असम में भीड़ के हाथों हत्या की घटना से हम क्या समझें?
दुनियाभर में बढ़ रहे आतंकवाद के पीछे भी मौसम में बदलाव को एक वजह माना जा रहा है. अमेरिका के प्रेसिडेंट चुनाव के दौरान होने वाली बहस में जब बर्नी सेंडर्स से पेरिस अटैक के बाद सवाल पूछा गया था कि क्या वो अब भी क्लाइमेट चेज को सुरक्षा को लेकर सबसे बड़ा खतरा मानते हैं.
‘अन अमेरिकन वेरवुल्फ इन लंदन’ से प्रेरित 1992 में आई फिल्म ‘जुनून’ में नायक को एक श्राप मिलता है और वो पूर्णिमा के दिन शेर बन जाता है. शेर इसलिए क्योंकि नायक पूर्णिमा के दिन जंगल में एक शेर के शिकार पर जाता है और वहीं उसके साथ ऐसी घटना घटती है. फिल्म की कहानी में दो अहम पहलू हैं, पहला नायक के अंदर का शेर हर बार पूरे चांद की रात में ही जागता है. दूसरा वो हिंसक है. मानव शऱीर जिन पांच तत्वों से मिलकर बना हुआ माना जाता है उसमें पानी का स्थान सबसे ऊपर रखा गया है. हमारे शरीर में 70 फीसदी पानी होता है. पूरे चांद की रात के दौरान समुद्र में ज्वार–भाटा आता है क्योंकि, चंद्रमा पानी को अपनी ओर आकर्षित करता है और उसमें उथल पुथल मच जाती है.
यही उथल पुथल हमारे शरीर में भी होती है और पूरे चांद की रात के दौरान सभी जीवित प्राणियों में एक बैचेनी से होती है. इंसानों मे एक हिंसक प्रवृत्ति बढ़ जाती है, बताया जाता है कि ऐसी रात कुछ लोग या तो आत्महत्या करने की सोचते हैं या किसी को मारने की. यही वजह है कि मस्तिष्क से जुड़ी किसी बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को उस दिन ज्यादा सावधानी रखने के लिए कहा जाता है.
‘जूनून’ फिल्म जिस अंग्रेजी फिल्म से प्रेरित है उसमें इंसान भेड़िये में तब्दील होता है. क्योंकि पश्चिम की कहानियों में भेड़िया ज्यादा भयानक तरह से प्रस्तुत किया गया है और उसे बेवजह हिंसा करने वाले जानवरों के तौर पर देखा जाता है. हमें शुरू से शेर की भयावहता डराती आई है, इसलिए भारत की कहानी में भेड़िये को शेर में बदल दिया गया. हालांकि कहानीकार भुवनेश्वर की कहानी ‘भेड़िये’ में बेवजह की हिंसा के रूप में भेड़िये को ही प्रस्तुत किया गया है.
दरअसल, हम कितनी कोशिश कर लें लेकिन हम प्रकृति से अपने नाते को नकार नहीं सकते हैं. यही नहीं हमे लगता ज़रूर है कि हम अपने जीवन को संचालित कर रहे हैं लेकिन हमारे शरीर को कहीं ना कहीं प्रकृति ही संचालित कर रही है. बीते दिनों जिस तरह से लोगों में बेवजह की हिंसा, उन्माद देखने को मिल रहा है, इसके पीछे की वजह प्रकृति में लगातार होता असंतुलन हो सकता है.
असम के कर्वी आंगलाग जिले में कुछ अज्ञात लोगों ने दो लोगों को बच्चा चुराने के संदेह में पीट-पीट कर मार डाला. पुलिस के मुताबिक दोनों युवक आंगलाग के एक पिकनिक स्थल से लौट रहे थे, जब गावं वालों ने उनकी कार को रोका औऱ उन्हें खींच कर बाहर निकाल लिया. गांव वालों ने उन्हें बच्चा चुराने के संदेह में बुरी तरह पीटा. एक वायरल वीडियों के मुताबिक वो लोगों से खुद के बेगुनाह होने की गुहार कर रह थे, लेकिन उन्मादी भीड़ कुछ भी सुनने को राजी नहीं हुई और बुरी तरह घायल अवस्था में उन्हें अस्पताल ले जाया गया जहां पर उनकी मौत हो गई.
पब्लिक लिंचिग के नाम से चर्चित हो रहे इस शब्द की भारत में चर्चा 28 सितंबर 2015 से शुरू हुई जब दादरी की जनता ने अख़लाक को गौमांस होने की शंका में पीट-पीट कर मार डाला और उसके बेटे को इस कदर घायल किया कि वो अब तक ठीक होने की जद्दोज़हद कर रहा है. इससे पहले और इसके बाद पब्लिक लिंचिंग के कई मामले भारत के अलग अलग हिस्सों में देखे गए हैं. असम में हुई घटना भी ऐसे ही सामूहिक गुस्से को दिखाती है जो व्हाट्सएप की एक फेक खबर से इस हद तक बढ़ गया.
