तभी पानी की कुछ बूंदें मेरे माथे पर पड़ीं,
‘‘बारिश शुरू हो गई है, सर निकल चलिए’’ साथी इंजीनियरों ने कहा,
‘‘बारिश के मौसम में पहाड़ी नदियों पर भरोसा नहीं किया जा सकता.’’
‘‘मनुष्य का किस मौसम में किया जा सकता है,’’
यह उनसे पूछना बेकार था.
 - नरेश सक्सेना

मुशायरों का एक नियम होता है कि जब कोई शेर या नज्म सदारत कर रहे शायर की निगाह में इतनी उच्चता लिए होती है कि उस दिन उसके हिसाब से अब इससे आगे कुछ कहा नहीं जा सकता तो वह मुशायरे को वहीं रोक देता है और सभा वहीं खत्म हो जाती है. हम चाहें तो केरल में आई बाढ़ और तबाही को लेकर भी ऐसा किया जा सकता है.


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भारतीय रिजर्व बैंक के अंशकालिक निदेशक और स्वदेशी जागरण मंच के सह समन्वयक एस. गुरुमूर्ति के हालिया बयान को ध्यान में लें, तो यह साफ हो जाता है कि सबसे पहले इस देश के सर्वोच्च न्यायालय को विघटित कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि उसी की वजह से या उसके निर्णय की वजह से केरल को इस प्रलय का सामना करना पड़ा है.


गुरुमूर्ति का मानना है कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश होने के कारण केरल पर मौसम का कहर बरपा है. वे कहते हैं, ‘‘सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को यह देखना चाहिए कि क्या केरल में विनाशकारी बारिश और सबरीमाला मामले में जो हो रहा है उसके बीच कोई संबंध है? यहां तक कि अगर लाखों में से किसी एक मौके के साथ भी इसका संबंध होता है तो लोग अयप्पा के खिलाफ मुकदमा पसंद नहीं करेंगे.’’



अब आप ही बताइए अगर भगवान ही नाराज हैं, तो न्यायाधीशों और मुकदमा दायर करने वालों को व्यक्तिगत तौर पर भी सजा दे सकते थे. उनके कर्मों (या कुकर्म) की सजा लाखों-करोड़ों केरलवासियों को क्यों दी? क्या यह न्यायप्रणाली के प्रति अविश्वास पैदा करने वाला कदम नहीं कहलाएगा? इस बयान को आधार मानें तो उत्तर भारत में आने वाली प्रत्येक आपदा के पीछे एक तरह से यह पूर्व चेतावनी है कि बाबरी मस्जिद-राम मंदिर मामले में क्या निर्णय दिया जाए.


वैसे एस. गुरुमूर्ति उत्तराखंड में आए विप्लव, जिसमें 10,000 से ज्यादा लोग मारे गए थे, के लिए कौन से मुकदमे या कितनी महिलाओं को दोषी ठहरा रहे हैं? यह बात करना इसलिए आवश्यक है कि ऐसे संकटपूर्ण समय में जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग यदि इतनी सतही बात कर रहे हैं तो उन्हें उनके पद से तुरंत हटाया जाना चाहिए.


ईश्वरीय कोप को भुलाकर हम वास्तविकता या मानवीय कर्म और कृत्य पर लौटते हैं और तीन घटनाओं या परिस्थितियों को एक साथ देखने का प्रयास करते हैं. पश्चिमी घाट जो कि सहायाद्रि भी कहलाता है, 6 राज्यों गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु एवं केरल में फैली पर्वत श्रृंखला है. इसकी लंबाई 1600 किलोमीटर है. वैसे तो इसका कुल क्षेत्रफल 1,29,037 वर्ग किलोमीटर है लेकिन यदि अधिक व्यापकता में देखें तो यह 1,64,280 वर्ग किलोमीटर बैठता है.इसकी सबसे ज्यादा चौड़ाई तमिलनाडु में 210 किमी और सबसे कम महाराष्ट्र में 48 किमी है.


सन् 2010 में हुई एक जनसुनवाई के बाद तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने पर्यावरणविद डॉ. माधव गाडगिल की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया, जिसका कार्य पश्चिमी घाट की पारिस्थितिकी संवेदनशीलता का आकलन करना था और इसे बचाए रखने के लिए सुझाव देने थे. उन्होंने सन् 2011 में अपनी रिपोर्ट दे दी.


