अब 67 साल हो चुके हैं, जब भारत ने अपना संविधान अंगीकार किया था. यानी स्वीकार किया था. वर्ष 1950 में आज ही के दिन यानी 26 जनवरी को भारत का संविधान लागू हुआ था. इसे लिखने में अहम भूमिका निभाने वाले डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने एक बात कही थी कि “आज इस संविधान की अच्छाइयां गिनाने का कोई खास मतलब नहीं है. संविधान कितना ही अच्छा हो, यदि इसका इस्तेमाल करने वाले लोग बुरे होंगे, तो यह बुरा साबित होगा. यदि संविधान बुरा है, किन्तु उसका इस्‍तेमाल करने वाले अच्छे होंगे तो फिर भी संविधान अच्छा साबित होगा. जनता और राजनीतिक दलों की भूमिका को सन्दर्भ में लाये बिना संविधान पर टिप्पणी करना व्यर्थ होगा”. 


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वास्तव में आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि हम, भारत के लोग संविधान को पढ़ें, जानें और उसमें अपना विश्वास प्रगाढ़ करें. इसे भूल जाने का परिणाम है हम एक हिंसक, गैर-बराबर और असंवेदनशील परिस्थिति में आकार फंस गए हैं. सिवाए शपथग्रहण के कुछ पलों के अलावा हमें वास्तव में कब अपने संविधान के स्वतंत्र और जीवित होने का अहसास होता है, जरा सोचियेगा! कभी अपने बच्चों से पूछिए कि क्या वे भारत के संविधान को पहचानते हैं?


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यह महज एक किताब नहीं है. यह एक तस्सवुर था कि हम बर्तानिया उपनिवेशवाद यानी गुलामी और गरीबी, जातिवाद से मुक्त होकर किस तरह का मुल्क बनाना चाहते हैं. दृष्टि यह थी कि देश का निर्माण समाजवाद, पंथ निरपेक्षता, लोकतांत्रिक, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक न्याय, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता, मानवीय गरिमा और अवसरों के समान बंटवारे से होगा. विकास को नापने के यही पैमाने होंगे. आज के माहौल में हमें अपनी खुद की व्यवस्था पर भी संदेह होने लगा है. अक्सर यह सवाल कौंधता है कि वास्तव में हमारी सरकार किसके प्रति प्रतिबद्ध है?


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अब जरा आसपास के माहौल पर नज़र डालिए. सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय इसका केंद्र है. यह कहता है कि दुकान, मंदिर, मनोरंजन के स्थानों, तालाबों, स्नान घाटों, सड़कों, मिलने जुलने के स्थानों पर किसी तरह का भेदभाव नहीं होगा. आज़ादी के 68 सालों के बाद भी ऊंची जाति-नीची जाति का भेद जारी है. आखिर प्रमाण सामने होते हुए भी सरकार में यह संविधान लागू करने की मंशा कमज़ोर क्यों रही? 


यही संविधान, जिसे उन 210 प्रतिनिधियों ने स्वीकार किया था, जो हिंदू, मुस्लिम, सीख, पारसी, अनुसूचित जाति, ईसाई, एंग्लो इन्डियन, रियासतों और पिछड़े तबके से सम्बन्ध रखते थे और बदलाव का सपना लिए हुए थे. उन्होंने ही माना था कि दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण अनिवार्य है. रोज़गार में समानता का अधिकार तभी लागू हो सकता है, जब आरक्षण को सही मंशा के साथ लागू किया जाता.


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क़ानून का दुरूपयोग करके संगठनों-संस्थाओं को खत्‍म किया जा रहा है. वास्तव में एक संस्था का खत्म किया जाना, संविधान में दर्ज मौलिक अधिकार को खत्म किये जाने के बराबर है. यह सही है कि यदि कोई देश के खिलाफ या देश के मूल्यों के खिलाफ अपराध करता है तो क़ानून को पूरी शिद्दत से अपनी भूमिका निभाना चाहिए और कार्यवाही करना चाहिए. सरकार को यह तो साबित करना चाहिए कि अपराध क्या है? नीतियों और कार्यशैली की आलोचनात्मक समीक्षा करना संवैधानिक अधिकार है, यह अपराध नहीं है. हमारी पूरी शिक्षा नीति संविधान की भावना के खिलाफ है. संविधान तो कहता है कि हर समूह को अपनी विशेष भाषा, लिपि, संस्कृति को बनाये रखने का अधिकार है. क्या भील आदिवासी को भीली और बुंदेलखंड की छात्रा को भोपाल में बुन्देलखंडी बोलने का अधिकार मिलता है. उनकी बोलियों का उपहास उड़ा कर हम उनके अधिकार हरते हैं. शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी या हिंदी तय कर देने का क्या मतलब है? वास्तव में उपनिवेशवाद को खत्म करने के मकसद से बना था भारत का संविधान. वह लागू नहीं हुआ, इसका मतलब उपनिवेशवाद बरक़रार है.


