आपातकाल की याद- एक और नसबंदी ने पासा पलट दिया
1974 में मध्यप्रदेश की विधानसभा में दिए गए उनके एक भाषण की प्रति भी हाथ लगी, जिसमें उन्होंने जेपी को राष्ट्रद्रोही बताते हुए गिरफ्तार करने की मांग की थी. बाद में एक बार उनसे मैंने पूछा कि जिन जयप्रकाश नारायण ने जोशी-यमुना-श्रीनिवास का नारा दिया था उन्हें ही बाद में आपने राष्ट्र द्रोही बताया इस पर तिवारी जी ने जवाब दिया था कि मैं राजनीति में दोहरी प्रतिबद्धता पर यकीन नहीं करता, तब सोशलिस्टी था अब कांग्रेसी हूं.
पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी यदि सरकारी आयोजन न होते तो पब्लिक इन्हें कब का भुला चुकी होती. लेकिन आपातकाल पर मेरे दो नजरिए हैं, एक- जो मैंने देखा, दूसरा जो मैंने पढ़ा और सुना. चलिए पहले से शुरू करते हैं. वह स्कूली छुट्टी के दिन थे मैं गांव की स्कूल से सातवीं पास कर आठवीं में जाने के लिए तैयार हो रहा था. 25 जून को गांव में खबर पहुंची कि मीसाबंदी हो गई. शाम को लोग चौगोला बनाकर रेडियो के पास बैठकर खबरें सुनते कि इंदिरा जी ने क्या कहा. मुझे जहां तक याद है, इंदिरा जी ने कहा था कि देश आंतरिक संकट से जूझ रहा है, कुछ विघटनकारी शक्तियां देश को बरबाद करने के लिए तुली हैं, इसलिए अब संयम और अनुशासन का समय आ गया है.
दूसरे दिन से खबरें आना शुरू हो गई कि पुलिस ने गुंडों की धरपकड़ शुरू कर दी है. हमारे इलाके के कई नामी गुंडे पकड़कर जेल भेज दिए गए. कई बनियों और जमाखोरों के यहां भी छापे पड़े. पुलिस उन्हें पकड़कर थाने ले गई. इमरजेंसी की जिस तरह से शुरुआत हुई गांव के लोगों ने अमूमन स्वागत ही किया. सरकारी मुलाजिम समय पर दफ्तर जाने लगे, मास्टर स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने लगे. अपने गांव के ही दो सरकारी मुलाजिम जो शहर में दफ्तर में बाबू थे, दस-दस रुपए की घूस लेते हुए पकड़े गए और मुअत्तल कर दिए गए. मीसा की दहशत का आलम यह था कि खेतों में काम करने वाले हरवाह भी पूरे वक्त मेहनत करते, क्योंकि उनके किसान मालिक यह कहते हुए धमकाते थे कि कामचोरी करोगे तो पुलिस मीसा में बंद कर देगी. गांव से शहर जाने वाली बसें इतनी पाबंद हो गईं कि उनके आने-जाने पर आप घड़ी मिला लें.
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कुल मिलाकर इमरजेंसी की जो पहली छाप पड़ी वह पटरी से उतरी व्यवस्थाओं को ठीक करने की थी. हां गांव में यह खबरें आ ही नहीं पाती थीं कि कहां से किस नेता को किस गुनाह में गिरफ्तार किया गया. गांव के आसपास रहने वाले छुटभैया नेताओं के यहां जब पुलिस पूछताछ के लिए या गिरफ्तार करने पहुंचती तो जरूर चर्चा शुरू होती कि मीसा तो गुंडों को पकड़ने के लिए है, लेकिन नेताओं को क्यों पकड़ा जा रहा है. गांव की चौपालों में शुरू हुई फुसफुसाहट बाद में चर्चाओं में बदल गई कि इंदिरा जी अपने और अपनी पार्टी के विरोधियों को भी ठिकाने लगा रही हैं.
अपना विंध्य शुरू से ही समाजवादियों का गढ़ रहा है. डॉक्टर. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का यहां बहुत प्रभाव था. आपातकाल के पहले इंदिरा जी के खिलाफ अभियान का नेतृत्व जेपी ही कर रहे थे लिहाजा पूरे मध्यप्रदेश में जेपी आंदोलन का सबसे ज्यादा ही असर इसी क्षेत्र में था. यहां के युवा और छात्र जेपी के आंदोलन से जुड़े. उन दोनों अखबारों में पहले से आखिरी पेज तक इंदिरा जी की तारीफ और एक ही जादू- कड़ी मेहनत, दूरदृष्टि, पक्का इरादा जैसे उपदेशक नारे छपते थे. संजय गांधी की फोटो और उनके भाषण इसी दौरान अखबारों में पढ़ा. यह भी जाना कि ये इंदिरा गांधी के बेटे हैं.
