इन दिनों स्‍कूलों से आने वाली खबरें सुखद सपने के टूटकर बिखरने जैसी हैं. जो जगह अब तक सबसे अधिक सुरक्षित मानी जाती थी, अचानक ही सबसे असुरिक्षत जगहों में शामिल हो गई है. देशभर के स्‍कूलों से डरावनी खबरे आ रही हैं. कहीं बच्‍चे एक-दूसरे के प्रति हिंसा की चरम सीमा पर पाए जा रहे हैं तो कहीं शिक्षक बच्‍चों के प्रति हिंसा की सभी सीमाएं पार कर रहे हैं.


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एक ओर हम समाज के निरंतर हिंसक होने से दुखी हैं, तो दूसरी ओर हिंसा की पहली शुरुआत खुद हमारे घर से हो रही है. उसके बाद बच्‍चों के साथ हिंसा की दूसरी मुठभेड़ स्‍कूल में हो रही है. एक ओर हम चाहते हैं कि समाज और देश में स्‍नेह और प्रेम रहे तो दूसरी ओर हम समय-समय पर खुद ऐसे काम कर रहे हैं, जिनसे खुद हमारा अहिंसक होने का दावा झूठा पड़ता जा रहा है.


मप्र से प्रकाशित एक प्रमुख अखबार के अनुसार वहां के दस जिलों में 2500 बच्‍चों के बीच एक सर्वे में 1875 बच्‍चों ने कहा कि पढ़ाई के लिए स्‍कूल और घरों में उनकी पिटाई की जाती है. यह केवल एक झलक है. क्‍योंकि आमतौर पर बच्‍चों के बीच जो सर्वे किए जाते हैं, उनमें घर पर और स्‍कूल पर होने वाली हिंसा का व्‍यापक अध्‍ययन नहीं होता. इसलिए जिस चीज का अध्‍ययन ही न हो रहा हो, उसके न होने के बारे में स्‍पष्‍ट रूप से कैसे कहा जा सकता है. वैसे भी हमारे देश में शोध और अनुसंधान की बात केवल दुर्घटना के बाद की जाती है. उसके पहले हम सारी चिंताओं को खारिज ही करते रहते हैं.


बच्‍चों के प्रति हिंसा भी ऐसी ही डरावनी बात है. इसी सर्वे में 12 प्रतिशत बच्‍चों ने यौन हिंसा की बात भी स्‍वीकार की. इसमें एक बेहद डरावनी बात यह भी है कि इनमें से 6 प्रतिशत ने यह माना कि वह इसके बारे में अब तक किसी से बात नहीं कर पाए हैं. पिटाई से बच्‍चों के मन पर जो नकारात्‍मक असर पड़ता है, उसका प्रभाव जीवन पर हमारे ऊपर रहता है. मेरे मन में हमेशा उन शिक्षकों के प्रति कहीं अधिक आदर, सम्‍मान रहा है, जिन्‍होंने अपनी बात हमें अहिंसक तरीके से समझाई. वह शिक्षक जो हर दूसरी बात पर हिंसा पर उतारू हो जाते हैं, कभी भी बच्‍चों का सम्‍मान हासिल नहीं कर सकते.


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भारत में आमतौर पर शिक्षा को एक संस्‍कार की तरह देखा जाता रहा है. ऐसे में यह सवाल उठना ही चाहिए कि किसी संस्‍कार में हिंसा कैसे बर्दाश्‍त है! हमारी पूरी सामाजिक व्‍यवस्‍था में प्रेम और स्‍नेह निरंतर कम होता जा रहा है. दुर्भाग्‍य से इसकी सबसे ज्‍यादा कमी हमारे घर और स्‍कूल में हो रही है.


बच्‍चे के हिस्‍से में आने वाला प्रेम 'घर और स्‍कूल' से ही कम होता जाएगा तो समाज से इसकी कितनी 'क्षतिपूर्ति' हो पाएगी. एकल परिवार में जो बच्‍चे पहले ही प्रेम की कमी, नीरसता और ऊब की ओर बढ़ रहे है, वह कैसे प्रेम की कमी को सहन कर पाएंगे.


बच्‍चे के भविष्‍य की चिंता सही है. उससे थोड़ी सख्‍ती से पेश आने में भी कहीं कोई समस्‍या नहीं है. अगर कहीं समस्‍या है तो वह बस इतनी कि बच्‍चों को अपनी परवरिश और शिक्षा के हिसाब से मत पालिए. वह दौर कुछ और था. यह दौर कुछ और है.


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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


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