'जब वह बोलना शुरू करता है, तो रुकता ही नहीं. उनके पास सुनने के लिए कुछ है ही नहीं. जैसे ही मैं अपनी बात शुरू करता हूं/करती हूं, वह उखड़ जाते/जाती हैं. पापा/मम्‍मी हमें सुनना ही नहीं चाहते. वह तो बस अपनी बात ही थोपते रहते हैं.' आजकल हर कोई यही शिकायत लिए टहल रहा है. घर, ऑफि‍स, दोस्‍त और यहां तक कि सोशल मीडिया परभी यही शिकायत सबसे बड़ी है. कोई किसी की बात सुनने को तैयार नहीं है. सुनना संवाद के लिए 'जगह' बनाना है. जबकि हमेशा सुनाने का भाव एक आक्रामक विचार है. अगर हमारे भीतर सुनने की आदत कम हो रही है, तो यकीनन गुस्‍सा, आक्रामकता बढ़ रही है. यह मनोविकार है, इस पर नजर रखें.


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भीतर से हम इतने 'भरे बैठे हैं' कि जैसे ही अवसर मिलता है, शुरू हो जाते हैं. इससे धीरे-धीरे समाज से सुनना कम होता जा रहा है. और अब यह जीवन से गायब होने की कगार पर आ गया है. दूसरी ओर सुनाना आम हो गया है. यह लोकप्रिय होता जा रहा है. हमें यह ध्‍यान रखना होगा कि शोर हमेशा आसानी से लोगों का ध्‍यान अपनी ओर खींच लेता है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हमेशा शोर करने वाला ही सही है. अनेक अवसर ऐसे आते हैं, जब हम पाते हैं कि शांति से अपनी बात कहने वाला पक्ष सही था. उसने अपनी कहने के लिए आक्रामकता का सहारा नहीं लिया इसका अर्थ यह नहीं कि वह पीड़ित नहीं है. लेकिन कई बार हम ऐसे निष्‍कर्ष निकाल लेते हैं. यह सब काफी हद तक हमारी फि‍ल्‍मों से आया है, जहां अन्‍याय से पीड़ित नायक को चीखकर ही अपनी बात कहनी होती है. तभी वह दर्शक तक पहुंच पाती है. लेकिन असल जिंदगी में हर कोई अकेला दर्शक नहीं है, वह एक साथ पीड़ित, शोषक और दुखी/सुखी अनेक भूमिकाओं में है.


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जिंदगी में हम एक साथ अनेक किरदारों को जीते हैं. फिल्‍म के हीरो की तरह हमारा उद्देश्‍य केवल 'बदला' नहीं होता. जिंदगी में हमें एक साथ पिता, पुत्र, पति, भाई और सहयोगी, कामकाजी भूमिकाओं का निर्वाह करना होता है. इसलिए सुनने का गुण एकदम अनिवार्य जैसा है. जिंदगी की नाव इसके बिना छोटे से तूफान में भी डगमगा सकती है.


इसलिए सुनने का भाव प्रबल करें. यह हमारी सबसे जरूरी आदत है. जिनमें यह नहीं है, वह जितनी शीघ्रता से इसे विकसित करेंगे. उनके लिए यह उतना उत्‍तम होगा. इस सुनने-सुनाने के बीच एक बात और ध्‍यान देने की है कि हम अपनी बात को रखते कैसे हैं. रिश्‍तों में कई बार झूठ इसलिए शामिल हो जाता है कि हम सच से बेहद डरने लगते हैं. तो उससे बचने के लिए झूठ की एक लंबी श्रृंखला शुरू कर देते है. इसके पीछे की सोच यही होती है कि ऐसे सच का क्‍या करना जो रिश्‍तों में दरार डाल दे.


लेकिन ऐसा करते हुए हम भूल जाते हैं कि रिश्‍ते वन-वे नहीं होते. वह हमेशा दो तरफा होते हैं. सो अगर दोनोंतरफ से झूठ की बमबारी आरंभ हो गई तो सुनने-सुनाने को कुछ रह नहीं जाता. जीवन अविश्‍वास की दरार मेंहमेशा के लिए उलझ जाता है. इसलिए इस यकीन में विश्‍वास रखें कि सच बोलने से कुछ बिगड़ता नहीं. हां, उस सच को कैसे, कब कहा जाए, इस मामले में हम अनुभव से ही सीखते हैं. हम सच के साथ भी संबंधों में भरोसा, स्‍नेह कायम रख सकते हैं. उसके लिए हमेशा झूठ, झूठी तारीफ की जरूरत नहीं होती.


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इसलिए जितना जल्‍दी हो सके, इस विलुप्‍त होते 'सुनने' को अपनी आदत बनाएं. हर दिन शाम, रात को एकबार यह जरूर ध्‍यान करें कि आज आपने कितनी देर सुना. दूसरों की बात सुनने के लिए अपनी एकाग्रता को कितनी देर काम पर लगाया. दूसरों को सुनना उनके प्रति आदर, विश्‍वास प्रकट करने का भी एक तरीका है.


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हम जितने लोगों के प्रति आदर रखेंगे, हमारे मन, विचार की खिड़कियों से दूसरों का आदर भी उतनी ही संख्‍या में हमारे लिए लौटकर आएगा. जिसे यकीन न हो, वह इसे आजमाकर कर देखे और जिसे इस पर भरोसा है, उसे अभी इसी क्षण से जीवन में उतार लेना चाहिए.


(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


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