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हमारे इलाके के दो बड़े नेता थे श्रीनिवास तिवारी और यमुनाप्रसाद शास्त्री. तिवारी जी 1972 में सोशलिस्ट छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो चुके थे. वे हमारे मनगंवा क्षेत्र से विधायक भी थे. वे क्षेत्र में कांग्रेस के लिए सभाएं कर रहे थे और जनता को अपने भाषणों में बता रहे थे कि देश के भीतर किस तरह विघटनकारी तत्व काम कर रहे हैं. कई सभाओं में उन्होंने जयप्रकाश नारायण के खिलाफ भी भाषण दिए. यह बाद में जाना कि तिवारी जी सोशलिस्ट में जेपी के शिष्य रहे हैं.
1974 में मध्यप्रदेश की विधानसभा में दिए गए उनके एक भाषण की प्रति भी हाथ लगी, जिसमें उन्होंने जेपी को राष्ट्रद्रोही बताते हुए गिरफ्तार करने की मांग की थी. बाद में एक बार उनसे मैंने पूछा कि जिन जयप्रकाश नारायण ने जोशी-यमुना-श्रीनिवास का नारा दिया था उन्हें ही बाद में आपने राष्ट्र द्रोही बताया इस पर तिवारी जी ने जवाब दिया था कि मैं राजनीति में दोहरी प्रतिबद्धता पर यकीन नहीं करता, तब सोशलिस्टी था अब कांग्रेसी हूं. आपातकाल के सवाल पर अन्य समाजवादी पृष्ठभूमि के कांग्रेसी नेताओं के विपरीत तिवारीजी पूरी ताकत के साथ इंदिरा जी के फैसले के पक्ष में थे.
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दूसरे नेता थे यमुनाप्रसाद शास्त्री. वे सिरमौर से अपने ही शिष्य कांग्रेसी युवा राजमणि पटेल के हाथों चुनाव गंवा चुके थे. शास्त्री जी की एक आंख गोवा में पुर्तगालियों के दमन में ही जा चुकी थी दूसरी आंख में भी तकलीफ शुरू हो चुकी थी, उसका इलाज चल रहा था, इसलिए वे गिरफ्तारी से बचे रहे. शास्त्रीजी बीमारी हालत पर भी आपातकाल के खिलाफ सक्रिय थे. उनके गृहगांव सूरा का घर अंडरग्राउंड फरारी काट रहे नेताओं की शरणस्थली रहा. शास्त्रीजी के पुत्र देवेन्द्र से उन्हीं दिनों मेरी मित्रता हुई. कम लोगों को ही मालूम होगा कि 74-75 में नेपाल के प्रमुख नेता गिरजा प्रसाद कोयराला का परिवार सूरा में ही शरण लिए हुए था. नेपाल में भी भारत जैसे हालात थे. इंदिरा सरकार द्वारा बड़ौदा डायनामाइट केस के मुजरिम बनाए गए जार्ज फर्नांडिस ने भी यहीं महीनों फरारी काटी थी.
बाकी जितने भी सोशलिस्टी और जनसंघी थे सब जेल में थे. एक दर्जन से ज्यादा युवा छात्र ऐसे भी थे जो कॉलेज में फर्स्ट इयर पढ़ रहे थे, जेल भेज दिए गए. कइयों के परिजनों को छह महीने बाद खबर लगी कि वे जेल में हैं. आपातकाल की गिरफ्तारी में पूरा समाजवाद था, नेता, गुंडे, चोर-उचक्के, कालाबाजारिए सभी जेल में एक भाव थे. बाद में उनमें से कइयो में ऐसा ट्रांसफॉर्मेशन हुआ कि वे जेल तो गए गुंडे के रूप में निकले नेता बनकर. जिन्हें बाद में टिकट भी मिली और वे फिर नेता बन गए. आज उन सबों को केंद्र व राज्य सरकारें अच्छा खासा पेंशन दे रही हैं.
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बहरहाल, एक दिन गांव में खबर फैली की रीवा सेंट्रल जेल में गोली चली है और सबके सब मीसाबंदी मार डाले गए. खबर की पुष्टि का कोई आधार भी नहीं था. अखबार साफ-साफ कुछ नहीं लिखते थे. धीरे-धीरे खबर साफ हुई कि जेल में रीवा कलेक्टर धर्मेंद्रनाथ को मीसाबंदियों ने लात जूतों से जमकर पिटाई की. वजह यह कि कलेक्टर ने जेल में अव्यवस्थाओं को लेकर अनशन पर बैठे समाजवादी नेता कौशल प्रसाद मिश्र के साथ बदसलूकी कर दी, जिससे गुस्सा कर उनके अनुयायियों ने कलेक्टर की पिटाई कर दी थी. भला हो उस एसपी का जिसने गोली चलाने के कलेक्टर के आदेश को मानने से मना कर दिया वरना गांव में पहुंची कत्लेआम की वह खबर बिल्कुल ही सच साबित होती.
बहरहाल, लगभग सभी मीसाबंदियों को कड़ी यातनाएं दी गई. रात को कंबल परेड हुई, दूसरे दिन दुर्दांत अपराधियों की तरह आडा-बेड़ी लगाकर प्रदेश की दूसरी जेलों में शिफ्ट किया गया. इस घटना का पूरा ब्योरा 1978 में रीवा के ऐतिहासिक व्येंकट भवन में तब सुनने को मिला जब यहां इमरजेन्सी के जुल्मों की सुनवाई करने शाह कमीशन आया था.