इस रिपोर्ट में कहा गया था कि पूरे क्षेत्र में जीएम (जैव सवंर्धित) फसलों को प्रतिबंधित किया जाए, प्लास्टिक के उपयोग पर तीन वर्ष में रोक लगाई जाए, किसी नए विशेष आर्थिक क्षेत्र या हिल स्टेशन की अनुमति न दी जाए, सार्वजनिक भूमि को निजी भूमि एवं वन भूमि को गैर वन कार्यों में परिवर्तित करना प्रतिबंधित हो, विशिष्ट क्षेत्रों में खनन के नए लाइसेंस न दिए जाएं, इन क्षेत्रों में नए बांध न बनाए जाएं, नए ताप विद्युत गृहों एवं बड़े पवन ऊर्जा संयंत्रों को अब अनुमति न दी जाए, प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को नए लाइसेंस न दिए जाएं, कोई नई रेलवे लाइन या बड़ी सड़कें न बनाई जाएं, पर्यटन के लिए कड़े नियमन लागू किए जाएं, नई परियोजनाओं जैसे बांध, खनन, पर्यटन, भवन निर्माण के दुष्प्रभावों का पूर्व आकलन किया जाए और क्रमबद्ध तरीके से क्षेत्र से रासायनिक कीटनाशकों को (पांच से आठ वर्षों में) बाहर किया जाए.


इन अनुशंसाओं के सामने आने पर सरकारों और ठेकेदार जो कि विकास के पुरोधा हैं, में हड़कंप मच गया. तब तक जयराम रमेश का स्थान जयंती नटराजन ले चुकीं थीं. उन्होंने गाडगिल समिति की इस अनुशंसा को भी नजरअंदाज किया कि इस क्षेत्र (पश्चिमी घाट) की गतिविधियों की निगरानी के लिए एक पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी प्राधिकारी का गठन किया जाए.



छह में से किसी भी राज्य ने गाडगिल समिति की अनुशंसाओं से सहमति नहीं जताई और अंततः यह रिपोर्ट सार्वजनिक ही नहीं की गई. बाद में यह सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त हुई. दुखद स्थिति यह है कि गाडगिल समिति की रिपोर्ट पर मंथन करने की बजाए, केंद्र ने इसरो के वैज्ञानिक कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कार्यदल का गठन कर दिया जिसे कि पश्चिमी घाट पर दी गई गाडगिल समिति रिपोर्ट का व्यापक तौर पर ‘‘परीक्षण’’ करना था और राज्यों आदि की आपत्ति पर विमर्श भी.


इस समिति के समक्ष कुल 1750 प्रतिवेदन आए और उनमें से 81 प्रतिशत गाडगिल समिति की अनुशंसाओ के खिलाफ थे. सवाल उठता है कि जब रिपोर्ट सार्वजनिक ही नहीं की गई तो ये प्रतिवेदन कहां से आए और किन्होंने प्रस्तुत किए? यह उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि केरल ने रेत खनन, पत्थर खनन, अधोसंरचना परियोजनाओं और ऊर्जा परियोजनाओं पर नियमन का जबरदस्त विरोध किया था.


यहीं सवाल उठता है कि किस आधार पर माधव गाडगिल समिति की अनुशंसाओं को दरकिनार रख कस्तूरीरंगन कार्यबल को प्राथमिकता दी गई. सन् 2013 में कस्तूरीरंगन समिति ने पश्चिमी घाट का अनूठा विश्लेषण किया. उन्होंने इसे दो हिस्सों में बांट दिया. एक को सांस्कृतिक परिदृष्य (लैंडस्केप) कहा, जिसमें मानव रहवास, खेती आदि आते थे और दूसरा था प्राकृतिक लैंडस्केप. इस प्राकृतिक परिदृष्य में केवल 37 प्रतिशत क्षेत्र आता था, जो कि करीब 60,000 वर्ग किलोमीटर, यानी यहीं संवेदनशील की श्रेणी में आता था. इसमें से भी 56285 वर्ग किमी अधिसूचित किया गया. इसमें केरल का 13180 वर्ग किमी क्षेत्र आता था, परंतु केरल सरकार के दुराग्रह के चलते इसे घटाकर 9993.7 वर्ग किमी कर दिया गया.


