फेसबुक, सोशल मीडिया और सेल्‍फी से थोड़ा-सा वक्‍त मिले तो हमें 'सेल्‍फ' पर ध्‍यान केंद्रित करना चाहिए.जो हाशिए पर चला गया है. 'सोशल' की चिंता में हम इतने डूबे कि लगभग असमाजिक हो गए. हमारा ध्‍यान अपने ऊपर न होकर अपनी ऊपरी चीजों पर है. इसने हर चीज को दिखावे में बदल दिया है. हम हंसते भी हैं, तो पहले दुनिया को दिखा देना चाहते हैं. खुशी तो बाद की बात है.
 
हम यात्रा पर होते हैं, तो कुछ भी देखने की जगह पहले तस्‍वीरें लेने की होड़ में खुद को झोंक देते हैं. मनुष्‍य के स्‍वभाव का एक स्‍थाई भाव 'शिकार' भी है. सदियों उसे शिकार पर निर्भर रहना पड़ा. लेकिन संभवत: यह पहला अवसर है, जब मनुष्‍य तकनीक के हाथ खुद 'शिकार' होने की कगार पर खड़ा हुआ है.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

गैजेट, तकनीक ने हमारे ऊपर इतना गहरा शिकंजा कस लिया है कि इंटरनेट के बिना भारत में अब लोगों का जीवन खतरे में पड़ता दिख रहा है. मार्केटिंग रिसर्च फर्म इप्‍सोस ने अपने एक ग्‍लोबल सर्वे में कहा है कि 25 से 35 साल तक के युवा हर दिन औसतन 185 मिनट इंटरनेट पर बिता रहे हैं. दिन का इतना बड़ा हिस्‍सा.


इससे भी खतरनाक यह है कि इंटरनेट पर मौजूद भारतीयों में से 82 प्रतिशत का मानना है कि वे इंटरनेट के बिना एक दिन भी नहीं रह सकते. अब वह दिन बहुत दूर नहीं है, जब देश में इंटरनेट का कनेक्‍शन खराब होना हिंसा का कारण बन जाएगा. लोग ऐसे बेतुके कारणों से तनाव में रहने लगेंगे.


यह भी पढ़ें- डियर जिंदगी : हम भी ऐसे ही फैसले लेते हैं!


इंटरनेट ने हमारा सबसे बड़ा नुकसान परिवार, दोस्‍तों का 'निजी' समय चुराकर किया है. इसने जीवन की 'कस्‍तूरी' छीन ली है. हमारी हालत भी कस्‍तूरी की तलाश में बावरे हिरण की तरह हो रही है.


इंटरनेट इतना शक्तिशाली हो गया है कि परिवार में विवाद पैदा कर रहा है. सेल्‍फी से बचने, खुद को दिखावे से दूर रखने की चाहत अपराध हो गई है. हमने नाटक देखने छोड़ दिए हैं, लेकिन अपने जीवन को नाटक बनाने पर आमादा हैं.


पिछले दिनों निजता के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला केवल अधिकार की ही बात नहीं है. सुप्रीम कोर्ट यह बताने की कोशिश भी कर रहा है कि हमें अपने जीवन के प्रति खुद भी थोड़ा बहुत जागरूक होना चाहिए. कानूनी मसला कोर्ट का विषय है, लेकिन मनुष्‍य खुद भीतर से इतना खुरदरा, डरा हुआ और दिखावा पसंद हो गया है कि वह खुद अपने लिए खतरे गढ़ रहा है.


हम जीना छोड़कर तस्‍वीर के फ्रेम में आने को तड़प रहे हैं. हर लम्‍हे की तस्‍वीर जरूरी है, या लम्‍हें को जीना!


यह भी पढ़ें- डियर जिंदगी : सुने हुए जमाना बीत गया!


मोबाइल हमारे लिए बने हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि यह हमें लगभग आदेश देने की स्थिति में आ गए हैं. वास्‍तव में 'सेल्‍फी' की सनसनी से शुरू हुई खुद को सुंदर, ताकतवर और अनोखा साबित करने की होड़ जीवन से निजता समाप्‍त करने की ही चेष्‍टा है. हम इंटरनेट के गुलाम होने को बेकरार हैं. आजादी तोबहुत आगे का सवाल है. पहले हमें अपने जीवन की गुणवत्‍ता, उसकी कस्‍तूरी को बचाने में अपनी सामाजिक समरता, स्‍नेह को छोंकना होगा.


वरना हम धीरे-धीरे 'जॉम्बी' (जिसके भीतर शक्ति के अतिरिक्‍त कोई गुण, संवदेना नहीं है) बनते जाएंगे. मरते हुए लोगों की मदद करने की जगह उनके वीडियो बनाना हमारे जॉम्बी बनने की शुरुआत है. इलाहाबाद में एक युवा की बाइक ट्रक में फंस गई, घिसटती रही. लोग वीडियो बनाते रहे. कोई बचाने नहीं गया.


उस बच्‍चे को नहीं बचाया जा सका. दूर जबलपुर में उसके भाई ने यह वीडियो यू-टयूब पर देखा!


हम क्‍या होने चले थे और क्‍या हुए जा रहे हैं...


सभी लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें : डियर जिंदगी


(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


(https://twitter.com/dayashankarmi)


(अपने सवाल और सुझाव इनबॉक्‍स में साझा करें: https://www.facebook.com/dayashankar.mishra.54)