कहते हैं एक औरत का माँ बनना उसके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है. यह एक ऐसा आनंद है जिसका सिर्फ एहसास किया जा सकता है. हम जब भी नारी महिमा की बात करते हैं तो कहते भी हैं कि “अब तक लोगों की इस तथ्य पर बिल्कुल दृष्टि नहीं जा पाई है, नर सब कुछ है कर सकता पर सृष्टि नहीं कर सकता है.”


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लेकिन आप भारत के किसी भी कोने में चले जाइए, किसी सामान्य घर की महिला से पूछिए कि गर्भावस्था के नौ महीने और आने वाले छह महीने का उसका अनुभव कैसा रहा तो जवाब बहुत सकारात्मक नहीं मिलेंगे. इसके पीछे कारण सिर्फ शारीरिक बदलाव नहीं है बल्कि सोच में बदलाव का ना होना भी है. एक गर्भ धारण की हुई महिला को एक विशेष माहौल दिया जाना चाहिए, उसे हाथों हाथ लेना चाहिए, उसे बहुत लाड़ मिलना चाहिए, उसे विशेष महसूस कराना चाहिए, लेकिन ऐसा कितने घरों में होता है. अक्सर घरों में औरत अपने शरीर में हो रहे बदलावों के साथ जूझते हुए अपने पति के लिए खाना बना रही होती है, अपनी परिवार की सेवा कर रही होती है.


मेरी एक मित्र अपना अनुभव बयान करते हुए कहती है कि जब वो गर्भवती थी तो रसोई के मसालों से बचने के लिए मुंह पर कपड़ा बांधकर बड़ी मुश्किल से खाना बनाती थी और फिर खाना पक जाने के बाद जा कर उल्टी कर देती थी. पति के चिंतित होने पर माताजी कहती थी ये तो होगा ही.


बच्चे के पैदा होने के बाद अक्सर महिलाएं एक परेशानी से गुज़रती हैं जिसे पोस्ट पार्टम डिप्रेशन (पीपीडी) कहते हैं. अपने अंदर हो रहे शारीरिक बदलाव, नई मां बनने के कारण रात-रात भर जागकर बच्चे को दूध पिलाना, नींद का पूरा नहीं होना, बच्चे को ठीक ढंग से नहीं संभाल पाने का अपराधबोध (जो घर के सदस्यों के द्वारा करवाया जाता है) जैसे कई तकलीफ़ों के साथ गुज़रते हुए तीन महीनों तक औरत एक अवसाद में जीती है. इस दौरान कई महिलाएं आत्महत्या करने का मन भी बना लेती है और कितने ऐसे केस हैं, जहां महिलाओं ने प्रयास भी किया है और कई इस प्रयास में सफल भी हुई हैं. अहम बात ये है कि इस दौरान भी महिला को बच्चे के साथ अकेला ही छोड़ दिया जाता है. अगर बच्चा ख़ुश है तो सब उसके साथ है नहीं तो मां को अकेले ही जूझना पड़ता है. उस पर उसकी तकलीफ़ों को बगैर समझे, दूसरी महिलाएं ख़ुद के मां बनने और अपने अनुभवों को गिना कर उस महिला की तकलीफ़ को नगण्य बता देती है. इतना तो करना ही पड़ता है, तुम नहीं करोगी तो कौन करेगा, अभी तो शुरूआत है, हमने भी बच्चे पाले हैं, ये तो होगा ही.


एक मित्र अपना अनुभव साझा करते हुए बताती है कि बच्चा होने के बाद बुजुर्गों के आपसी अहं के टकराव और उसके अंदर हो रहे बदलावों ने उसे इस कदर अवसाद में ला दिया था कि वो अपनी बेटी को ज़बरदस्ती अस्पताल ले जाती थी और वो बैठ कर घंटो रोती थी, क्योंकि जब वो घर में कुछ बोलती या रोने लगती तो उसे यही कहा जाता कि रो क्यों रही है ये तो होगा ही.


वहीं दूसरी मित्र अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताती हैं कि लड़का पैदा होने के छह महीने तक तो उन्हें अपना लड़का अपना दुश्मन लगता था यहां तक कि उन्हें सपने में अपने ही लड़के के राक्षस की तरह दांत निकले हुए दिखाई देते थे जो उन्हें खाने की कोशिश कर रहा होता था.


ये तो होगा ही, के जुमले के साथ हम महिलाओं को उनके हाल पर जीने के लिए छोड़ देते हैं. वो एक भरे पूरे परिवार में भी अकेले संघर्ष कर रही होती है. उसकी इस तकलीफ़ को नज़रअंदाज़ करने वाली और समझ कर भी ना समझने वाली भी एक औरत ही होती है. अगर हम अपने इर्द-गिर्द नज़र डालें तो ऐसी बहुत सी औरतों से जुड़ी तकलीफ़ें होती हैं, बहुत सी ऐसी परेशानियाँ हैं, जिनके साथ एक औरत जीती है या ख़ुद को उन तकलीफ़ों के साथ जीना सिखा लेती है. हमारी नज़र में ख़ासकर इसे भुगत चुकी महिलाओं के लिए ये तकलीफ़ें दरअसल कोई तकलीफ़ होती ही नहीं है.


इस तरह बारह तेरह साल की उम्र से शुरू हुआ महिला का ख़ुद के शरीर के साथ का संघर्ष ता उम्र चलता है. ये वो संघर्ष है, जो प्राकृतिक है, जिसे टाला तो नहीं जा सकता है, लेकिन सही साथ के साथ, जिसे ख़ुशी-ख़ुशी झेला ज़रूर जा सकता है या बांटा जा सकता है. लेकिन हमारे समाज में जहां हम नारी सशक्तिकरण के झंडे को हाथों में उठाये, चौराहे पर कैंडल जलाए, ज़ोर ज़ोर से नारे लगाते हुए नारी स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं. भारत की लड़की को जीने का अधिकार है, भारत की बेटी को आज़ादी से घूमने का, अपने मन का पहनने का अधिकार है जैसे नारे बुलंद कर रहे हैं.


हम इन छोटी दिखने वाली बातों के बारे में सोचते ही नहीं है. किसी भी घर की वरिष्ठ महिला फिर वो किसी भी पद पर हो को रैगिंग के सिद्धांत (हमारे साथ हुआ है तो हम भी करेंगे) के साथ जी रही है. अगर आंकड़ों मे देखें तो बलात्कार, औऱत को छेड़ने या उनके साथ मारपीट जैसे मामलों की जानकारी मिल जाएगी, लेकिन ये वो मुद्दे हैं जिसके साथ भारत की लगभग हर बेटी जीती है, ये वो शोषण है जिसे हर औरत प्रकृति का अभिशाप समझ कर सहती है. पहले हमें इस मानसिकता में बदलाव पर चर्चा करनी होगी, देश के पाठ्यक्रम में इसे समझाना होगा तब जाकर कहीं हर मां सही मायने में खुली हवा में साँस ले सकेगी और जब तक ऐसा नही होगा तब तक ये तो होगा ही.


(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और WaterAid India 'WASH Matters 2018' के फैलो हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)