सरकारों के यहां समस्याओं की सूची बनने का रिवाज़ नहीं पाया जाता. उनके यहां सिर्फ समस्या के समाधानों की सूची होती है और शायद इसीलिए सरकारें उन बड़ी समस्याओं को अपनी नज़रों से दूर रखती हैं, जिनके समाधान में अड़चन हो. ऐसी ही एक समस्या है बेरोज़गारी. सरकार के नज़रिए से देखें तो बेरोज़गारी के समाधान के लिए नौकरियां पैदा करने की बजाय बेरोज़गारों को अपना कामधंधा शुरू करने की सलाह मिल रही है. भयावह बेरोज़गारी से जूझते देश मे अपने काम धंधे शुरू कर लेने की सलाह कितनी काम की है इसे भी देखा जाना चाहिए. क्या इस समय देश की माली हालत ऐसी है कि इतनी बड़ी तादाद में युवा किसी उत्पादक कामधंधे में लग सकें.


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कितनी बड़ी है समस्या
इसका अंदाज़ा कोई नहीं कर पा रहा है. सरकार तक नहीं. उसके पास तो बेरोज़गारी के आंकड़े तक नहीं है. यह बात वह ऐलानिया कबूल कर रही है. हो सकता है कि वह इसलिए कबूल रही हो, क्योंकि सरकार को यह समस्या बड़ी लगती ही न हो या वह इस समस्या को बड़ी मानने की हालत में न हो, लेकिन इधर साल भर से देश के बेरोज़गार नौकरी पाने के लिए धरने-प्रदर्शन करने लगे हैं. खासतौर पर सरकारी नौकरी में भर्तियों की प्रक्रिया को लेकर उनका असंतोष सड़कों पर दिखने लगा है. वैसे ये बेरोज़गार वे युवा हैं, जिन्होंने भर्ती की प्रक्रिया से अपने को गुज़ार लिया है और महीनों से नियुक्ति पत्र के इंतज़ार में हैं. इनकी संख्या डेढ़ दो लाख के लपेटे में है, लेकिन वे युवा जो एक पद के लिए हजार पांच सौ की तादाद में आवेदन करते हैं और नौकरी पाने में नाकाम होते हैं, उनकी संख्या करोड़ों में हैं. मसलन, राजस्थान में एक जगह 18 चपरासी के पदों के लिए 18 हजार बेरोज़गारों के आवेदन आते हैं. ऐसा लगभग हर राज्य में है. दूसरी और नौकरियों का हिसाब लगाएं तो देश में इस समय नौकरी चाहने वालों की संख्या कम से कम पांच करोड़ बैठेगी. यह संख्या भी सिर्फ सरकारी नौकरियां चाहने वालों की है, जिसकी एक न्यूनतम योग्यता होती है. उन बेरोज़गार युवाओं की संख्या का कोई हिसाब ही नहीं है जो सरकारी नौकरी पा सकने लायक हौंसला ही नहीं रखते, लेकिन गुज़ारे लायक किसी भी नौकरी की तलाश में हैं. खासतौर पर गांव के बेरोज़गार.


बेरोज़गारी का गैर-सरकारी आकलन
जब सरकारी आंकड़े उपलब्ध ही न हों तो इसका अलावा क्या चारा है कि गैरसरकारी अनुमान लगाए जाएं. सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग बेरोज़गारी के आकार का अंदाजा लगाते रहते हैं और देश में मोटे तौर पर पर 10 से 15 करोड़ बेरोज़गारों का अनुमान लगाते हैं. यह सिर्फ फौरी तौर पर बेरोज़गारों का अनुमान है. उनके अलावा दूसरी तरह के बेरोज़गार भी हैं. लिहाजा़ यह समझना भी जरूरी है कि बेरोज़गारी अपने किन किन रूपों में हमारे सामने है.


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कितने प्रकार की है हमारे यहां बेरोज़गारी
मोटे तौर पर देश में बेरोज़गारी के चार प्रकार हैं. पहला रूप है पूर्ण बेरोज़गार, दूसरा आंशिक बेरोज़गार, तीसरा छद्म रोज़गार में लगे बेरोजगार और चौथा अपनी क्षमता से कम काम पाए बेरोज़गार. इन चार प्रकारों में उन्हें छोड़ा भी जा सकता है जो अपनी योग्यता और क्षमता से कम काम हासिल किए हुए हैं. इसका आकलन है भी बड़ा मुश्किल. और वैसे भी देश में भयावह बेरोज़गारी के हालात में उन्हें जैसा भी काम मिला हुआ है वे मन मसोस के कर ही रहे हैं, लेकिन बाकी तीन प्रकारों के बेरोज़गारों की हालत हद से ज्यादा खराब है. पूरी तौर पर बेरोज़गार तो सबके सामने हैं ही, बाकी दो तरह के बेरोज़गारों की भी हालत कम बुरी नहीं है. 


