सुबह का वक्त है, छत की मुंडेर पर बैठा हुआ नायक बोलता है, 'उसे अपने आप को बदलना होगा, जिंदगी ऐसे तो नहीं चल सकती, कभी तो बदलेगी, ऐसा कैसे हो सकता है कि रात ही रात चलती रहे और सवेरा ना हो, ये तो नहीं हो सकता मेम साहब.' तभी दूर उगते हुए सूरज के पास कुछ चलता हुआ दिखाई देता है. धीरे-धीरे दृश्य साफ होता है और सामने सैंकड़ों बैलगाड़ियां और उस पर बैठे हुए हजारों किसान नज़र आते हैं. नायिका देखती है औऱ नायक से बोलती है, 'वो देखो आज़ाद सामने गांव में सवेरा हो रहा है.' 'मैं आज़ाद हूं' फिल्म का यह दृश्य मुंबई में बैठी सत्ता और वहां के बाशिंदों ने दोबारा जीवित होते हुए देखा. जब 25 हज़ार से अधिक किसान अनुशासित तरीके से नासिक से 180 किमी का सफर करते हुए बेहद शांत तरीके से मुंबई पहुंचे. पैरों में पड़े हुए छाले और उनसे रिसता हुआ खून इन किसानों का दर्द बयान कर सकता था. लेकिन, मजाल है कि सड़कों पर एक साइकिल जाने का रास्ता भी जाम हुआ हो. इनकी आंखों के आंसू अब सूख चुके हैं. खेतों पर जूझता हुआ यह किसान जो कभी मौसम की मार झेलता है तो कभी वादों के तीर खाता है. अब चुप हो चुका है, लेकिन उसके हौंसले है कि पस्त होने का नाम ही नहीं लेते हैं. वो चुपचाप बस चला जा रहा है. शायद वो हार मानना नहीं जानता है. मुंबई में बैठे सत्ताधारियों को शायद उनकी चुप्पी से घबराहट हो गई है. 25 हज़ार लोगों की कतारबद्ध यात्रा जो शांति से अपने विरोध का प्रदर्शन करने पहुंची, उसका इतना शांत रवैया अच्छी भली सत्ता को हिलाने के लिए काफी होता है. 


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कृषि प्रधान कहे जाने वाले हमारे देश के किसान कभी सुक्खी लाला के सूद को भुगतता है औऱ डाकू बनने पर मजबूर हो जाता है. तो कभी अपनी दो बीघा ज़मीन को बचाने के लिए शंभू कोलकाता में रिक्शा चलाने लग जाता है. शंभू जब घर से निकला तो अपनी दो बीघा ज़मीन को बचाना चाहता था. वो वापस आने की उम्मीद से निकला था, वो वापस भी लौटता है, लेकिन उसकी ज़मीन नहीं लौट पाती है, क्योंकि वो किसी मिल मालिक के पास विकास के लिए चली गई थी. किसानों की लगातार बदतर होती हालत का ही नतीजा है कि देश के लाखों शंभू ऐसे हैं जो आज अपने खेतों को छोड़कर इसलिए जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें अब अपनी ज़मीन में उम्मीद के अंकुर फूटते हुए नज़र ही नहीं आते हैं. 


हाल ही में सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़ की शोध में पाया गया है कि कम कमाई, हताश करता भविष्य और खेती से जुड़े तनाव के चलते अधिकांश किसान किसानी छोड़कर दूसरा काम करने का मन बनाने लगे हैं. 18 फीसदी किसानों ने यह भी माना कि खेती सिर्फ पारिवारिक दबाव के चलते ही कर रहे हैं. 


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इन किसानों में से ज्यादातर शहर में जाकर कुछ काम करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि वहां उनके बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा की व्यवस्था है, स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं कम हैं और रोज़गार के भी ज्यादा मौके हैं. किसानों का मानना है कि लगातार हो रहे नुकसान, मौसम की मार, फसलों के सही दाम नहीं मिलने की वजह से वो लोग ऐसा सोचने पर मजबूर हो रहे हैं. दरअसल, भारत जिसे कभी कृषि प्रधान देश कहा जाता था, वहां धीरे-धीरे किसान इस कदर हाशिए पर चला गया है कि जिस कृषि का एक वक्त जीडीपी में सबसे बड़ा योगदान हुआ करता था. आज वो घटकर सबसे कम पर पहुंच गया है. पिछले कुछ सालों से किसानों का रोष खेत से उभरकर रोड तक पहुंच गया था. 


