़न में हैं, तो यह समझना आवश्यक हो जाता है कि इस जकड़न को कैसे तोड़ा जाए? बात सिर्फ सरकारी तंत्र की नहीं बल्कि पूंजी की अधिकता और विज्ञापन के दबाव पर भी होना आवश्यक है. पाठकों/दर्शकों की बदलती रुचियां और प्राथमिकताएँ भी सवाल के घेरे में हैं.
भारत में समाज सुधारक व विचारक अपना-अपना अखबार निकालते रहे हैं. राजा राममोहन राय से लगाकर केशव चंद्र सेन, गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, फिरोजशाह मेहता, दादा भाई नैरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, सी. वाई. चिंतामणि अपने अपने अखबार निकालते रहे थे. जब गांधी जी भारत वापस लौटे तब श्रीमती एनी बेसेंट “न्यू इंडिया”, मौलाना मोहम्मद अली “उर्दू” साप्ताहिक, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद “अल-हिलाल”, लोकमान्य तिलक “केसरी” व सुरेंद्र नाथ बनर्जी “बंगवासी” नामक अखबार निकाल रहे थे. इसके अलावा भी तमाम अन्य व्यावसायिक एवं अव्यावसायिक अखबार व पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा था. प्रश्न उठता है कि जब इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति समाचार पत्र निकाल ही रहे थे, तो गांधीजी को अपना अखबार निकालने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? संभवतः इसकी एक वजह यह थी कि गांधी भारत की आजादी के समानांतर सारी मानवता की आजादी का सपना देख रहे थे और यह उनके हिसाब से बिना अखबार के संभव ही नहीं था. दक्षिण अफ्रीका में “सत्याग्रह” नामक पुस्तक में वे लिखते हैं, “मेरा ख्याल है कि ऐसी कोई भी लड़ाई जिसका आधार आत्मबल हो, अखबार की सहायता के बिना नहीं चलाई जा सकती.” वे दक्षिण अफ्रीका में अपने अखबार “इंडियन ओपिनियन” के कार्य व सफलता का उल्लेख करते हैं कि कैसे अखबार की वजह से प्रवासियों की समस्याएं विश्वव्यापी हुई और संघर्ष को गति मिली. वह समझाते हैं, “इस तरह मेरा भरोसा हो गया कि अहिंसक उपायों से सत्य की विजय के लिए अखबार एक बहुत ही महत्वपूर्ण और अनिवार्य साधन है.” इसी बात को उर्दू के शायर अकबर इलाहबादी कुछ इस तरह पेश करते हैं-
“खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो,
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो.”
जाहिर सी बात है गांधी बहुत अच्छे से जानते थे शस्त्र बल से लैस शासन प्रशासन का मुकाबला “निर्भय सत्य” की अभिव्यक्ति से ही किया जा सकता है. उनका अगाध विश्वास था कि “पत्रकारिता का एकमात्र उद्देश्य सेवा ही होना चाहिए.” उनके इस मत पर तमाम तरह की मतभिन्नताएं भी सामने आती जा रहीं हैं और भविष्य में भी आती रहेंगी, परंतु वे इसी ध्येय वाक्य को अपना आदर्श मानते रहे. वैसे तो