Opinion : फिलहाल कांग्रेस की गति और नियति
हस्तिनापुर के खूंटे बंधे अनुयायियों को एक बार फिर प्रियंका गांधी में जन अपील दिखने लगी, पर उनके पास भी पुत्रमोह पर मनमसोस कर रह जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं. कुलमिलाकर कांग्रेस के शुभेच्छक भी अब मानकर चलने लगे हैं कि कांग्रेस की पुनः प्राण प्रतिष्ठा अब आसान नहीं रही.
कर्नाटक के असमंजस भरे चुनाव परिणाम के बीच सरकार कौन बनाएगा? इससे ज्यादा यदि चर्चा किसी बात पर हो रही है तो वह कांग्रेस की अधोगति और राहुल गांधी की नियति को लेकर. प्रतिक्रियाएं निकलकर आ रही हैं कि डूबते जहाज को बचाना इनके बस की बात नहीं रही. हस्तिनापुर के खूंटे बंधे अनुयायियों को एक बार फिर प्रियंका गांधी में जन अपीलदिखने लगी. पर उनके पास भी पुत्रमोह पर मनमसोस कर रह जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं. कुल मिलाकर कांग्रेस के शुभेच्छक भी अब मानकर चलने लगे हैं कि कांग्रेस की पुनः प्राणप्रतिष्ठा अब आसान नहीं रही.
मुश्किल यह है कि इस विषय पर कोई छोटा या बड़ा कार्यकर्ता कुछ बोलने की स्थिति में नहीं है. आप देखेंगे कि कर्नाटक के परिणाम के बाद भी राहुल गांधी के नेतृत्व के प्रति प्रतिबद्धता के बयान शुरू हो जाएंगे. अब जिसने मरना ही तय कर लिया है उसकी मदद भगवान भी नहीं कर सकता.
अपने यहां एक देसी कहावत है, "तिसरे पीढ़ी बनै कि जाय" यानी कि तीसरी पीढ़ी या तो सल्तनत को चरम ऊंचाई तक ले जाती है या फिर पूरी तरह से डुबो देती है. यह तो नहीं मालूम कि इस कहावत के पीछे क्या मनोवैज्ञानिक आधार रहा होगा, लेकिन मेरी समझ में जो बात आती है वह यह कि इंक्बेंसी फैक्टर सत्ता की तरह संगठनों के अधिनायकवाद के भी खिलाफ में होता है. कांग्रेस का संगठन इसी दौर से गुजर रहा है.
इंदिरा गांधी के पहले तक ऐसी स्थिति नहीं थी. पंडित नेहरू ने इंदिराजी को अपनी बेटी होने की योग्यता के आधार पर देश के ऊपर कभी नहीं थोपा. उनके जमाने में स्पष्ट सेकंड लाइन थी. जयप्रकाश नारायण को उन्होंने उप-प्रधानमंत्री के पद का प्रस्ताव दिया था. उनके कैबिनेट व तत्कालीन संगठन में एक से एक लोग थे जो नेहरू के बाद रिक्त स्थान की पूर्ति करने की हैसियत रखते थे. इसी क्रम में गुलजारी लाल नंदा और लालबहादुर शास्त्री थे.
शास्त्री के निधन के बाद इंदिराजी को 'गूंगी गुड़िया' समझकर उन खुदगर्ज और घाघ कांग्रेसियों ने उन्हें देश के ऊपर थोपा जो यह उम्मीद पाले थे कि इस कठपुतली की डोर उनकी अंगुलियों में ही रहेगी. यह बात जल्दी ही गलतफहमी साबित हुई और इंदिरा ने सबसे पहले उन्हीं घांघों को ठिकाने लगा दिया.
बांग्ला विजय के बाद विश्वव्यापी ख्याति और जनता के अपार समर्थन से मिली प्रभुता ने इंदिराजी को मदांध कर दिया- प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं. इस मदांधता ने परिवार, पुत्र और खास लोगों की एक दुनिया रच दी, यही असली कांग्रेस हो गई. देवकांत बरुआ जैसे भक्तों ने संगठन के अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठे बैठे ही "इंदिरा इज इंडिया" का नारा बुलंद कर दिया. संगठन के तौर पर कांग्रेस में इसी दिन से जो ग्रहण लगा, उसकी कालिमा दिनोंदिन फैलती गई और आज स्थिति यह कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस की कल्पना करना ही व्यर्थ हो गया.
पिछले हर चुनाव को राहुल गांधी की परीक्षा के रूप में देखा जाता रहा है. पार्टी का ग्राफ उत्तरोत्तर नीचे आ रहा है. कह सकते हैं कि भारतीय जनमानस में एक नेता के तौर पर राहुल को लेकर विकर्षण ही बढ़ा है. आम कांग्रेसी भी ऐसा महसूस करता है लेकिन कहने की हिम्मत नहीं. यह स्थिति भी इसलिए बनी कि इस पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं में आत्मविश्वासही नहीं बचा. यहां भी वही सामंती स्थिति है- जिसकी उठी नजर वो शख्स गुम हुआ.
सोनिया गांधी के काल में कांग्रेस तीन हिस्सों में बंटी. इतना बड़ा बंटवारा इंदिराजी के समय भी नहीं हुआ. नेतृत्व के सवाल पर ही शरद पवार अलग हुए और ममता बनर्जी भी. आज ये दोनों अपने-अपने सूबे में ताकतवर हैं. कांग्रेस की मूलधारा से अलग हुए उत्तर-पूर्व और दक्षिण में भी छोटे-छोटे दल हैं. गांधी-नेहरू परिवार के वंशानुगत अधिनायकवाद की ही यह हनक है कि किसी भी बड़े बुजुर्ग कांग्रेसी का इतना साहस नहीं कि वह सभी छोटी-बड़ी कांग्रेस पार्टियों को एक होनी की बात कह सके.
