अंग्रेजों से आजादी मिल गई, लेकिन `इस` आजादी को बचाने की फिक्र भी कीजिए
15 अगस्त राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक, शारीरिक, बौद्धिक और ऐसे ही तमाम बंधनों से मुक्ति का पर्व है.
15 अगस्त अपनी आजादी का दिन है. आजादी माने खुली हवा में सांस लेने की छूट. खुली हवा... यानी बंधनों से मुक्ति. यह राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक, शारीरिक, बौद्धिक और ऐसे ही तमाम बंधनों से मुक्ति का पर्व है. गुजरे सात दशकों से हम अपनी इस आजादी को पाने का जश्न मना रहे हैं और साथ ही यह चेतावनी भी देते जा रह हैं कि अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं, सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं. मगर अधिसंख्य मामलों ये तो कोरी बातें ही रहीं. हमने अपनी आजादी को खुद अपने हाथों से खत्म करने के कदम उठाए हैं. हमें समय पर समय पर चेताया गया कि ये कदम आत्मघाती हो सकते हैं, लेकिन हमने कभी परवाह नहीं की. हमने अपनी जिन आजादियों पर सर्वाधिक हमले खुद किए हैं उनमें प्रमुख है अपनी पर्यावरणीय आजादी. खुले आसमान तले, स्वच्छ वायु-जल के साथ रहने की आजादी.
कभी सोचा है इस गुलामी के बारे में? वह गुलामी जो हमें शुद्ध वायु के अभाव में मास्क के पीछे धकेल रही है. वह गुलामी जो शुद्ध पेयजल के लिए हमसे मोटे दाम वसूल रही है. वह गुलामी जिसने हमारी सेहत का आसमान हमसे छीन लिया है. क्या आपको पता है कि वर्ल्ड इकानॉमिक फोरम द्वारा जारी रिपोर्ट हमारे पर्यावरण के बारे में क्या कहती है? इस रिपोर्ट में विश्व के 180 देशों के पर्यावरण की स्थिति की रैंकिंग की गई है. इस रिपोर्ट में भारत को 180 देशों में 177 वां स्थान मिला है. नेपाल और बंगलादेश के साथ हम निचले पांच देशों में शामिल हैं.
यही कारण है कि हमारे देश में प्रदूषित वायु के कारण हर वर्ष 16 लाख से अधिक मृत्यु हो रही है. देश में उद्योगों, वाहनों के अलावा सबसे अधिक वायु प्रदूषण खेतों की नरवाई जलाने से फैल रहा है. यह समस्या जनता की लापरवाही से उपजी है तो वायु प्रदूषण का दूसरा कारण विकास परियोजनाओं से होने वाले प्रदूषण है. यहां यह रेखांकित करने योग्य है कि हमारी विकास योजनाओं की डीपीआर में परियोजनाओं से होने वाली पर्यावरण हानि को महत्व ही नहीं दिया जाता. जिन परियोजनाओं में यह मूल्यांकन होता भी है तो उसकी क्षतिपूर्ति के उपायों को पूरा करने में ध्यान नहीं दिया जाता है. जैसे विकास कार्यों में काटे जाने वाले पेड़ों का आकलन तो होता है, लेकिन उनके बदले कितने पेड़ लगे तथा वे कितना पनपे इस बारे में किसी को फिक्र नहीं होती.
भारत की पर्यावरणीय समस्याएं केवल जल या वायु प्रदूषण तक ही देखी जाती है. समझा ही नहीं जाता कि बात इसके आगे जा चुकी है. विभिन्न प्राकृतिक खतरें, मानसून की अवधि में कमी, बाढ़ और सूखे की व्याप्ति, कृषि पद्धतियों में बदलाव जैसे संकट भी पर्यावरण हानि के ही परिणाम हैं. एक अनुमान के अनुसार खेती योग्य भूमि का 60% भूमि कटाव, जलभराव और लवणता से ग्रस्त है. यह भी अनुमान है कि मिट्टी की ऊपरी परत में से प्रतिवर्ष 4.7 से 12 अरब टन मिट्टी कटाव के कारण खो रही है.
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान का अनुमान है कि तापमान में तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि सालाना गेहूं की पैदावार में 15-20% की कमी कर देगी. एक ऐसे राष्ट्र के लिए, जिसकी आबादी का बहुत बड़ा भाग मूलभूत स्रोतों की उत्पादकता पर निर्भर रहता हो और जिसका आर्थिक विकास बड़े पैमाने पर औद्योगिक विकास पर निर्भर हो, ये बहुत बड़ी समस्याएं हैं. जलसंकट अपने आप में बढ़ा मुद्दा है. न केवल धरती की सतह पर शुद्ध पानी की कमी हो रही है बल्कि भूजल स्तर भी निरंतर घटता जा रहा है.
आसमान से बादल भी अनियमित अंतराल और मात्रा में जल बरसा रहे हैं. धरती की उर्वरता को बढ़ाने के लिए खेतों में रसायनों का बेतहाशा इस्तेमाल हो रहा और आहार के साथ हमारे शरीर में पहुंचे ये रसायन हार्मोन बदलाव, कैंसर जैसे जानलेवा रोग हमें दे रहे हैं. यानि हम सुख से जीने की अपनी आजादी निरंतर खोते जा रहे हैं. हमें अपनी इस पर्यावरणीय आजादी और सम्प्रभुता को बचाए रखने की भी चिंता करनी चाहिए. अपने नारों में देश की सीमाओं की रक्षा करने के साथ पर्यावरणीय चेतना को भी शामिल करना होगा. तभी आजादी अपने मूल रूप में मौजूद रह पाएगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)