गीत उन्मन है, ग़ज़ल चुप है, रुबाई है दुखी और वो `नीरज का दौर`
बाबरी मस्जिद विध्वंस को हुए वक्त गुज़र चुका था. दंगों में झुलसे घर, गाड़ियां और लोग अब धीरे-धीरे समय की बारिश से धुल कर अपने धूसर रंग को उतार रहे थे. भोपाल में हर साल लगने वाले उत्सव मेले में पिछले चार पांच साल से फीके पड़े कवि सम्मेलन में इस बार रंग बिखरने की उम्मीद की जा रही थी.
बाबरी मस्जिद विध्वंस को हुए वक्त गुज़र चुका था. दंगों में झुलसे घर, गाड़ियां और लोग अब धीरे-धीरे समय की बारिश से धुल कर अपने धूसर रंग को उतार रहे थे. भोपाल में हर साल लगने वाले उत्सव मेले में पिछले चार पांच साल से फीके पड़े कवि सम्मेलन में इस बार रंग बिखरने की उम्मीद की जा रही थी. अखबार में कवि सम्मेलन में आने वाले कवियों की फेररिस्त छपी हुई थी. सारे नाम को पढ़ कर लगा कि इस बार कवि सम्मेलन धांसू होने वाला है. स्कूल खत्म करके अभी कॉलेज की दहलीज पर कदम रखा ही था. तो रात भर चलने वाले कवि सम्मेलन के लिए पिताजी की इजाजत लेनी थी, हालांकि कवि सम्मेलन के नाम से इजाज़त मिलने की पूरी उम्मीद थी. हुआ भी यही हालांकि पिताजी ने कहा था कि केबल वाला सीधा प्रसारण दिखाएगा लेकिन शायद वो भी जानते थे कि कवि सम्मेलन को मंच के समीप से सुनने का आनंद ही कुछ ओर होता है.
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कड़कड़ाती सर्दी में लगे हुए मंच पर आसीन कवियों को सुनने के लिए पूरा भोपाल उमड़ा पड़ा था. वो शायद भोपाल उत्सव मेले का एकमात्र कवि सम्मेलन रहा होगा जिसमें भारत के सभी दिग्गज एक साथ मौजूद थे. ये भोपाल का साहित्य से प्रेम ही कहिए की जिस कवि को सुनने के लिए लोग अलसुबह तक वहां मौजूद रहे और जब उसे बुलाया गया तो कड़कती सर्दी में भी लोगों मे जोश भर गया. माइक को अपने पास सरकाते हुए उन्होंने दंगों पर दुख प्रकट करते हुए तरन्नुम में जैसे ही कहा- ‘अब तो मजहब कोई ऐसा भी चलाया जाए, जिस में इंसान को इंसान बनाया जाए.‘ विश्वास कीजिए रौंगटे खड़े हो गए.
गोपाल दास नीरज को मंच से सुनने का ये पहला मौका था. उनकी इन पंक्तियों को अपने पिताजी से बचपन से नीरज के ही अंदाज में सुनता रहा था. पिताजी हमेशा बोलते थे कि प्यार को परिभाषित करना नीरज से बेहतर कोई नहीं जानता है. ‘शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब, उसमे फिर मिलाई जाए थोड़ी सी शराब, होगा यूं नशा जो तैयार वो प्यार है’. या फिर.. ‘बादल-बिजली, चंदन-पानी जैसा अपना प्यार’. इसी कवि सम्मेलन में जब उन्होंने ये पंक्तियां गुनगुनाई थी-
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"जब चले जाएंगे हम लौटके सावन की तरह, याद आएंगे प्रथम प्यार के चुंबन की तरह.
जिसमें इंसान के दिल की न हो धड़कन नीरज, शायरी तो वो अखबार की कतरन की तरह’.
इतने सालों पहले सुनी कविता की इन पंक्तियों ने यादों में ऐसी जगह बनाई कि अब वो भुलाए नहीं भूलती है."