कल्पना करें आज भी बिखरी हुई कांग्रेस एक हो जाए जहां ममता बनर्जी और शरद पवार भी हों, तो सरकती हुई स्थिति में ठहराव आ सकता है. लेकिन यह हो कैसे? कब्जा तो हर हाल में 10 जनपथ का होना चाहिए, यही छत्र-चंवर-राजपाट-वंशवाद है. इसी जिद ने कांग्रेस को बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में विसर्जित किया है. यही हनक आरावली, विंध्य-सतपुड़ा और हिमाचल की तराई की चुनावी लैंड स्लाइडिंग में पार्टी संगठन को जमींदोज हो जाने के लिए जिम्मेवार है.
वैचारिक दिवालियापन दूसरा बड़ा मुद्दा है. पिछले कुछ चुनावों से देखने में मिल रहा है कि कांग्रेस भाजपा का अनुसरण करती नजर आ रही है. 2014 के चुनाव तक मुस्लिम वोटरों को चिपकाए फिरने वाली कांग्रेस ने आज उन्हें दूर फेंक दिया है. राहुल गांधीजी कुर्ते के ऊपर जनेऊ डाले मंदिरों की घंटी बजाते फिर रहे हैं. देखासिखी उनके सूबेदार भी देवदर्शन पर निकल पड़े हैं. सवाल यह कि मुसलमानों को अब तक इस दशा में किसने रखा? सलमान खुर्शीद ठीक कहते हैं- इनकी दुर्दशा के लिए हम जिम्मेदार हैं. वोट के लिए इन्हें अल्पसंख्यक बनाए रखा गया, इस समाज ने जब भी मूलधारा में रचने बसने की कोशिश की तो एक आयोग बैठा दिया, फिर उसी के निष्कर्षों को उन्हें बांचकर सुनाया जाता रहा. उनकी बरक्कत से ज्यादा बड़ी चिंता एक वोटबैंक के रूप में बचाए रखने की थी. इनके खिलाफ भगवा भय का हौव्वा खड़ा किया. अंत में हुआ क्या-उघरे अंत न होंहिं निबाहू.
असलियत का पता चला, नकाब उठा तो ये भी छिटककर दूर खड़े हो गए. यूपी-बिहार हर जगह ठेंगा दिखा दिया.
कर्नाटक में तो बड़ा पाप किया गया. विशाल हिंदू समाज को बांटने का काम. लिंगायतों को हिंदू से अलग धर्म की मान्यता दे दी. वोट के लिए समाज को किश्त दर किश्त बांटने का काम किया. जिस दलित समुदाय को इंदिराजी ने अपना वोटबैंक बनाकर रखा था कांग्रेस की स्वेच्छाचारिता और सामंती मनोवृत्ति के खिलाफ पहला विद्रोह इन्हीं ने किया. जाति संख्या के आधार पर टिकट और राजनीति की जो गंगा कांग्रेस ने बहाई आज वह उसी में डूब उतरा रही है. कांग्रेस आज अपने ही ईजाद किए गए हथियारों से हताहत है.
एक महान पार्टी वैचारिक रूप से इतनी भी दिवालिया बन जाएगी किसी ने कल्पना तक नहीं की. कांग्रेस के ऊपर कुंडली जमाए बैठे हर लाटसाहब की अपनी महत्वाकांक्षा है. एक वकील साहब ने निजी खुन्नस निकालने के लिए समूची न्यायपालिका को कठघरे में खड़ा कर दिया. लोकतंत्र के संस्थानों पर जितने और जैसे भी घात किए जा सकते हैं, किया. देश की जनता मूर्ख नहीं उसे सबकुछ समझ में आता हैं भले ही आहिस्ता-आहिस्ता.
कर्नाटक के बाद हिंदी पट्टी के कई राज्यों में चुनाव होने हैं. जहां चुनाव होने हैं वहां की जनता सत्ताधारी से खुश नहीं है. लेकिन जब वह विकल्प के बारे में विचार करती है तो फिर एबाउट टर्न कर जाती है. वजह विश्वसनीयता की कमी. जन से जुड़े एक भी मुद्दे को उस मुकाम तक नहीं पहुंचा पाए कि सिंहासन हिलने लगे.
आत्मविश्वास जब किसी की देहरी के खूटें से बंधा हो तो सांड़ को भी मरियल हुरपेट सकता है. कांग्रेस की यही स्थिति है. खूंटा तोड़-तोड़ के स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाना होगा, लड़ने की ताकत तभी आएगी. कांग्रेस न मरी है और न कभी मरेगी. क्योंकि उसकी जड़ी गहरी हैं. लेकिन उसके नए पत्ते और कल्ले तभी फूटेंगे जब सड़े हुए तने को काटकर फेंक दिया जाएगा. तुलसी ने लिखा है काटे से कदली फलै...केला के एक बार फल देने के बाद आप कोटि जतन करो, सींचो खाद दो, दुबारा तभी फलेगा जब उसे काटकर उसकी जड़ों से नए पेड़ को उगने, बढ़ने फूलने, फलने दिया जाए... क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि कांग्रेस आज इसी गति को प्राप्त है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)