हॉकी के जादूगर दद्दा ध्यानचंद. भारतीय हॉकी की शान. भारत के आजाद होने से दुनिया भर में भारतीय खेलों का नाम और मान हॉकी और सिर्फ हॉकी रही. ध्यानचंद ने भारत को आजादी से पहले 1928, 1932 और 1936 -लगातार 3 ओलंपिक में स्वर्ण पदक दिलाए. कुल 3 ओलंपिक गेम्स में ध्यानचंद ने भारत के लिए कुल 39 गोल किए. विश्व युद्ध के चलते 1940 और 1944 के ओलंपिक नहीं हुए अन्यथा ध्यानचंद संभवत: लगातार 5 ओलंपिक में भारत को स्वर्ण पदक जिताने का रिकॉर्ड बना देते. 


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आजादी से खेलों में दुनिया में भारत की पहचान हॉकी और सिर्फ हॉकी थी. भारत को खेलों में  पहचान दिलाने वाले थे केवल और केवल हॉकी के जादूगर ध्यानचंद. ध्यानचंद की हॉकी का जादू ऐसा था कि हर किसी के सिर चढ़ कर बोलता था. उन्हें जानने की जितनी कोशिश करेंगे उतने ही उनके मुरीद होते चले जाएंगे. भारत ने ओलंपिक में हॉकी में 8वीं और आखिरी बार गोल्ड मेडल 1980 में मास्को ओलंपिक में जीता. 1980 के बाद से ओलंपिक में हॉकी में सुनहरा तमगा जीतना भारतीय हॉकी टीम के लिए एक सपना ही बन कर रखा गया.  


भारतीय हॉकी आज अपना खोया गौरव पाने के लिए जूझ रही है. बावजूद इसके ध्यानचंद का नाम आज भी दुनिया के सर्वकालीन महानतम हॉकी खिलाड़ी के रूप में दुनिया अमर है. उनकी हॉकी की कलाकारी के किस्से आज भी भारतीय हॉकी के स्वर्णिम अतीत की मधुर स्मृतियां बार -बार दिलाते हैं. 29 अगस्त, 1905 को इलाहाबाद में जन्में हॉकी के महानायक ध्यानचंद की आज115 वीं जयंती है.


विश्व मंच पर फिसलती हॉकी का दर्द लिए आर्थिक अभावों का दर्द लिए ध्यानचंद 3 दिसंबर, 1979 को दुनिया को अलविदा कह चले गए. यह भले ही कड़वा लगे लेकिन भारतीय हॉकी को ध्यानचंद की विरासत को सहेज कर नहीं रख पाने का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है . ध्यानचंद ने हॉकी स्टिक फौज में नौकरी करने के बाद संभाली. वहां बाले तिवारी के रूप में काबिल गुरू से हॉकी के गुर सीखने के बाद उन्होंने पलट कर कभी पीछे नहीं देखा. 


दद्दा ध्यानचंद और उनके गुरु बाले तिवारी का जिक्र इतिहास के सबसे काबिल गुरु-शिष्य के रूप में किया जा सकता है. ध्यानचंद ने अपने कौशल को चांद की दूधिया रोशनी में मांझा. सच तो यह है कि ध्यानचंद की हॉकी की कलाकारी और उसके प्रति निष्ठा ने उन्हें इस खेल का महानायक बना दिया. आज कोई खिलाड़ी सुर्खियों में आया नहीं कि लोग उसे लेजेंड कहने लगते हैं. हकीकत तो यह है कि लीजेंड और महानायक हर खेल में एक से ज्यादा अमूमन नहीं ही होते हैं. 


फुटबॉल में महानायक कहलाने के हकदार पेले, क्रिकेट में सर डॉन ब्रैडमैन हैं तो हॉकी में केवल एक और अकेले ध्यानचंद ही हैं. हॉकी में ध्यानचंद ने दुनिया में कामयाबी की जो दास्तां लिखी वह ऐसी है कि आज भी हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है. उनके मुरीदों ने उन्हें हमेशा अदब से दद्दा के नाम से ही पुकारा. उनकी हॉकी की कलाकारी ने उन्हें हॉकी का जादू बनाया, उनजैसा हॉकी कलाकार न तो हुआ और न ही होगा. वह जितने महान खिलाड़ी थे उतने ही आला इंसान. 


ध्यानचंद की कप्तानी में भारत ने 15 अगस्त, 1936 को बर्लिन ओलंपिक में मेजबान जर्मनी को फाइनल में 8-1 से हराकर ओलंपिक हॉकी में खिताबी तिकड़ी पूरी की. ध्यानचंद की हॉकी की कलाकारी का जादू तो 1936 के बर्लिन ओलंपिक में जर्मनी के हिटलर सरीखे जिद्दी शासक तक के सिर पर चढ़कर बोला. उनकी हॉकी की कलाकारी को आज भी दुनिया सलाम करती है. बतौर हॉकी विश्लेषक 4 दशक तक ध्यानचंद के हॉकी कौशल और उनके करीबी रहे लोगों से उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की शिद्दत से कोशिश की.


