मैं अपनी बात की शुरुआत एक थोड़े से विवादास्पद और शायद कुछ-कुछ अतिश्योतिपूर्ण वक्तव्य से करना चाहूंगा. वह वक्तव्य यह है कि पिछले ढ़ाई हजार साल के इतिहास में भारत ने दो ऐसे व्यक्तित्वों को जन्म दिया है, जिनका विश्व-चेतना पर सबसे अधिक प्रभाव रहा है और जिनके प्रभाव को इस दृष्टि से क्लासिकल कहा जा सकता है कि जिनमें हर समय नवीनता धारण करते रहने की अनोखी क्षमता है. इन दोनों व्यक्तित्वों के बीच लगभग ढाई हजार सालों का फासला रहा है. इस फासले के एक छोर पर खड़े हैं, गौतम बुद्ध तथा दूसरे छोर पर स्थित हैं, मोहनदास करमचन्द गांधी, जिन्हें भारत सम्मानवश बापू तथा श्रृद्धावश महात्मा गांधी कहता है.
 
मैं जानता हूं कि मेरी इस बात से असहमत होने वालों की संख्या बहुत बड़ी होगी, जो स्वाभाविक भी है. लेकिन यदि इस असहमति पर समय के अन्तराल के आवरण को हटाकर विचार किया जाए, तो शायद असहमति का तीखापन धीरे-धीरे कम होते-होते समान धरातल पर पहुंचने लगे.


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गौतम बुद्ध ने पहली बार जीवन में तर्क को केंद्र में रखकर व्यावहारिक दृष्टि से उसे जिस प्रकार से जनता तक पहुंचाया, वह अपने-आप में एक जबर्दस्त क्रांती थी. यही कारण रहा कि भावनात्मक प्रवाह के उस उहापोह वाले विकटकाल में भारत को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को गौतम बुद्ध के विचारों में अपने बचाव का एक बन्दरगाह दिखाई पड़ा. आज बौद्ध-दर्शन के इस प्रभाव को पूरी दुनिया में देखा जा सकता है. साथ ही यह भी कि उनके विचारों की ताजगी कभी मुरझाएगी नहीं. 


धर्म के क्षेत्र में जो क्रांति बुद्धि ने की, राजनीति के क्षेत्र में उससे कम बड़ी क्रांति गांधी की नहीं थी. गौतम बुद्ध जहां धर्म के सत्व को समझाने में जुटे थे, वहीं गांधी राजनीति में धर्म के प्रवेश के महत्व को बताने में लगे हुए थे. अब तक ज्ञात विश्व का इतिहास इस तथ्य को चिल्ला-चिल्लाकर सिद्ध करता है कि राजनीति के क्षेत्र में धर्म और नैतिकता के लिए कोई जगह नहीं है. 



महाभारत का युद्ध इसका जीवन्त प्रमाण भी है. चूंकि राजनीति के क्षेत्र में सीधे आमने-सामने का टकराव होता है, इसलिए वह क्षेत्र धर्म की तुलना में कहीं अधिक जोखिम से भरा हुआ भी है. गांधी का महत्व इसी बात में है कि अपनी बैरिस्ट्री को छोड़कर उन्होंने इस जोखिम वाले रास्ते को अख्तियार किया और अन्त में उसी के लिए अपनी आहुति भी दे दी. 


गांधी विश्व के अब तक के राजनेताओं में एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने राजनीति को ही आध्यात्म और धर्म माना. अपनी आत्मकथा की शुरूआत में ही उन्होंने इस बात का बहुत स्पष्ट तरीके से खुलासा किया है कि ‘जो बात मुझे करनी है, आज तीस साल से जिसके लिए मैं उद्योग कर रहा हूं, वह तो है-आत्म-दर्शन, ईश्वर का साक्षात्कार, मोक्ष. मेरे जीवन की प्रत्येक क्रिया इसी दृष्टि से होती है. मैं जो कुछ लिखता हूं, वह भी सब इसी उद्देश्य से. और राजनीतिक क्षेत्र में मैं जो कूदा, सो वह इसी बात को सामने रखकर.’


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उल्लेखनीय है कि भारत के इतिहास में जब भी शासकों को आध्यात्मिकता की आवश्यकता महसूस हुई, वे राजगद्दी छोड़-छाड़कर तपस्या के लिए निकल पड़े. राजा भृर्तहरि और हर्षवर्द्धन सबसे चर्चित नाम हैं. लेकिन हम गांधी को एक अलग ही रूप में पाते हैं. उन्होंने राजनीति में ही आध्यात्मिकता की खोज की और उसी में अन्ततः मोक्ष की भी. वे द्रोपदी सहित पांचों पांडवों की तरह जीवन के अन्त में हिमालय की यात्रा करने के लिए निकलते नहीं हैं.


आने वाला वक्त उन्हें एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में भी याद करेगा, जिन्होंने अपनी बातों को प्रयोगों द्वारा सिद्ध करके दिखाया. यूनान के दार्शनिक प्लेटो ने जिस सामुदायिक जीवन की बात की थी, उसका उन्हें अनुभव नहीं था. लगभग ढाई हजार साल बाद लेनिन ने रूस में उसे कार्य रूप में परिणित किया. एकमात्र गांधी ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने पहले किया, तभी कहा या फिर यूं कह लीजिए कि कहकर किया और करके कहा. इसलिए उन्होंने अपनी आत्मकथा को सीधे-सीधे ‘‘सत्य के प्रयोग’’ का नाम दिया. 


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अब, जबकि हमारा देश गांधी जयन्ती की 150वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है, मैं अपने समस्त देशवासियों से विनम्रतापूर्वक अनुरोध करूंगा कि वे मेरी बातों को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने से पहले एक बार उनकी इस आत्मकथा को जरूर पढ़ लें.


बापू के कुछ भाषण रिकार्डेड हैं. कृपया आप उन्हें सुनें और ध्यान से सुनें. मुझे उन भाषणों की एक विचित्र बात यह लगती है कि वे सुनाई तो ठीक से नहीं पड़ते, लेकिन अनबूझा कुछ भी नहीं रह जाता. सब कुछ समझ में आ जाता है. उनकी बुदबुदाहट एक प्रकार की हुंकार में तब्दील हो जाती है. यह शायद उनकी आत्मशक्ति का चमत्कार था कि उनके होंठ हिलते भर थे और पूरा देश उनकी आवाज को सुने बिना ही उनकी बात को समझ जाता था. यह उनकी आत्मशक्ति ही थी, जिसने इतने दुबले-पतले शरीर में ऐसी फौलादी मजबूती भर दी थी कि जिसे कभी कोई डिगा नहीं सका.


निश्चित रूप से गांधीजी का मूल्यांकन होना अभी बाकी है. जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता जाएगा, गांधी की चमक निश्चित रूप से निखरती चली जाएगी. जिस तरह की दुनिया आने वाली है, उस तरह की दुनिया के लिए यदि कोई सबसे प्रासंगिक व्यक्ति हो सकता है, तो वह गांधी ही होगा. और यह हम सबका सौभाग्य ही है कि हम उसी गांधी के देश के देश के नागरिक हैं.