हमारी वित्तीय व्यवस्था का स्वरुप भी संविधान से ही निकल कर आता है. रेल के किराए में बढौतरी या किसी कर को लगाने का प्रस्ताव संसद में पारित होना चाहिए, किन्तु पिछले दस सालों में हमने देखा है कि कर लगाने या शुल्क बढ़ाने के लिए संसद की प्रक्रिया का पालन नहीं करती है और साल में कभी भी कर लगा देती हैं या किराया बढ़ा देती हैं. तर्क यह है कि अब हमारी अर्थव्यवस्था खुली हुई है और बाज़ार के हवाले है इसलिए बजट का या संसद के सत्र का इंतज़ार करना असंभव है. इसका साफ़ मतलब है कि मौजूदा आर्थिक नीतियां संवैधानिक वित्तीय व्यवस्था के सिद्धांतों के भी खिलाफ हैं.
 
हम खाद्य सुरक्षा क़ानून बनाते हैं या रोज़गार गारंटी क़ानून लागू करते हैं, तो समाज और राजनीति का एक वर्ग इन कानूनों की खिलाफत करता है. वह कहता है कि ये करदाताओं के धन का दुरूपयोग है. पर यह सच नहीं है. रोज़गार, जमीन, भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, न्याय वास्तव में उनका संवैधानिक अधिकार है, कोई भीख नहीं है. संविधान तय करता है कि राज्य आय की गैर-बराबरी को कम करने, प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को खत्म करने का प्रयास करेगा.  भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो, जिससे सामूहिक हित की सुरक्षा हो. 


जरा सोचिये कि पिछले 68 सालों में जिस तरह से सवा करोड़ लोगों को विस्थापित होना पड़ा है, जिस तरह से गांव-के-गांव बदहाली में पलायन कर रहे हैं, पंचायतें नौकरशाही की गुलाम हैं. इससे क्या पता चलता? मुझे लगता है कि संविधान को कहीं कैद कर दिया गया है. संविधान कहता है कि कर्मकारों को शिष्ट जीवन स्तर पाने के लिए जीवन निर्वाह के लायक मजदूरी मिलनी चाहिए. भारत के वेतन आयोग हर बार सरकारी नुमायिन्दों के वेतन दो गुने कर देते हैं. आज एक अफसर के प्रतिदिन के वेतन और एक मजदूर के वेतन में 50 गुना का फासला है. क्यों? क्योंकि संविधान कहीं कैद है? सबसे अहम बात यह है कि यदि एक मजदूर को वास्तव में मिलने वाली मजदूरी को मापें, तो यह अंतर 100 गुने का है. संविधान सभा की यह मंशा ऐसा भारत बनाने की तो नहीं थी. 


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विकास का मतलब है मध्यम वर्ग को मिलने वाली सुविधाएं मिलना. अक्सर यह कहा जाता है कि भले पैसा ले लो, पानी दो. भले पैसा ले लोग, बिजली दो. भले पैसा ले लो, पर अस्पताल बनाओ. यह मध्यम वर्ग कभी नहीं सोचता है कि देश के 75 फ़ीसदी लोग इन सेवाओं का भुगतान नहीं कर सकते हैं. बस यही से टारगेटिंग शुरू हो जाती. जो गरीब हैं या तो उन्हें सेवाएं नहीं मिलती हैं या पूरी व्यवस्था भ्रष्ट बना दी जाती हैं. लोग बीमारी से नहीं मरते हैं, इलाज़ के अभाव में मरते हैं. बच्चे अकाल के कारण नहीं मरते हैं, बल्कि इसलिए मरते हैं क्योंकि अनाज के गोदाम तालाबंद रहते हैं. हमारी शिक्षा व्यवस्था उन्हें विज्ञान, वाणिज्य, प्रबंधन पढ़ाती है, संविधान नहीं पढ़ाती. शायद यही कारण है कि उन्हें यह भी नहीं पता कि अनुच्छेद 51 के मुताबिक संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों पर चलना हर नागरिक का मूल कर्तव्य है. 


क्या हम जानते हैं कि संविधान के मूल कर्तव्यों में उल्लेख है कि हर नागरिक देश की रक्षा करे, राष्ट्र सेवा करे, भेदभाव दूर करे, स्त्रियों के सम्मान के खिलाफ होने वाली हर प्रथा का त्याग करे. सभी को अपना धर्म मानने का अधिकार है, किन्तु संविधान यह भी कहता है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानववाद की भावना का विकास करना भी नागरिकों का मूल कर्तव्य है. यदि कहीं खनन या कारखाने के कारण पर्यावरण और जैव-विविधता का विनाश हो तो हमें क्या करना चाहिए? संविधान के हिसाब से तो प्राकृतिक पर्यावरण, वन, झील, नदी, वन्य जीव की रक्षा करना भी नागरिकों का मूल कर्तव्य है, किन्तु आज यदि कोई इसका पालन करे, तो उसे विकास विरोधी और राष्ट्र-विरोधी की उपमा दी जाती है और वह सलाखों के पीछे भेजा जा सकता है. कारण? संविधान कहीं कैद में है? 


मैं मानता हूं कि ऐसा कोई भी विकास भारत का भला नहीं कर सकता है, जिसकी नीतियां संविधान की मूल भावनाओं और इसके प्रावधानों के खिलाफ गढ़ी गई हों. हमें यह मानना होगा कि साम्प्रदायिकता का क्षरण, आर्थिक-सामाजिक गैर-बराबरी का खात्मा और मानवीय विकास की प्रक्रिया का सहज होना, तभी संभव है जब हम मूल्य आधारित समाज व्यवस्था में विश्वास रखेंगे और सरकारें उसके मुताबिक नीतियां बनायेंगी, अन्यथा बेहतर समाज कभी नहीं बन पायेगा. 


(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)