इनमें से हर कोई मुझे ध्यानचंद की हॉकी के प्रति निष्ठा का कायल दिखा. दद्दा का एक साधारण फौजी से हॉकी के महानायक बनने का सफर आज भी हॉकी को अपनाने वाले युवा हॉकी खिलाड़ी के लिए सबसे बड़ी प्रेरणा हो सकते है. ध्यानचंद अपनी पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत रहे ही हॉकी में आने वाली पीढिय़ों भी हमेशा प्रेरणास्रोत रहेंगे. उनके समकालीनों में अब कोई भी बाकी नहीं हैं. 


भारत के सबसे बुजुर्ग जीवित हॉकी खिलाड़ी 1948 औार 1952 के  ओलंपिक के स्वर्ण पदक विजेता 94 बरस के केशव दत्त हैं. वह ध्यानचंद के हॉकी कौशल के मुरीद और उनके प्रेरित रहे. हॉकी में किसी एक खिलाड़ी विशेष की कामयाबी एक दो मैच जरूर जिता सकती है लेकिन किसी ओलंपिक और वर्ल्ड कप जैसे बड़े टूर्नामेंट में कामयाबी के लिए पूरी टीम का एकजुट होना जरूरी है. इस लिहाज से हर टीम को टीम-मैन की जरूरत सबसे ज्यादा होती है. 


ध्यानचंद ने अपने उस्ताद बाले तिवारी की इस बात को शुरू में ही गांठ में बांध लिया कि बेवजह ड्रिब्लिंग का कोई मतलब नहीं है. असली खिलाड़ी वही है जो टीम की जरूरत और मैच के मिजाज के मुताबिक खेले. उन्होंने अपनी ड्रिब्लिंग का कभी बेवजह इस्तेमाल नहीं किया. वह बेवजह कभी भी गेंद से चिपके नहीं रहे. उन्होंने खुद गोल करने का लोभ से बचते हुए हमेशा उस साथी की ओर गेंद बढ़ाई जो डी-एरिया में गोल करने के लिए सबसे बेहतर स्थिति में दिखा. 


साथ ही सीधे गोल में शॉट जमाने के बजाए वह हमेशा गोलरक्षक को गच्चा देकर गोल करने की कोशिश करते थे. यही कारण है कि अपने साथी फॉरवर्ड से गोल करने के मामले में कोसों आगे रहे. ध्यानचंद की हॉकी कलाकारी बेमिसाल थी. उनकी ओलंपिक में कामयाब सबब उनका सभी साथी खिलाडिय़ों को हमेशा बराबरी का मानना रहा. अपने हॉकी कौशल के बूते वह जिन बुलंदियों पर वहां पहुंचने की कल्पना तक कर पाना उनके बाद भी पीढ़ी के लिए एक दिवास्वप्न ही बन कर गया.


ध्यानचंद का असली नाम ध्यान सिंह था. एक बार फौज की नौकरी में आने के बाद उनके गोरे साहबों ने उन्हें ध्यानचंद क्या पुकारना शुरू किया उनका यही नाम हॉकी इतिहास के पन्नों में अमर हो गया. दद्दा 1920 से 1940 तक यानी करीब दो दशक तक हॉकी खेले.  ध्यानचंद का गेंद नियंत्रण, ड्रिब्लिंग और गेंद कब कहां जाएगी इसका पूर्वानुमान बेमिसाल था. वह किसी भी कोण से गोल करने में बेजोड़ थे. वह किसी भी सतह पर अपना कमाल बखूबी दिखाते थे.



प्रतिद्वंद्वी टीम की रक्षापंक्ति के खिलाड़ी उनकी हॉकी की कलाकारी के सामने बेसुध हो जाते थे. आलम यह होता था कि वे ध्यानचंद को अपने गोल पर बढऩे से रोकने की बजाय खुद उनकी हॉकी कलाकारी को ही देखते रह जाते थे. हॉकी में ध्यानचंद की कामयाबी का मूलमंत्र था स्थिति को भांप कर उसके मुताबिक रणनीति बनाना. यदि वह आज एस्ट्रो टर्फ जैसी किसी भी कृत्रिम सतह पर खेले होते तो तब भी उनका जादू देखने लायक होता. गेंद पर गजब के काबू के साथ ही उनकी ट्रेपिंग ऐसी थी गेंद उनकी स्टिक से ही चिपक कर रह जाती थी. 