गांधीजी ने सन 1890 के आसपास से स्वयं को अखबार से जोड़ लिया था. अपने ब्रिटेन प्रवास के दौरान वे “वेजेटेरियन” नामक समाचार पत्र में लिखते रहे. तब उनकी उम्र 22 वर्ष के आसपास ही थी. सन 1894 में वे दक्षिण अफ्रीका पहुंचे और “कुली बारिस्टर” कहलाए. गांधीजी अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में लिखते हैं, “अनवेलकम विजिटर (अवांछित अतिथि)”, शीर्षक से अखबार में मेरी चर्चा हुई होती तीन-चार दिन के अंदर ही मैं अनायास ही दक्षिण अफ्रीका में प्रसिद्ध हो गया.” गांधी उस समय मात्र 24 वर्ष के थे और समाचार पत्रों ने उन्हें पूरे दक्षिण अफ्रीका में परिचित व्यक्ति बना दिया था. गांधीजी शायद तभी अखबार की ताकत को पहचान गए होंगे और उसके प्रयोग को लेकर सचेत हो गए होंगे. हम गांधी जी के जीवन पर गंभीरता से नजर डालें तो हम जान जाते हैं कि जल्दबाजी उनके स्वभाव में थी ही नहीं. शायद यह उनकी सबसे बड़ी रणनीति भी बन गई थी. दक्षिण अफ्रीका पहुंचने के 10 वर्ष पश्चात 4 जून (कुछ के अनुसार 6 जून) को उन्होंने “इंडियन ओपिनियन” अपने राजनीतिक साथी मदनजीत के सहयोग से किया. मदनजीत ने सन 1898 में “दि इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस” खोली थी. इसके प्रवेशांक में “अपनी बात” शीर्षक से गांधीजी का आलेख गुजराती, हिंदी, अंग्रेजी एवं तमिल में निकाला. गांधीजी इस समाचार पत्र के चार प्रमुख उद्देश्य बताते हैं. यह हैं- (1) हिंदुस्तानियों के दुखों को शासनकर्ताओं एवं गोरों के सामने तथा इंग्लैंड, दक्षिण अफ्रीका तथा भारत में जाहिर करना. (2) हिंदुस्तानियों के दोषों को उन्हें बताना तथा उन्हें दूर करने के लिए प्रेरित करना. (3) हिंदुस्तानियों में हिंदू-मुसलमान के बीच के भेद को तोड़ना तथा गुजराती, तमिल, बंगाली की क्षेत्रीय खाइयों को पाटकर एकता पैदा करना. और (4) इन विचारों को प्रजा में दृढ़ करना तथा प्रजा को शिक्षित करना. इंडियन ओपिनियन के संपादन और प्रकाशन के अनुभव के आधार पर वे पत्रकारिता के व स्वयं पत्रकारिता करने के उद्देश्य से करीब 18 प्रतिमान करते हैं. उनकी आत्मकथा व “दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास” में छपी हैं यह एक तरह से उनकी स्वयं लागू की गई आचार संहिता भी है. उनकी इस आचार संहिता का एक बिंदु है “समाचार पत्र एक जबरदस्त शक्ति है, परंतु कलम की निरंकुशता सृष्टि करती है. बाहर की शक्तियां इसे नियंत्रित करें, इससे बेहतर है कि पत्रकार स्वयं ही आचार संहिता बनाएं.” गांधी जी के भारत लौट आने के बाद सन 1961 तक अर्थात उनकी वापसी के बाद 47 वर्षों तक इंडियन ओपिनियन प्रकाशित होता रहा. वस्तुतः इसका लगातार 58 वर्षों तक प्रकाशन होता रहा.