आज जिस तरह से चारों ओर नफरत का माहौल फैला हुआ है और किसी की जान लेना बहुत ही आसान सा लगने लगा है, ऐसे में शायद उनकी ये पंक्तिया बताती हैं कि इस समाज को प्रेम की कितनी सख्त ज़रूरत है, वो कितनी गहराई से उस प्रेम को समझते थे –
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''घृणा का प्रेम से जिस दिन अलंकरण होगा/ धरा पर स्वर्ग का उस रोज़ अवतरण होगा.
न तो हवा की है गलती न दोष नाविक का/ जो लेके डूबा तुझे तेरा आचरण होगा.
मैं सोचता हूं कि कैसी दिखेगी ये दुनिया/ हृदय-हृदय पे न जब कोई आवरण होगा.''
नीरज जी से मिलने का मौका तो कभी नहीं मिल सका लेकिन मीडिया में रहने के दौरान कई बार उनके साक्षात्कार को संपादित करने का मौका मिला. कई बार अपने लिखे में उनकी पंक्तियों को उद्धृत भी किया. इन्ही साक्षात्कारों से उनकी सहज व्यक्तित्व का भी परिचय मिला था. उससे ये बात समझ में आई थी की उनके हृदय पर वाकई में कोई आवरण नहीं था. ऐसी ही एक बार की बात है. न्यूज चैनल में रात वाली पारी में एक प्रोग्राम तैयार कर रहा था तभी उत्तर प्रदेश के बनारस शहर से एक कवि सम्मेलन की फीड मिली. कवि सम्मेलन पढ़ते ही उस खबर को देखने की लालसा जाग उठी. कवि सम्मेलन में चैनल के रिपोर्टर ने एक कवि के मुंह पर माइक लगा कर कवि सम्मेलन से जुड़े एक दो सवाल पूछे, फिर कवि की लिखी हुई कविता की कुछ पंक्तियां दोहराने के लिए कहा तो
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''कवि ने कहा-नेताओं ने गांधी की क़सम तक बेच दी
कवियों ने निराला की क़लम तक बेच दी
मत पूछ कि इस दौर में क्या-क्या न बिका
इन्सानों ने आँखों की शरम तक बेच दी.''
रिपोर्टर ने पंक्तियों के पूरा होते ही मशीनी भाव से अगला सवाल दोहराते हुए उनसे पूछा कि आपका नाम क्या है. उस समय तक पदम श्री अवार्ड से नवाज़े गए कवि ने बेहद ही सरल अंदाज में बताया कि उनका नाम गोपाल दास नीरज है.
खास बात ये थी कि कभी उम्र का असर उनकी कविताओं पर नज़र नहीं आया. जब वो लिखते हैं –
बढ़ता रोज़ जिस्म मगर घट रही थी उम्र / होने के साथ-साथ ‘न होना’ बना रहा.
नीरज तो बुढ़ापे में भी करते हैं लड़कपन / लोगों में इसी बात का रोना बना रहा.
तो उनकी रूमानी शख्सियत का सहज ही पता चल जाता है. यही नहीं वो ईश्वर के साथ भी प्रेम को ही जोड़ कर देखते हैं. उन्हें उनकी छवि में भी प्यार ही नज़र आता है.
अपनी बानी प्रेम की बानी/ घर समझे ना गली समझे,
या इसे नंद-लला समझे जी/ या इसे बृज की लली समझे
इसकी अदा पर मर गई मीरा/ मोहे दास कबीर
अंधरे सूर का आंखे मिल गई/ खाकर इसकी तीर
चोट लगे तो कली समझे इसे/ सूली चढ़े तो अली समझे ... अपनी बानी प्रेम की बानी
ये गोपाल दास नीरज ही थे जिन्होंने प्रेम को अगणित माना और वैसा ही गुना भी.
चाहे बरसे जेठ अंगारे/ या पतझर हर फूल उतारे
अगर हवा में प्यार घुला है/ हर मौसम सुख का मौसम है.
वैसे तो ये जीवन का मंच कभी खाली नहीं रहता है. लेकिन आज जब नीरज हमारे बीच नहीं रहे तो लगता है कि जैसे प्रेम रीता सा हो गया है और मंच पर बस यहीं पंक्तियां रह गई है, गीत उन्मन है, ग़ज़ल चुप है, रुबाई है दुखी. ऐसे माहौल में ‘नीरज’ को बुलाया जाए.
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)