बदकिस्मती से कमजोर ट्रेपिंग ही भारतीय हॉकी की आज की सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है. वह भीगे मैदान पर अपनी हॉकी की कलाकारी से मजबूत से मजबूत रक्षापंक्ति में सेंध लगाने की कूवत रखते थे. बारिश के कारण असमतल मैदान पर भी ध्यानचंद के पास ठीक अपने साथी खिलाड़ी तक पहुंचते थे. वह असमतल मैदान पर गोल की झड़ी लगाने का दम रखते थे. ध्यानचंद की हॉकी की कलाकारी से उनकी प्रतिद्वंद्वी टीमों के खिलाडिय़ों को अक्सर यह भ्रम होता था कि उनकी स्टिक में कोई चुंबक जैसी कोई चीज है.


हॉलैंड में एक बार इसी के चलते उनकी हॉकी स्टिक तोड़ कर देखी गई. सब आशंकाएं निर्मूल साबित हुई. वियना में ध्यानचंद की एक मूर्ति लगाई गई. इस मूर्ति में ध्यानचंद के चार हाथ, और उन्हें हाथ में चार हॉकी स्टिक लिए दिखाया गया है. इस मूर्ति में इसका मकसद यह दर्शाना है कि ध्यानचंद जैसा हॉकी का करिश्मा तो उनका सा सुपरमैन ही कर सकता है. सुनने में ये सभी घटनाएं भले ही कुछ अतिश्योक्तिपूर्ण लगें लेकिन ये सब बस उनकी जीनियस को ही दर्शाती हैं. 


ध्यानचंद और उनके छोटे भाई रूप सिंह की हॉकी मैदान पर कलाकारी बेमिसाल रही. इन दोनों भाइयों में हॉकी के मैदान पर तालमेल भी बेमिसाल रहा. लेकिन ध्यानचंद को जो बात उनके भाई से अलग करती है वह है उनका कौशल, समर्पण और देश के लिए खेलने का जज्बा. ध्यानचंद की हॉकी की कलाकारी ने हॉकी को खूबसूरती दी. हॉकी उनके लिए धर्म था यानी अनुशासन और समर्पण. वह हर क्षण हॉकी खेलने का लुत्फ उठाते. वह ताउम्र हॉकी और सिर्फ हॉकी के  लिए ही जिए. भारतीय हॉकी दद्दा ही हमेशा ऋणी रहेगी. 


उन्होंने भारतीय हॉकी को उन बुलंदियों तक पहुंचाया, जिसकी बस कल्पना ही की जा सकती है. ध्यानचंद ने हॉकी में कौशल की अहमियत बताई. उन्होंने हॉकी को कौशल और कलाकारी का खेल बनाने में अहम रोल अदा किया.  भारतीय हॉकी को फिर करवट लेनी है तो ध्यानचंद के  कौशल और कलाकारी को आत्मसात करने की जरूरत है. इसके लिए खिलाड़ी के पास सूझबूझ, पैनी नजर, मजबूत कलाई, शारीरिक दमखम, धैर्य और दिमागी संतुलन की जरूरत होती है. 


मैदान पर स्थिति कितनी भी तनावपूर्ण रही हो बतौर खिलाड़ी ध्यानचंद हमेशा शांत ही बने रहे. उन्होंने कभी आपा नहीं खोया. उनकी इस बात को यदि आज की भारतीय हॉकी टीम के खिलाड़ी समझ लें तो फिर वे मैदान पर जरूर कामयाब हो सकते हैं. कई लोग यह सवाल कर सकते हैं कि क्या ध्यानचंद एस्ट्रो टर्फ पर भी वैसे ही कामयाब होते जैसे वह घास के मैदान पर रहे? जवाब एकदम सीधा है, बेशक  सच तो यह है कि उन्होंने अपने करियर में जितने गोल किए हैं उससे निश्चित रूप से दुगुने तो उन्होंने जरूर दागे होते. 


दरअसल वह अपना जादू दिखाने के लिए किसी सतह के मोहताज कभी नहीं रहे. वह हर सतह पर खेलने के मास्टर थे और आज भी निश्चित रूप से वह किसी भी सतह पर अपना करिश्मा दोहराते. एस्ट्रो टर्फ पर कामयाबी की पहली और बड़ी शर्त है शारीरिक रूप से मजबूत होना. ध्यानचंद की फिटनेस लाजवाब रही. दो दशक तक हॉकी खेलना इस बात का परिचायक है कि शारीरिक  रूप से फिटनेस के लिहाज से कोई भी उनके करीब नहीं फटकता. वह शॉट लगाते वक्त अपनी कलाइयों का बेहतरीन इस्तेमाल करते थे. 