भारत वापसी के पश्चात भी गांधीजी अखबार की दुनिया से जुड़े रहे. विशेष परिस्थितियों के चलते उन्होंने कुछ दिनों के लिए ही “बॉम्बे क्रॉनिकल” और “सत्याग्रही” नामक अखबारों का संपादन किया. परंतु इसी बीच उन्होंने “नवजीवन” व “यंग-इंडिया” के संपादन का काम संभाल लिया. गौरतलब है कि गांधीजी की मातृभाषा गुजराती थी, परंतु उनकी शिक्षा दीक्षा अधिकांशतः अंग्रेजी में हुई थी. ब्रिटेन जाने के बाद तो गुजराती से उनका संपर्क और भी कम हो गया था. बहरहाल दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने स्व-अभ्यास के माध्यम से गुजराती में दक्षता हासिल की. इसके बाद वे अपने अधिकांश पत्र-लेख आदि भी गुजराती में ही लिखने लगे थे. उन्हें गुजराती भाषा में अनुवाद में भी महारत हासिल हो गई थी. गांधी जी ने पहले यंग इंडिया के संपादक का दायित्व स्वीकार किया था. तब मित्रों एवं स्वयं उनके मन में प्रश्न उठा कि, क्या यह उनका कर्तव्य नहीं है कि एक गुजराती अखबार का संपादन भी करें. अतः उन्होंने नवजीवन के संपादन का भार भी उठा लिया, लेकिन गांधी जी ने इसे सप्ताहिक कर दिया. गांधीजी शुरुआत से ही भारतीय भाषाओं के महत्व ही नहीं उनकी पहुंच को भी समझते थे. नवजीवन की लोकप्रियता का अंदाजा (गुजरात में) 24 सितंबर 1919 के अंक में उनकी टिप्पणी से हो जाता है, “गुजरात से बाहर की जनता” के नाम शीर्षक से उन्होंने लिखा, “गुजराती भाषी जनता ‘नवजीवन’ में आशा से अधिक रुचि ले रही है जितनी मांग है उतनी पूरी कर पाना संभव नहीं है. जहां तक मैं समझ पाया हूँ, उनकी मांग बीस हजार प्रतियों से भी पूरी नहीं हो पाएगी. परंतु हम केवल बारह हजार ही छाप पाते हैं.” इसकी एक वजह यह भी थी कि उस समय प्रचलित प्रेस अधिनियम की वजह से, जो बड़ी प्रेस थीं, वे डर कर छाप नहीं रहीं थीं. इसी बीच इसके हिंदी संस्करण की बात भी सामने आई. उद्योगपति जमनालाल बजाज के आग्रह पर उन्होंने “हिंदी नवजीवन” निकाला तो सही परंतु उसमें गुजराती नवजीवन एवं यंग-इंडिया की अनुदित सामग्री ही होती थी. गांधी जी को अफसोस था कि वे इसके संपादक होने के बावजूद कुछ लिख नहीं पा रहे हैं. वैसे यह पत्र लंबे समय तक घाटे में चला.
दक्षिण अफ्रीका में पत्रकारिता के उनके अनुभव हमेशा ही काम आए. गौरतलब है बंबई (अब मुंबई) से अंग्रेजी के दो समाचार पत्र “बॉम्बे-क्रॉनिकल” और “यंग-इंडिया” निकलते थे. हार्मिमैन बॉम्बे-क्रॉनिकल के संपादक थे. सरकार विरोधी पत्रकारिता के लिए 24 अप्रैल 1919 को उन्हें निष्कासित कर दिया. व्यवस्थापकों ने बॉम्बे-क्रॉनिकल को बंद कर दिया. यंग-इंडिया तब साप्ताहिक निकल रहा था. व्यवस्थापकों ने इसके संपादन का भार महात्मा गांधी को सौंपा और इसे अर्ध-साप्ताहिक बना दिया. भारतीय पत्रकारिता की यह विलक्षण ही घटना है. यह एक तरह से बॉम्बे-क्रॉनिकल के अभाव की पूर्ति भी थी. गांधी जी लिखते हैं, “उन्होंने अपने मित्रों के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, क्योंकि मुझे लोगों को सत्याग्रह का रहस्य समझाने का उत्साह था और पंजाब के सत्याग्रह आंदोलन के संबंध में सरकार की आलोचना कर सकता था.”
मजेदार बात यह है कि गांधी जिन दो समाचार पत्रों का संपादन एक साथ कर रहे थे उसमें एक नवजीवन अहमदाबाद से और दूसरा यंग-इंडिया बम्बई से निकलता था. इसी बीच बॉम्बे-क्रॉनिकल पुनः प्रारंभ हो गया और नवजीवन जो साप्ताहिक कर दिया गया. गांधी जी को भी इस तरह से संपादन में काफी समस्याएं आती थीं. अतएव यंग-इंडिया भी अहमदाबाद ले आया गया. यंग-इंडिया के बारे में गांधी जी ने लिखा था, “यद्यपि यहां तक कि जहां तक मेरी दृष्टि पहुंचती है, कोई नई रीति या नीति “यंग-इंडिया” के पृष्ठों में नहीं मिलेगी, फिर भी उसके पृष्ठों में बासी सामग्री नहीं रहेगी. यंग-इंडिया में बासीपन तभी आ सकता है, जब सत्य बासी हो जाए.” यही उनका स्वयं पर विश्वास भी था. वैसे यंग-इंडिया के प्रकाशन के पीछे उनका उद्देश्य सत्ताधारियों, अंग्रेजी सहयोगीयों, अंग्रेजी समाचारपत्रों, ब्रिटेन के पदाधिकारियों आदि को उनकी मंतव्य से अवगत कराना था.
