समावेशी प्रगति में भोजन तक सबकी पहुंच को स्थापित करना आज नीति निर्माताओं के प्राथमिक लक्ष्यों में से एक है. साल 2013 में लागू हुआ राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून इस संबंध में मील का पत्थर साबित हुआ है. बजटीय आंकड़ों के हिसाब से देश के 80 करोड़ लोग इस कानून से वर्तमान में लाभांवित है. इन योग्य लाभुकों को प्रति माह, प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज, 3 रुपये प्रतिकिलों की दर से चावल, 2 रुपये प्रतिकिलो की दर से गेहूं एंव 1 रुपये प्रतिकिलो की दर से मोटा अनाज सस्ती दर पर उपलब्ध कराया जा रहा है. यहीं नहीं निर्धनतम लाभुकों तक खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अन्त्योदय अन्न योजना के तहत 2.5 करोड़ लाभुक परिवारों को प्रतिमाह 35 किलों अनाज उपलब्ध कराये जाने का भी प्रावधान है. 


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सबसे आवश्यक पहलू यह भी है कि इस कानून में ग्रामीण क्षेत्रों की 75 फीसदी जनसंख्या एंव शहरी क्षेत्रों की 50 फीसदी जनसंख्या को कवर किये जाने का प्रावधान है. पंरतु इन सबके बावजूद समावेशी खाद्य सुरक्षा के सामने अभी भी ढेर चुनौतियां है. इनमें सही लाभुकों की पहचान, उचित भंडारण एंव निष्पक्ष वितरण जैसी प्रक्रियात्मक समस्यांए है तो दूसरी ओर बढ़ती मांग की अपेक्षा उत्पादन की गिरती दर, कृृषि योग्य भूमि का तेजी से होता अतिक्रमण, बंजर, सूखा, बाढ़ एंव जलवायु परिवर्तन जैसे बिदुं भी है. आय के स्रोत का ब्यौरा स्थापित करेगा चुनावी पारदर्शिता


इन सबके अतिरिक्त सबसे अहम सवाल भौगोलिक आधार पर खाद्य व्यवहार का वैज्ञानिक आंकलन न किया जाना है. लोगों के भोजन व्यवहार का उचित आंकलन न होने से न केवल पोषण संबंधी समस्याएं सामने है बल्कि जनवितरण प्रणाली में खाद्य उपलब्धता में व्यापक असंतुलन इसका गंभीर समस्यागत परिणाम है. 


 भौगोलिक आधार पर लोगों के भोजन करने के व्यवहार को देखते हुए चावल, गेहूं के अतिरिक्त मांस, अंडा, फल, दूध, मछली जैसे अन्य वैकल्पिक खाद्य पदार्थों को भी जनवितरण प्रणाली के तहत उपलब्ध कराया जाना समावेशी खाद्य सुरक्षा हेतु एक रामबाण साबित हो सकता है. उदाहरण के लिए यदि पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, गोवा के तटीय इलाकों में बहुतायत जनसंख्या चावल और मछली भोजन के रुप में स्वीकार करती है तो ऐसी जनसंख्या को पीडीएस के माध्यम से गेहूं उपलब्ध कराना हानिकर है क्योंकि इनमें से ज्यादातर लोग या तो गेहूं को भोजन के रुप में ग्रहण नहीं करते है या बहुत कम उपयोग में लाते है. सामाजिक संघर्ष का हल धर्म में है कि राजनीति में- एक सवाल


ऐसे में इन लोगों द्वारा सस्ती दरों में पीडीएस के माध्यम से प्राप्त गेहूं बाजारी कीमतों में वापिस बेच दिया जाता है या उचित वितरण न होने से व्यर्थ में सड़ जाता है. जो कि सरकार की पीडिएस योजना के खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को पाने के लिए एक बड़ी बाधा है. सोशल मीडिया कुप्रचार पर नकेल-प्रशासनिक चुनौती


यहीं नहीं इसके कारण राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उन इलाकों में जहां गेहूं भोजन व्यवहार में अनिवार्य रुप से शामिल है. वहां पीडिएस के माध्यम से बीपीएल लाभुकों के लिए गेहूं की उपलब्धता अनावश्यक रुप से सीमित हो जाती  है, इसके कारण कई लाभुक उचित समय में गेंहू प्राप्त नहीं कर पाते है. इसका सीधा प्रभाव ये पड़ता है कि जो गेहूं खा सकते है, उनमें से कई गेहूं न मिल पाने के कारण भूखे सोते है और जो गेहूं खाना नहीं चाहते उनको पीडिएस के माध्यम से गेहूं उपलब्ध हो जाता है.


देश के उत्तर.पूर्वी इलाकों का भी एक और उदाहरण लिया जा सकता है यहां की जनजातिय जनसंख्या के भोजन व्यवहार में अंडा, मांस की मात्रा अधिक है तो ऐसे इलाकों में पीडिएस द्वारा उपलब्ध कराये जा रहे अनाजों के विकल्प के तौर पर मांस या अंडे को अधिक अनुपात मे उपलब्ध कराना ज्यादा प्रभावी होगा. अन्यथा संबंधित जनसंख्या में खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित कर पाना संभव नहीं होगा. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के नेशनल न्यूट्रीशनल रिपोर्ट 2011 के आंकड़ों के हिसाब से 1993-94 के आंकड़ों की तुलना में भारत में ग्रामीण एंव शहरी लोगों में पोषण हेतु चावल, गेहूं, मोटे अनाजों की तुलना में मांस, मछली, अंडा, दूध, दाल के उपभोग की दर में 5 से 8 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है.  


यहां जरुरी यह है कि राज्य सरकार अथवा स्टेट फूड कमीशन ब्लॉक लेवल पर क्षेत्रीय भोजन व्यवहार का आंकलन करें एंव इस आधार पर पीडीएस द्वारा उपलब्ध कराये जा रहे खाद्य पदार्थों में विविधता लायी  जाये. इसमें दूध, फल, मांस, मछली, अंडा एंव अन्य खाद्य पदार्थो को भी जोड़ा जाये साथ ही इन्हें लाभुकों तक उचित समयावधि में बिना क्षरण एंव नष्ट हुए उपलब्ध कराया जाय.


कई राज्यों में पीडीएस के तहत दाल, खाद्य तेल, मसाले, आयोडाइज्ड नमक, चीनी एंव केरोसीन तेल भी पूर्व से ही सस्ती दरों में उपलब्ध कराया जा रहा है. अतएव क्षेत्रीय भोजन व्यवहार का आंकलन कर खाद्य पदार्थाे को उपलब्ध कराने से पीडिएस लाभुकों द्वारा अनाज का व्यर्थ प्रयोग रोकने के साथ कालाबाजारी को भी सीमित किया जा सकेगा. साथ ही खाद्य सुरक्षा हेतु लक्षित लाभुकों की संख्या सीमा को भी बढ़ाया जा सकेगा. यहीं नहीं लक्षित जनसंख्या के खाद्य व्यवहार के आधार पर उचित पोषक स्तर को भी बनाये रखना ज्यादा आसान होगा. सबसे अच्छा यह रहेगा कि इस संबंध में एक उचित विशेषज्ञ समिति का गठन किया जाये जो इस संबंध में सभी पहलुओं का उचित अध्ययन कर एक व्यापक रणनीति तैयार कर सकें एंव कार्यरुप दे सके.
 
(लेखक बिहार राज्य सिविल सेवा से जुड़े हुए है) 


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)