वह फौज से रिटायर होने के बाद भी जमकर हॉकी खेले. यह उनकी बेहतरीन फिटनेस की बानगी थी. खिलाड़ी आज भले ही खेल भावना का कितना भी ढिंढोरा पीटे लेकिन हकीकत यह है कि वे आज जीतने और सिर्फ जीतने के लिए मैदान पर उतरते हैं. खेल भावना को अब बस कहने की भर को रह गई है.  16 बरस की उम्र में फौज में ब्राह्मण रेजीमेंट में सिपाही के रूप में भर्ती होने के बाद शुरू हुआ उनका उनका अनुशासन मेजर बनने और भारत का हॉकी कप्तान बनने तक ताउम्र रहा.


1936 में भारत ने बर्लिन ओलंपिक में जर्मनी पर फाइनल में दनादन 6 गोल कर दिए. तब ध्यानचंद को रोकने के लिए जर्मनी के खिलाड़ी कुछ 'रफ खेलने लगे. तब ध्यानचंद ने देखो भाई दारा, अब हम जर्मनी पर और गोल नहीं करेंगे. हम अपनी कलात्मक हॉकी से इन जर्मन खिलाडिय़ों को गेंद-नियंत्रण की बानगी दिखाने में कसर नहीं छोड़ेंगे. तब हमारी पूरी टीम ने उनकी बात मान ली. हमने जर्मन खिलाडिय़ों को खूब नचाया लेकिन फिर भी हमने फाइनल 8-1 से जीत कर ओलिंपिक में हॉकी में लगातार तीसरी बार स्वर्ण पदक अपने नाम किया.


ध्यानचंद के इसी पूर्वानुमान ने उन्हें दुनिया का सर्वकालीन महान सेंटर फॉरवर्ड बनाया. वह दाएं और बाएं, दोनों छोर से स्वच्छंद होकर गेंद को लेकर चलते थे और मनमर्जी के मुताबिक गोल दाग देते थे. वह गोल के आधे-अधूरे मौकों पर यकीनी गोल दागते थे. यह सुनने में भले ही कड़वा लगे लेकिन सच है कि ध्यानचंद को  भारत से ज्यादा हॉकी की दुनिया में इज्जत विदेश में मिल रही है. 


ध्यानचंद के जन्म 29 अगस्त को 1995 से खेल दिवस के नाम से मनाया जा रहा है.  ध्यानचंद के उनके नाम पर कोचिंग में लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड भी दिया जाता है. साथ ही सभी खेल पुरस्कार भी दिए जाने जाते हैं. हर मुल्क अपने लीजेंड को राष्ट्र के बड़े से बड़े सम्मान से नवाजने में बेहिचक सबसे आगे रहता है. यह भारतीय हॉकी के लिए ही नहीं बल्कि देश के लिए दुखद है कि निर्विकार भाव से हॉकी और केवल हॉकी को समर्पित ध्यानचंद को भारत रत्न दिलाने के लिए खुद उनके मंझले बेटे अशोक कुमार सिंह सहित कई पूर्व हॉकी दिलीप टिर्की, अजित सिंह, अजित पाल सिंह और जफर इकबाल और खुओलंपियन और  बिशन सिंह बेदी जैसे महान टेस्ट स्पिनर सरकार से गुहार का कोई असर नहीं हुआ.


ध्यानचंद का नाम सबसे पहले 2012 में भारत रत्न के लिए भेजा गया और तब उन्हें यह अवॉर्ड मिलते मिलते रह गया था. सचिन तेंदुलकर के 2013 में क्रिकेट को अलविदा कहते ही भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड(बीसीसीआई) के उपाध्यक्ष राजीव शुक्ला की पैरवी पर उन्हें भारत रत्न दे दिया गया था. 2013 में सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न से नवाजे जाने पर भी यही सवाल खड़ा हुआ ,ध्यानचंद को सबसे पहले यह सर्वोच्च नागरिक सम्मान क्यों नहीं? 


आज के दौर के हीरो भले ही सचिन तेंदुलकर हों लेकिन यदि किसी भी सर्वकालीन महानतम भारतीय खिलाड़ी की चर्चा होगी तो उसमें निर्विवाद रूप से ध्यानचंद हमेशा सबसे आगे की पंक्ति में खड़े होंगे. इसका मकसद सचिन तेंडुलकर को कमतर आंकना कतई नहीं है. मकसद बस इतना ही है कि जो खिलाड़ी सबसे पहले भारत रत्न का हकदार थे वह सिर्फ और सिर्फ ध्यानचंद हैं. 


सचिन को भारत रत्न दिए जाने के लिए इंतजार किया जा सकता था. सवाल आज भी यही है कि अपने आप में भारत के खेल रत्न ध्यानचंद को भारत रत्न को कब? उम्मीद की जानी चाहिए ध्यानचंद को जल्द ही भारत रत्न से नवाज कर उन्हें यह वह गौरव प्रदान किया जाएगा, जिसके वो अधिकारी हैं.