अब दो वैज्ञानिक हमारे सामने हैं. यह भी खोज का विषय है कि कस्तूरीरंगन की पर्यावरण में कितनी विशेषज्ञता है. यह विनाश जिस नई दिशा की ओर इशारा कर रहा है, वह यह है कि वैज्ञानिकों की प्रतिस्पर्धा का क्या ऐसा कोई परिणाम हमारे सामने आएगा? वैज्ञानिकों को तो यह समझना होगा कि वे दूसरे वैज्ञानिक द्वारा सामने लाए गये तथ्यों को किस आधार पर संशोधित कर रहे हैं. वैसे कस्तूरीरंगन ने भी तमाम सुझाव दिए थे. उन्होंने ताप विद्युतगृहों पर प्रतिबंध की बात कही थी, लेकिन जलविद्युत गृहों को कुछ रुकावटों के साथ अनुमति की बात कही थी. उन्होंने 20000 वर्ग मीटर तक के भवन निर्माण की अनुमति तो दी थी, लेकिन टाउनशिप की अनुमति नहीं दी थी.


यहां से परिस्थितियां नया मोड़ लेती हैं. अब केरल की वर्तमान स्थिति पर लौटते हैं. माधव गाडगिल कहते हैं, 'केरल की तबाही मानव निर्मित है. यदि ठीक समय पर उचित कदम उठाए गए होते तो इतना विनाश नहीं होता.' वे मानते हैं कि हम एक न्यायविहीन समाज में रह रहे हैं और लचर प्रशासन हमें संचालित कर रहा है. जिस विनाशकारी ढंग से केरल में पत्थर खनन व भवन निर्माण हुआ वह वास्तव में शर्मिंदा करने वाला ही है.



इडुक्की बांध जिसकी वजह से सर्वाधिक नुकसान हुआ उसका कैचमेंट एरिया अतिक्रमण की सर्वाधिक चपेट में है. एक और घटना पर गौर करिए कोझीकोड में अवैध पत्थर खनन को लेकर नागरिकों के विरोध प्रदर्शन के दौरान खनन माफियाओं ने उन पर पथराव करने वालों को आक्रमण करने भेजा. इस पथराव में एक लड़के की मौत भी हो गई, लेकिन पुलिस ने मुकदमा दर्ज ही नहीं किया. लोग डर गए और खनन बेलगाम होता गया.


एक दूसरी समस्या बांधों को लेकर है. न.ब.आ. की वरिष्ठ कार्यकर्ता मेघा पाटकर अभी केरल में हैं. यह पूछने पर कि इस विनाशलीला में बांधों की क्या भूमिका रही है, उनका कहना है कि बांधों के गेट खोलने का कोई स्पष्ट पैमाना ही नहीं है. सारा पानी (बांधों में) बिजली बनाने के लिए ही रखा जाता है. बांधों को खाली ही नहीं किया जाता, इस वजह से उनकी पानी को समेटने की क्षमता ही नहीं रहती. कोई दिशानिर्देश हैं ही नहीं. सरकारी विभागों की मनमानी चलती है, क्योंकि उनकी कोई जवाबदारी ही नहीं बनती.


अभी मध्यप्रदेश के मंदसौर व नीमच जिलों में, बिना जिला अधिकारियों को सूचना दिए सिंचाई विभाग के अधिकारियों ने स्थानीय बांध के गेट खोल दिए, जिससे 15 से अधिक गांव डूब गए.


हमें मानना पड़ेगा कि पूरे भारत में एक सी संवेदनहीन शासन व्यवस्था है. यदि कोई देश उत्तराखंड जैसी आपदा से भी सबक नहीं लेता, तो वह केरल जैसा विनाश भुगतने को अभिशप्त है. और यदि वह अब केरल से भी सबक नहीं लेगा, तो संभवतः वह एस. गुरुमूर्ति को सही साबित करने की प्रक्रिया में चल पड़ा है. पानी एक जीवंत तत्व है और उससे उसी तरह व्यवहार करना चाहिए.
उम्मीद कम ही है कि हम केरल से कोई सबक सीखेंगे. यदि नहीं सीखा तो?


नरेश सक्सेना लिखते हैं...


‘‘पानी के प्राण मछलियों में बसते हैं/आदमी के प्राण कहां बसते हैं,
दोस्तों, इस वक्त, कोई कुछ बचा नहीं पा रहा,
किसान अन्न को/अपने हाथों से फसलों को आग लगाये दे रहा है,
माताएं बचा नहीं पा रहीं बच्चे/उन्हें गोद में ले/कुंओं में छलांगें लगा रही हैं.’’

... तो फिर क्या और कुछ कहा जा सकता है?


(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)