डियर जिंदगी: `सॉरी` के साथ हम माफी से दूर होते हुए...
`सॉरी` को अपनाते हुए असल में हम माफी से दूर होते गए. `सॉरी` के भारतीय समाज में आने से पहले केवल माफी से काम नहीं चलता था. आपको बकायदा एक पूरा वाक्य, `मैं इसके लिए माफी चाहता हूं/शर्मिंदा हूं` कहना होता था...
'सॉरी' बेहद आसान और लोकप्रिय शब्द है. लेकिन इस सुपरहिट शब्द ने जिस तेजी से अपनी गरिमा खोई है, उसकी भारी कीमत हम सब चुकाने वाले हैं. 'सॉरी' को अपनाते हुए असल में हम माफी से दूर होते गए. 'सॉरी' के भारतीय समाज में आने से पहले केवल माफी से काम नहीं चलता था. आपको बकायदा एक पूरा वाक्य, 'मैं इसके लिए माफी चाहता हूं/शर्मिंदा हूं' कहना होता था. कुल मिलाकर आपको माफी की एक ऐसी प्रक्रिया से गुजरना होता था, जिसके प्रभाव में रहने के दौरान आपको एक किस्म के अनुभव से गुजरना होता था.
एक ऐसा अनुभव जिसमें हम महसूस करते थे कि गलती हो गई. अब जमाना बदल गया. हम हर छोटी-छोटी चीज़ में बच्चों को सॉरी और थैंक्यू रटाते हुए भूल गए कि बच्चे यह सब कहते हुए भी इनके मायने से दूर हो गए हैं.
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इसका उदाहरण कुछ दिन पहले घर के पास पार्क में देखने को मिला. दो बच्चों में झगड़ा हुआ. दोनों की उम्र दस बरस के भीतर थी. दोनों के माता-पिता वहीं थे. उन्होंने समझदारी दिखाते हुए तुरंत अपने बच्चों से सॉरी कहने को कहा. लेकिन दोनों ने ऐसा करने से इंकार कर दिया. बहुत कहने के बाद भी बच्चे ऐसा करने को तैयार नहीं हुए. क्योंकि दोनों का मानना था कि गलती उनकी नहीं है, तो सॉरी किस बात की.
बच्चे ऐसे क्यों हो रहे हैं? उनके व्यवहार में इन परिवर्तनों के लिए कौन जिम्मेदार है? यह सवाल माता-पिता को अक्सर परेशान किए रहते हैं. आइए, हम कुछ चीजों पर नजर डालते हैं. कुछ प्रमुख कारणों पर बात करते हैं...
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1. इन दिनों ज्यादातर बच्चे एकल/न्यूक्लियर फैमिली का हिस्सा हैं. वह अक्सर माता-पिता को झगड़ते देखते हैं. लेकिन माफी मांगते नहीं. अभिभावक अब पुराने नियम जैसे बच्चों के सामने नहीं लड़ना, उनके सामने समस्या की बात नहीं करना, को नहीं मानते. बच्चा इन आदतों को 'कॉपी' करके 'पेस्ट' कर देता है.
2. टीवी पर सचिन तेंदुलकर की सौम्यता के दिन अब लद गए हैं. अब तो टीवी पर हमारी क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली जो लाखों बच्चों, युवाओं के रोल मॉडल हैं, सरेआम बिना वजह की चीजों पर लड़ते नजर आते हैं. लड़ते ही नहीं विपक्षी का मुंह नोचते और हर बात पर उससे भिड़ते नजर आते हैं. इसका बच्चों के मनोविज्ञान पर सीधा असर पड़ा है.
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3. हमारी फिल्मों और टेलीविजन की भाषा, व्यवहार पहले के मुकाबले कहीं अधिक आक्रामक हो गया है. खासकार फिल्मों का. हर बात पर हिंसा. बात-बात पर हिंसा. पहले ऐसी फिल्मों तक बच्चों की पहुंच नहीं थी. लेकिन अब तो इंटरनेट पर बच्चों को वह सारी चीजें मिल रहीं हैं, जो पहले सख्ती से बैन होती थीं.
4. स्कूल, जहां नैतिक शिक्षा सबसे जरूरी होती थी. अब स्कूल के बाहर फेंक दी गई है. हम बच्चों को 'मैनर्स' तो सिखा रहे हैं लेकिन मूल्यों पर हमारा ध्यान नहीं है. हम उन्हें साधन, सुविधा तो दे रहे हैं, लेकिन संस्कार देने के मामले में हम हर दिन पिछड़ते दिख रहे हैं.
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अभी कुछ दिन पहले चंडीगढ़ से लौटते हुए हमारी खड़ी कार को पीछे चल रही बस ने लगभग अपनी चपेट में ले लिया. उसके बाद वहां मौजूद यात्रियों की मदद से कार को निकाला गया. लेकिन इन सबके बीच ड्राइवर माफी नहीं मांग सका. कई बार कहने के बाद भी उसे अहसास ही नहीं हुआ कि माफी मांगी जाए. ऐसा इसलिए क्योंकि वहां उसके पक्ष में बोलने के लिए बड़ी संख्या में लोग थे.
शायद, हर दिन के व्यवहार में हम इतने क्रूर होते जा रहे हैं कि जब तक कुछ घट न जाए, हमें अपनी गलती का एहसास नहीं होता. एक घटना के बाद हम दूसरे घटना में ही नहीं पहुंचते बल्कि पहली से मुक्त हो जाते हैं. इसमें कोई खामी नहीं, बशर्ते हम अपने साथ उसके सबक को न भूलें.
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माफी मांगने में शर्म महसूस करने वाला समाज अंतत: हमारे लिए एक ऐसी दुनिया बना रहा है, जहां आत्मीयता, स्नेह और प्रेम कम होते जाएंगे. क्योंकि माफी न मांगने वाला, दूसरे को माफ करने की आदत से भी दूर भागता जा रहा है.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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