कभी बड़े ही दार्शनिक अन्दाज़ में नीरज जी ने कहा था-


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क़फन बढ़ा तो किसलिए नज़र तू डबडबा गई,
सिंगार क्यूं सहम गया, बहार क्यूँ लजा गई.
न जन्म कुछ न मृत्यु कुछ, बस इतनी सिर्फ़ बात है.
किसी की आंख खुल गई, किसी को नींद आ गई.


बुद्धि उनसे असहमत नहीं हो सकती किन्तु हृदय आज उनसे सहमत नहीं हो पा रहा है. गीत के साकार अवतार के अवसान पर आँखें अश्रुओं को रोक नहीं पा रहीं, राष्ट्रकवि दिनकर याद आ रहे हैं -


जब गीतकार मर गया चांद रोने आया,
चाँदनी तड़प कर उठी कफ़न बन जाने को.


कविता के वाचिक मंच पर सम्राट् का विरुद जीने वाले पद्मभूषण गोपालदास जी नीरज युग की सीमाओं का अतिक्रमण करने वाले एक ऐसे सारस्वत हस्ताक्षर हैं जिनकी पंक्तियों के मर्म को यदि मनीषियों ने महाविद्यालय में समझाया है तो जिनमें अन्तर्निहित जीवन संगीत को पकड़कर रिक्शेवालों ने सर्द रातों में आग के पास बैठकर अपने समूह में गुनगुनाया है.


नीरज' स्मृतिशेष : कफन बढ़ा, तो किसलिए, नजर तू डबडबा गई


प्रभु कृपा से मुझे चार दशकों की लम्बी यात्रा में विविध मंचों पर उनकी आशीष की देवदारु-छाया में बैठने का सुअवसर मिला. उनको प्रस्तुत करते समय अक्सर मैं कहा करता था- ‘‘मैं आपके समक्ष गीत-गन्धर्व के रूप में प्रख्यात वाणी के उस पुत्र को बुला रहा हूँ जो वस्तुतः मोहब्बत के मज़हब का मौलवी है, इश्क़ की इबादतगाह का इमाम है, प्रीति के पुष्कर का प्रजापति है किन्तु इन सबसे पूर्व स्वयं में शब्द-सौष्ठव का सन्निवेश है, दर्द की दरगाह का दरवेश है.


कवि गोपालदास 'नीरज' के साथ डॉ. शिव ओम अंबर (दाएं).

अपने प्रारंभिक परिचय के दिनों में मैंने उनके साथ एक उद्धत वार्ता की थी. उनको प्रणाम करके मैंने कहा- आप हमारी पीढ़ी के लिये आदर्श हैं, आपका काव्य हमारे लिये चिन्तामणि है. किन्तु मेरी परवरिश जिस परिवेश में हुई है उसके कारण मैं आपके व्यक्तित्व की कुछ लड़खड़ाहटों को प्रश्न भरी दृष्टि से देखता हूं. मुझे क्षमा करें लेकिन मेरा समाधान करें.


नीरज जी ने मेरे सर पर हाथ रखते हुए कहा- बेटा, अच्छा किया जो तुमने अपने मन की बात मुझसे की. देखो, पक्षियों में कबूतर का व्यक्तित्व कवि का व्यक्तित्व है. उसकी ऊंची उड़ान ही उसकी पहचान है. किन्तु उड़ान के बाद हो सकता है कि वह किसी के घूरे पर बैठकर दाने खोज रहा हो, हो सकता है कि उसके पाँव कीचड़ में सने हों. नीरज के साथ भी ऐसा ही है. तुम मेरी कविता की उड़ान देखो उससे मुझे पहचानो, मेरी कविता से प्रेरणा लो, मेरे कीचड़ सने पाँव मेरे लिए छोड़ दो. मेरे शरीर के शान्त होते ही मेरी लड़खड़ाहटें भी शान्त हो जायेंगी, भुला दी जायेंगी किन्तु मेरी उड़ान तुम्हारे जैसे तमाम लोगों के दिलों में रहेगी उसी से प्यार करो.


'नीरज' की आवाज पर जब मंत्रमुग्‍ध हो गया चंबल का शेर 'दद्दा'


फिर पूछा- क्या कर रहे हो ? यह जानकर कि मैं अध्यापक हूं वह प्रसन्न हुए और बोले कि तुम्हें ज़्यादा सावधान रहना है, क्योंकि बच्चे अपने अध्यापक के हर आचरण को आदर्श मान लेते हैं. उनके पास से उठते समय मेरी चेतना शीश पर उनके आशीर्वादी स्पर्श का अनुभव कर रही थी और मेरे होंठ उनकी ही पंक्तियां गुनगुना रहे थे-


नीरज नहीं रहेगा लेकिन,
उसका गीत-विधान रहेगा.


उनकी एक ग़ज़ल अत्यधिक प्रसिद्ध हुई उसमें उन्होंने अपने व्यक्तित्व के विविध आयामों को बड़ी ही कलात्मकता के साथ अंकित करते हुए मधुवन्त बनाकर प्रस्तुत किया. उसकी कुछ पंक्तियां हैं -


इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में,
तुमको लग जायेंगी सदिया हमें भुलाने में.
न तो पीने का सलीका न पिलाने का शऊर,
ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में.


कविता के मंचों पर अनुराग का राग प्रस्तुत करते हुए, सिने गीतों में साहित्यिकता का पराग भरते हुए और साहित्य के सुष्ठु शरीर पर दर्शन का अंगराग मलते हुए उन्होंने पृथ्वी पर प्रदीप बनकर ज्योति के सूत्र लिखे, अन्तरिक्ष में मंगल ध्वनि बनकर स्वस्ति मंत्रों की चेतना भरी और अन्ततः अनन्त अस्तित्व के साथ एकात्मकता साध ली.


प्रसिद्ध गीतकार-कवि गोपालदास नीरज का निधन, दिल्ली के AIIMS में ली अंतिम सांस


कभी किसी प्रियजन के अवसान पर उन्‍होंने भाव विह्वल वाणी में कुछ पंक्तियाँ कहीं थीं, आज उन्हीं पंक्तियों को याद करते हुए स्वयं को सांत्वना और उन्हें आवाज़ दे रहा हूँ-


कंठ बदलते, मंच बदलते, राग नहीं मरता है,
फूल भले झर जाये कब उसका पराग झरता है.
आयेगा वह फिर आयेगा, उसकी करो प्रतीक्षा
मृत्यु नहीं है अन्त नये जीवन की है वो दीक्षा.