छद्म रोज़गार रूपी बेरोज़गारी
पूर्ण बेरोज़गार से ज्यादा संख्या इस किस्म के बेरोज़गारों की दिख रही है. ये बेरोज़गार अपने पुश्तैनी या पारिवारिक कामकाज में फिज़ूल में ही लगे हैं और इसलिए लगे हैं कि बेरोज़गारी की हालत में समाज को दिखाने के लिए भी तो कुछ करते दिखना जरूरी है. इसीलिए इस प्रकार के बेरोज़गारों को छद्म बेरोज़गारों की श्रेणी में रखा जाता है. ये छद्म बेरोज़गार इस समय देश के पौने 7 लाख गांवों में सबसे ज्यादा हैं. सामान्य पर्यवेक्षण के आधार पर हर गांव में डेढ़ से लेकर दो सौ छद्म बेरोज़गार युवाओं का हिसाब लगाएं तो इनकी संख्या 10 से 15 करोड़ बेरोज़गारों की बैठती है. यह संख्या मनरेगा में मिले रोज़गार को घटाकर है. ये करोड़ों युवा मनरेगा जैसी सीमित योजना में काम न मिलने के कारण छोटी-छोटी खेती की ज़मीनों पर अपने परिवार के बड़ों के साथ फिज़ूल में काम करते पाए जाते हैं. यह अनुमान ज़ाहिर करना भी जरूरी है कि इन बेरोज़गारों को अपेक्षित शिक्षण या प्रशिक्षण भी नहीं दिया जा सका है. निकट भविष्य में अगर बेरोज़गारी उन्मूलन का कोई कार्यक्रम बनने का योग बना तो छद्म बेरोज़गारों के बारे में यह तथ्य काम आएगा.


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आंशिक बेरोज़गारी
सबसे अस्पष्ट और उतना ही गंभीर रूप इस बेरोज़गारी का भी है. अभी सरकारी परिभाषा में आंशिक रोज़गार पाए युवाओं को बेरोज़गार की श्रेणी में नहीं डाला जाता. कितना भी गौर से जानने की कोशिश करें, यह पता ही नहीं चलता कि साल में कम से कम कितने दिन काम मिलने वाले को रोजगार पाया माना जाता है. जब यह साफ-साफ पता चले तो इसका कुछ अंदाजा लग पाए, लेकिन इतना तय है कि नौकरी चाहने वाले या अपना कामधंधा शुरू करने की इच्छा रखने वाले युवा इस श्रेणी के भी हैं. खासतौर पर असंगठित क्षेत्र में कभी-कभार काम पा जाने वाले ये बेरोज़गार युवा और प्रौढ़ लोग नोटबंदी के बाद सबसे बुरे दौर से गुज़र रहे हैं. असंगठित क्षेत्र के निर्माण कार्य पर लगने वाले दिहाड़ी मज़दूर इसी श्रेणी में आते हैं. पिछले एक साल में निर्माण के क्षेत्र में भयावह मंदी के मारे इन आंशिक बेरोज़गारों को अभी भी काम की तलाश करते पाया जाता है. 


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क्षमता से कम काम का बेरोज़गार
इसे बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं कि देश में आर्थिक विषमता चरम पर है. उच्च शिक्षा और उच्च प्रशिक्षण के बावजूद करोड़ों युवा अकुशल और अर्धकुशल मज़दूरी करने के लिए बाध्य हैं. चपरासी या दफ़्तरी के काम के लिए एमएससी और पीएचडी करे युवा आवेदन कर रहे हैं. यानी अपनी योग्यता और क्षमता से कमतर काम को हासिल करने के लिए भी कड़ी प्रतियोगिता है. इस गंभीर स्थिति को यूं ही अनदेखा नहीं किया जा सकता. बेरोज़गारी के प्रकारों को प्राथमिकता के आधार पर लगाएं तो भले ही इन अंडर एंप्लायड युवाओं को सबसे नीचे रखें, लेकिन अगर बेरोज़गारी से निपटने के लिए कोई ब्रेन स्‍टॉर्मिंग जैसा विमर्श किया जाना हो तो इस किस्म की बेरोज़गारी की अनदेखी नहीं हो पाएगी. भले ही इस प्रकार की बेरोज़गारी को मिटाने के लिए हम बाद में सोचें, लेकिन यहां यह तथ्य भी गौरतलब है कि ये उच्च गुणवत्ता का बेरोज़गार तबका अकुशल और अर्धकुशल प्रकार के मज़दूरों की संभावनाओं में कटौती कर रहा है.


कुल-मिलाकर अपने देश में अगर बेरोज़गारी की समस्या की गंभीरता की नापतौल करें तो यह समस्या देश की पचासों समस्याओं से ज्यादा गंभीर बैठ रही है. एक वाजिब सवाल है कि इसे क्यों न आपातकालिक समस्या का दर्जा दे दिया जाए. इस समस्या के अपने आकार और देश के पास अपने सीमित संसाधनों के कारण बेशक यह समस्या सर्वाधिक जटिल समस्या की श्रेणी में है. ऐसी जटिल समस्याओं के समाधान के लिए आधुनिक प्रबंधन प्रौद्योगिकी एक खास किस्म के अकादमिक आयोजन का सुझाव देती है, जिसका नाम है ब्रेन स्‍टॉर्मिंग, जिसे हिंदी में हम बुद्धि उत्तेजक आयोजन कहते हैं. अब मसला ये है कि बेराजगारी जैसी जटिल समस्या का समाधान ढूंढने के लिए वैज्ञानिक सोच-विचार का यह काम कौन करे या कराए? सो यहां इशारा ही किया जा सकता है कि हमारे पास सरकारी थिंक टैंक यानी नीति आयोग उपलब्ध है. फिलहाल यही आयोग हमारे पास है जो देसी-विदेशी महंगे विद्वानों और प्रबंधन प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञों को बुलाकर ब्रेन स्‍टॉर्मिंग करा सकता है.


(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)