'जाने भी दो यारो' अब हमारे लिए महज़ एक फिल्म है. कुंदन शाह का मरना एक खबर है. कुंदन शाह और उनकी पूरी टीम पता नहीं आज के दौर में यह फिल्म बना पाती या नहीं. क्योंकि जाने भी दो यारो वाली फितरत तो हम खोते जा रहे हैं. सोशल मीडिया क्रांति के दौर में हमने एक नई चीज़ सीखी है. बुरा मानना, आहत होना. जाने भी दो यारो का लहजा अब हमारे लिए असहनीय है. हम व्यंग्य की विधा खोते जा रहे हैं. हरिशंकर परसाई से लेकर शरद जोशी तक आज होते तो शायद होते ही नहीं. अगर वह कुछ लिखते भी तो उन्हें ट्रोल कर करके उनकी धज्जियां उड़ा दी जाती. आरके लक्ष्मण के कार्टून हमें हंसाते नहीं हमें आहत करते.


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कुंदन शाह के जाने पर उनके सहायक रहे जाने-माने निर्देशक सुधीर मिश्रा ने कहा कि कुंदन शाह की मौत हार्ट अटैक से नहीं हार्टब्रेक से हुई है. वागले की दुनिया, नुक्कड़ जैसे नाटकों के ज़रिए सामाजिक ताने-बाने को दिखाने वाले कुंदन शाह नेटफ्लिक्स के दौर में शायद इसलिए फिट नहीं बैठ पाए, क्योंकि उनकी शैली में व्यंग्य था. अब व्यंग्य तो छोड़िए हमने हंसना भी छोड़ दिया है. हम मज़ाक समझना भूलते जा रहे हैं.


‘हमसे तो किसी ने कुछ कहा ही नहीं’ -  ये वो जुमला है जो एक टीवी सीरियल का किरदार, हर बात पर रूठते हुए कहता है. ये जनाब उसी तरह आहत होते हैं जिस तरह भारत देश के हर परिवार में पाए जाने वाले जीजाओं या फूफाओं की कौम होती है. लोगों के आहत होने की तीव्रता में जिस तरह का इज़ाफा हो रहा है ऐसा लग रहा है पूरा भारत ही जीजा होने पर आमादा है.


पहले चुनाव में पूरा देश ही था ‘न्यूटन’ का दंडकारण्य


बुद्धिजीवी वर्ग तो वैसे ही ज़रा ज़रा में आहत हो जाता है. हिंदी साहित्य के कई स्वघोषित पुरोधा इसलिए आहत हैं क्योंकि उन्हें किसी ने कोई विशेषपंथी बता दिया जबकि वो दूसरे पंथ से लाभ उठाने के प्रयास में थे. उनके बारे में इस तरह अफवाह फैलाए जाने से उनकी विदेश यात्रा में रोड़ा आ गया, फैलोशिप मिलने से रह गई और कोई पद वद भी जाता रहा. इसलिए वह आजकल हर माध्यम के ज़रिए ये बताने पर तुले हैं कि वो आहत हैं और वह जिस पंथ के बताए जा रहे हैं दरअसल वो उस पंथ के नहीं हैं. वह दरअसल यह बताना चाह रहे हैं कि उनका संबंध लाभदायक पंथ से है.


बीते कुछ सालों से कई जातियां आहत होकर देश के राष्ट्रीय राजमार्ग को अपने आंसुओं से गीला कर रही हैं, क्योंकि कोई उन्हें दलित मानने को ही तैयार नहीं हो रहा है. वह लगातार ये बोल रहे हैं कि वह पिछड़े हैं. देश कह रहा है कि नहीं आप विकसित हो रहे हैं. देश विकास कर रहा है. इस बात से वह नाराज़ हैं. उनका कहना है कि उन्हें पिछड़ा माना जाए. खुद को पिछड़ा बनाने कीचाहत में उन्होंने देश का ही कबाड़ा कर दिया.