सन् 76 में मैं नवमी पढ़ने गांव से शहर आ गया. रीवा के माडल स्कूल में दाखिला मिल गया. हम देहातियों के लिए यह किसी दून स्कूल से कम न थी. पहली बार जब स्कूल परिसर में घुसा तो उसकी सफेद दीवारों पर वो नारे लिखे पटे थे जो इमरजेंसी में संजय गांधी ब्रिगेड ने गढ़े थे. हर क्लास रूम के बाहर दूर दृष्टि पक्का इरादा. दिख रहा था. स्कूल में नसबंदी वाले भी नारे लिखे थे. हम छात्र आपस में मजाक करते कि सरकार शादी करने में ही बैन लगा दे- रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी.
अखबारों में रोज नसबंदी शिविरों की खबरें पढ़ते थे. बढ़चढ़कर आंकड़े आते थे कि संजय गांधी की प्रेरणा से गांव के गांव ने नसबंदी करा ली. पटवारी, कानूनों खसरा खतौनी छोड़कर नसबंदी का लक्ष्य हांसिल करने में भिड़े थे. कांग्रेस के नेता लोग नसबंदी शिविरों का उद्घाटन करते थे और नसकटवाए लोगों के साथ मुसकराते फोटो खिंचवाकर छपवाते थे. अखबारों में पूरा रामराज चल रहा था. पर फुसफुसाहट के साथ ये खबरे आने लगीं कि जबरिया नसबंदी की जा रही है. जिले में ही कई कुंवारों की नसबंदी कर दी गई. मुझे याद है वो वाकया कि मेरे एक परिचित पटवारी के यहां पति-पत्नी बंटवारे की पुल्ली लेने आए. पटवारी साहब को कुछ रिश्वत देने लगे तो उन्होंने मना करते हुए कहा- पहिले कटवारा फेरि बंटवारा. याने कि पहले दोनों नसबंदी करवा लो फिर बँटवारा की पुल्ली फोकट में दे देंगे.
संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रम कलेक्टरों के लिए ब्रह्मवाक्य की तरह थे. नसबंदी भी एक सूत्र था. इस सूत्र ने देशभर के हजारों, लाखों कुँवरों और बे औलादों की नसबंदी करवा दी. एक भय का माहौल पैदा हो गया कि किसी को पकड़कर कहीं भी नसबंदी की जा सकती है. इमरजेंसी को इस सूत्र ने आम जनता के बीच सबसे ज्यादा बदनाम किया. मेरा मानना है कि यदि नसबंदी कार्यक्रम को जनजागरण के साथ तरीके से व्यवहार में लाया जाता तो आम जनता तमाम स्थितियों के बाद भी इंदिरा जी के साथ खड़ी होती. उसे नेताओं की गिरफ्तारी और प्रेस सेंसरशिप से भला क्या लेना देना... दफ्तर में घूस बंद थी, सब समय पर हो रहा था, रेल बसें टाइम से चलती थीं, गुंडों सरहंगों का भय खत्म था, बनिये लूटने और मिलावटखोरी से डरने लगे थे. प्रारंभ में आम जनमानस में इमरजेंसी ने कुलमिलाकर यही प्रभाव छोड़ा था.
शहरों में अवैध कब्जों के हटाने का अभियान चला. लक्ष्य था कि सार्वजनिक भूमि को सरहंगों और प्रभावशाली व्यक्तियों से मुक्त किया जाएगा. हमारे शहर में जब यह अभियान शुरू हुआ तो सबने प्रशासन के इस कदम को सिरमाथे पर लिया. पर कुछ दिन बाद ही लोग देखने लगे कि प्रभावशाली और काँग्रेस के लोगों के अवैध कब्जे छोड़े जा रहे हैं. गरीब-गुरवे जो ठेला-गुमटी लगाकर पेट पाल रहे थे म्युनिसिपैलिटी के लोग उन्हें उलटाने पलटाने तक सीमित हो गए तो इमरजेंसी का अर्थ कुछ-कुछ समझ में आने लगा. अपने शहर में सड़क को कब्जियाकर किए गए एक पक्का अतिक्रमण इसलिए नहीं तोड़ा जा सका क्योंकि वह प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल के रिश्तेदार का था. जनता को धीरे-धीरे ये बातें समझ में आने लगीं और वह व्यवस्था के खिलाफ मन मसोसने लगी.
ऊपर से लेकर नीचे तक कांग्रेस के नेता मस्त थे कि जनता उनके साथ है. अखबार उनकी पार्टी की सरकार की जयजयकार कर रही है. देवकांत बरुआ का नारा 'इंदिरा इज इंडिया' चौतरफा गूँज रहा था. कांग्रेस की बड़ी रैलियां और सभाएं होतीं. वही भीड़ अखबारों में छपती पर वो भीड़ कहाँ से जुटती थी नौवीं पढ़ते हुए यह मेरी अपनी आप बीती थी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)