गांधी जी ने 11 फरवरी 1933 को पुणे से “हरिजन” का प्रकाशन प्रारंभ किया. इस पत्र की विशेषता यह है कि “हरिजन अंग्रेजी” का प्रकाशन गांधी जी ने “यरवदा” जेल में रहते हुए प्रारंभ किया था. भारत में यह एकमात्र समाचार पत्र है जिसका प्रकाशन किसी कैदी ने जेल से किया. प्रकाशन के पश्चात उन्होंने नारणदास गांधी को लिखा, “हरिजन सेवा के अलावा अन्य किसी विषय पर सोचने की मेरी क्षमता तेजी से घटती जा रही है. अन्य बातों के विषय में सोचना, बोलना अथवा कुछ करना मुझे तकलीफ देता है.” उन्होंने इस पत्र को पूरी तरह से हरिजनों को समर्पित कर दिया. 19 अक्टूबर 1934 को हरिजन में लिखते हैं, “हरिजन ऐसा साप्ताहिक है, जो पूरी तरह से हरिजनों की सेवा के उद्देश्य को लेकर चलता है और उसमें किसी भी चीज के लिए गुंजाइश नहीं है, जिसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हरिजनों से कोई संबंध नहीं है.” यह एक अद्वितीय उदाहरण है. हरिजन के अंकों को पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि उनकी संवेदना ही नहीं विचार भी हरिजनों के प्रति कितनी स्पष्ट थे. हरिजन अंग्रेजी के पहले अंक की दस हजार प्रतियां छपी थीं और पहले पृष्ठ पर रविन्द्रनाथ टैगोर की कविता “मेहतर” छपी थी. कविता है, “शिव ने कभी विषपान कर / बचाया था विश्व को विषप्लावन से / और तुम भी तो, बंधु, प्रतिदिन उसी देवोपन धैर्य से / विश्व को मलीनता से बचाते हो / अरे बंधु! अरे वीर! दे दो हमें भी साहस तुम अपना सा / कि मनुष्य से लांछना सब सहते हुए भी हम / मनुष्य की सेवा करते रहें सदा.”
गांधी जी ने अपने जीवन में 45 वर्ष पत्रकारिता को दिए. यह भी कहा जा सकता है कि वह मूलतः पत्रकार थे, इसीलिए वस्तुस्थिति के विश्लेषण की इतनी असाधारण प्रतिभा उनके पास थी. उनकी पत्रकारिता की विवेचना बेहद विस्तृत फलक की अपेक्षा रखती है और इस पर विचार करना नितांत अनिवार्य की है. “इंडियन ओपिनियन” से उनका जो सफर 4 जून 1903 से दक्षिण अफ्रीका में प्रारंभ हुआ, वह 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में संपन्न हुआ था. आज आवश्यकता है नए सिरे से उस पत्रकारिता पर मनन करने की. टाइम्स इंडिया के संपादक एच. सी. पैरी लिखते हैं, गांधी के मुस्कुराते हुए पुत्र देवदास के परिचय में कहा, “यह मेरा पुत्र है और पत्रकार होना चाहता है.’ मैंने उसके पिता से पूछे बिना न रह सका, ‘और आप क्या चाहते हैं?’ वरिष्ठ गांधी का उत्तर था, ‘मैं चाहता हूं मेरा देश स्वतंत्र हो जाए.”
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)