सरकार तो सभी से आहत हो रही है. जनता है कि आजकल उनकी सुन ही नहीं रही है. घड़ी-घड़ी में आंदोलन लिए खड़ी हो जाती है. माननीय न्यायालय है तो वह उनको चेताता रहता है कि ये नहीं, ये सही, मानो सरकार पूरी तरह राज-नैतिक अनपढ़ हो.


तेंदुलकर को भारत रत्न नहीं दिया जा रहा था तो पूरा देश आहत था. जब दे दिया गया तो लोग बुरा मान गए कि इतनी जल्दी क्यों मचाई. ध्यानचंद पर भी ध्यान जाना चाहिए था. सुनने में आया है कि भारत रत्न नहीं मिल पाने की वजह से आहतों की सूची भी बन चुकी है. कोई पार्टी अपने उस नेता को भारत रत्न न दिए जाने पर दुखी है जो अगर खुद होश में होते तो अपने दुखी होते कार्यकर्ताओं पर दुखी हो जाते. तो कई लोग अलग-अलग नज़र से अपने बड़ो को भारत रत्न की नज़र से देखने लग गए हैं.


बीमार, बीमारी से नहीं, आत्महत्या से मर रहा है!


फिल्मी कुनबे में तो कई यह सोचकर आहत हैं कि हमारे क्षेत्र में तो रिटायरमेंट का प्रावधान ही नहीं होता है तो हम कभी भारत रत्न नहीं पा सकते हैं. कई हस्तियों पर तो रिटायरमेंट ले लेने का सामाजिक दबाव भी पड़ने लग गया है. इन दिनों अनेक धार्मिक संगठन और उनसे जुड़ी जनता भी काफी आहत है. वैसे ‘धार्मिक’ शब्द जिनके साथ जुड़ जाता है उन्हें आहत होने का फ्री पास मिल जाता है. फिर फिल्मवालों की तो नियति है कि वो कुछ करेंगे, कहेंगे, बनाएंगे, लिखेंगे और लोग आहत होंगे. पद्मावती इसका ताज़ा उदाहरण है.


कुछ सालों पहले गुलज़ार साहब ने भी ‘रात की मटकी ऐसी फोड़ी’ जिसने एक जाति विशेष का दिल निचोड़कर रख दिया. निचुड़े हुए दिल को लेकर जाति विशेष ने विरोध जताया और विशेष जाति के अस्तित्व को गाने से मिटा दिया गया. माधुरी जी भी ‘आजा नचले’ कहते हुए नाचते-नाचते किसी जाति विशेष को दूसरी जाति विशेष में घुसाने पर तुल गईं थी, बाद में उस आहत जाति कोगाने से हटाकर उन्हें राहत दी गई. आमिर ख़ान ने तो ऐसा कुछ कहा, जिसने पूरे देश को आहत किया और लोगों ने उनको देश से निकल जाने तक के लिए कह दिया. ब्रांड अंबेसडरी गई सो अलग.


आहत होने की प्रबलता जिस गति से बढ़ रही है उसे देखते हुए लग रहा है कि भविष्य में आहत लोगों की संख्या में बड़ा इज़ाफा देखने को मिल सकता है.


इस लेख को लिखने से पहले मैं भी काफी आहत था क्योंकि जिन लोगों ने मुझसे अलग अलग माध्यम के लिए कुछ कुछ लिखवाया था. उनमें से कई मेरे कहने पर भी पैसा नहीं बढ़ा रहे थे और कई तो दे ही नहीं रहे थे. लेकिन जैसे ही मैंने उनके सामने अपनी बात रखी तो मेरी बात सुनकर वह मुझसे ज्यादा आहत हुए और उनमें से कई ने मेरे पहले लिखे लेखों की आलोचना कर दी, कई ने नए लेख को नहीं लेने पर असमर्थता जता दी और कई इतने आहत हैं कि उन्होंने मुझसे बात ही करना बंद कर दिया और साथ में पुराना पैसा भी मुआवज़े के तौर पर रख लिया. उन्हें इस कदर आहत हुआ देखकर मेरी आहत होने की चाहत धरी की धरी रह गई है. और अब मैं सोच रहा हूं, ठीक है कोई बात नहीं जाने भी दो यारो.


(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)