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ऐसा पहली बार नहीं है जब किसानों ने अपनी मांगों के लिए कोई प्रदर्शन किया हो. साल 2007 की बात है, आगरा के पास सड़क के किनारे हज़ारों लोग लंबी कतार में धीरे-धीरे चल रहे थे. वो जब थक जाते थे तो वहीं किनारे बैठकर सुस्ता लेते थे. खेतों में रोटी प्याज और नमक खाने वाले किसान को शायद भूख का डर नहीं होता है. न ही उनके बच्चे भूख के मारे रोते हैं. ये किसान चुपचाप ग्वालियर से 400 किलोमीटर की यात्रा करके दिल्ली पहुंचे थे. एकता परिषद के अध्य़क्ष पीवी राजगोपाल के नेतृत्व में निकाली गई इस यात्रा में गजब का अनुशासन देखने को मिला था. इतनी खामोशी से इतना सधकर इतनी बड़ी भीड़ का चलना एक चमत्कार ही है. जब ये यात्रा 2007 में दिल्ली पहुंची तब भी ज़मीन के हक को लेकर लड़ने वाले किसानों, आदिवासियों को एक दिलासा मिली. उसी उम्मीद के भरोसे ये वापस अपने घर लौट गए की शायद उनके पैरों की बिवाइयां उनके घरों के चूल्हों को कुछ आग दे पाएगी.. लेकिन, नतीजा सिफर निकला. किसानों ने एक बार फिर 2012 में जनसत्याग्रह यात्रा निकाली. उस दौरान भी किसानों को महज़ चंद वादे मिले, जिनके भरोसे वो फिर अपने खेतों को सींचने मे जुट गया. लेकिन, सत्ता के वादों के बीज खोखले होते हैं. उनसे उम्मीद की फसल उगाई तो जा सकती है, लेकिन काटी नहीं जा सकती है. 2007 में जब यात्रा निकली तो 25 हज़ार लोग इसमें शामिल थे. 2015 में ये संख्या बढ़कर एक लाख तक पहुंच गई. एकता परिषद के गांधीवादी नेता पीवी राजगोपाल के इस आंदोलन में किसान, आदिवासी मजदूर, मछुआरा और हर हाशिए पर पड़ा इंसान शामिल थे.


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दरअसल, इन आंदोलन की जड़ों को समझना बेहद ज़रूरी है. यह लड़ाई महज़ किसान के हक की नहीं बल्कि उनके अस्तित्व की लड़ाई है. एक मछुआरा समुद्र के लिए लड़ रहा है, नदी के लिए लड़ रहा है. एक आदिवासी जो वनोपज पर जीवित है, वो जंगल के लिए लड़ रहा है. एक किसान अपनी ज़मीन को रियल स्टेट के हाथों में पड़ने से रोकने के लिए लड़ रहा है. खास बात ये है कि ये सब विकास के लिए हो रहा है. हम आदिवासी से जंगल छीनकर उसे विकास के नाम पर किसान बना रहे हैं या ज़मीन की कीमत दे रहे हैं. एक किसान से हरे भरे खेतों को छीनकर उसे उसकी कीमत दे दी जाती है, लेकिन उनसे उनका रोज़गार छीन लिया जाता है. उनके अस्तित्व को खत्म कर दिया जाता है. जो रोज़गार उनसे छिनता है उसकी क्या कीमत हो सकती है? उस नदी, समुद्र, जंगल खेत की क्या कीमत आंकी जा सकती है? 


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अब नासिक से चलकर जो 25 हज़ार किसान मुंबई पहुंचे, दरअसल इनमें भी अधिकतर अपने अस्तित्व को बचाने के लिए वहां पहुंचे हैं. वो नहीं चाहते कि वो अपनी जड़ों से पलायन करें और किसी अंजान शहर में अपने पेट को पालने के लिए शंभू की तरह रिक्शा चलाए. जब आगरा एक्सप्रेस वे निर्माण के चलते किसानों के खेतों का अधिग्रहण किया गया था और एक्सप्रेस वे के इर्द-गिर्द की ज़मीन एक नामी-गिरामी बिल्डर को औने पौने दाम में दे दी गई थी. उस दौरान एक लहराते हुए खेत में बैठे हुए किसान से जब पूछा गया कि अपनी ज़मीन क्यों बेच रहे हो? तो उसने बस इतना ही कहा था, 'हमने कहां बेची, अपनी मां को भी कोई बेचता है.' 


आज वही किसान जिसके खेत सूखे पड़े है और जो कर्ज के बोझ से लदा हुआ है. जिसके पीठ और पेट एक हो गए हैं. जो अपने भविष्य को उन खेतों की तरह देख रहा है, जिसमें दरारें पड़ गई हैं. वो अपनी बढ़ती उम्र में भी पैरों के घावों की परवाह किए बगैर अगर अनुशासित तरीके से अपना आंदोलन कर रहा है तो सरकारों को इस पर गंभीर हो जाना चाहिए. वरना तो हमें ध्यान रखना चाहिए कि श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी की फिल्मों के पात्र या महाश्वेता देवी की कहानियों के चरित्रों को बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है.


(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)