अलग-अलग शोध बताते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग यानि धरती पर बढ़ता तापमान इंसानों में हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ा रहा है. एन्युअल रिव्यू ऑफ पब्लिक हेल्थ की ग्लोबल वार्मिग एंड कलेक्टिव वायलेंस नाम की स्टडी के मुताबिक 2004 से 2013 तक अफ्रीका में हिंसा के सबसे ज्यादा मामले देखने को मिले, यही नहीं पूरी दुनिया भर में दो करोड़ से अधिक शरणार्थियों में से 41 फीसदी अकेले उन तीन युद्धरत देश सीरिया, अफगानिस्तान और सोमालिया से हैं. खास बात ये है कि बीते दिनों ग्लोबल वार्मिंग का असर इन्हीं देशों में सबसे ज्यादा देखा भी गया है. वहीं अगर हम ठंडे प्रदेशों पर नज़र डालें तो हमें अपेक्षाकृत कम हिंसा के मामले नज़र आते हैं. वहीं एक रिपोर्ट के मुताबिक लगातार होती बाऱिश में कमी ने भी आंतरिक झगड़ों में इजाफा किया है.
मौसम पर पड़ने वाले प्रभाव की वजह से पूरी दुनिया की आर्थिक दशा पर भी प्रभाव पड़ा है खासकर दुनिया भर की कृषि क्षेत्र में इसके सबसे बुरे परिणाम देखने को मिल रहे हैं. ऐसे कई साक्ष्य हैं जो ये बताते हैं कि आर्थिक हालातों में होने वाले बदलाव लोगों को विद्रोही बनाने में महती भूमिका निभाते हैं. लेकिन इस विरोध में होने वाले इजाफे के पीछे एक वजह गर्मी है. शोध बताती हैं कि गर्मी में बढ़ोतरी लोगों के आक्रामक रवैये को बढ़ाती है.
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वैज्ञानिकों का कहना है कि दुनियाभऱ में वर्तमान में जो मौसम बदलाव का स्तर देखा जा रहा है उसकी वजह से धरती एक हिंसक जगह बनती जा रही है. एक अनुमान के मुताबिक दुनिया के तापमान में 2 डिग्री की बढ़ोतरी से कुछ क्षेत्रों में निजी अपराधों में 15 फीसदी तक और सामूहिक हिंसा में 50 फीसदी तक इज़ाफा हो सकता है.
यही नहीं दुनियाभर में बढ़ रहे आतंकवाद के पीछे भी मौसम में बदलाव को एक वजह माना जा रहा है. अमेरिका के प्रेसिडेंट चुनाव के दौरान होने वाली बहस में जब बर्नी सेंडर्स से पेरिस अटैक के बाद सवाल पूछा गया था कि क्या वो अब भी क्लाइमेट चेज को सुरक्षा को लेकर सबसे बड़ा खतरा मानते हैं. इस सवाल के जवाब में बर्नी सेंडर्स का कहना था कि मौसम में बदलाव का आतंकवाद में हो रही बढ़ोतरी से सीधा नाता है. और अगर हम लोग अभी भी एक जुट नहीं हुए और वैज्ञानिकों की बात पर ध्यान नहीं दिया तो मान कर चलिए की आने वालें समय में पानी, ज़मीन, फसल की घटती सीमाओं को लेकर अतंर्राष्ट्रीय स्तर पर अलगाव देखने को मिलेगा. हालांकि उनके इस जवाब का सोशल मीडिया पर काफी मज़ाक बनाया गया था, एक ट्वीट में तो यहां तक लिखा गया था कि ‘सैंडर्स का कहना है कि मौसम में हो रहा बदलाव आंतकवाद से भी बड़ा खतरा है, सर आइसबर्ग फटता नहीं है ’. और आखिरकार मौसम को लेकर हम कितने चिंतित हैं इस बात का जवाब अमेरिका ने ट्रंप का चुनाव करके दे दिया था.
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हालांकि ये बात सही है कि सैंडर्स ने जिस तरह से आतंकवाद को सीधे मौसम में हो रहे बदलाव से जोड़ा है उसकी किसी भी वैज्ञानिक ने पुष्टि नहीं की है, लेकिन अप्रत्य़क्ष तौर पर इसे जोड़ कर देखा जा सकता है, सीरिया इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. सीरीया औऱ इराक वो क्षेत्र हैं जो पिछले कई दशकों से लगातार सूखे को झेल रहा है. बीते दस सालों में इस सूखे ने भयावह तस्वीर पेश की है. 2007 से 2010 के बीच सूखे ने अपना सबसे कठोरतम चेहरा दिखाया जिसके साथ सामाजिक औऱ राजनीतिक वजह जुड़ कर सीरिया में गृह युद्ध का कारण बनी.
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सेंटर फॉर क्लाइमेट एंड सिक्योरिटी के प्रेसिडेंट और को-फाउंडर फ्रांसेस्को फेमिया ने एक साक्षात्कार में बताया था कि 2006 से 2011 के वक्त पर गौर करें तो सीरिया के विद्रोह की शुरूआत दारा से हुई. इस दौरान सीरीया ने आधुनिक इतिहास के सबसे भयानक सूखे को झेला जब यहां की लगभग 60 फीसदी ज़मीन पानी के लिए तरस रही था. इस सूखे के साथ तात्कालीन प्रेसिडेंट के प्राकृतिक संसाधनों की बदइंतज़ामी और बुरी कृषि तकनीकों की बदौलत एक भयानक हालत पैदा हो गए. जिसकी वजह से सीरिया में लगभग डेढ करोड़ लोग अपनी जगह से विस्थापित होने को मजबूर हो गए थे. फेमिया का कहना था कि हम पूरा दोष क्लाइमेट चेंज पर नहीं मढ़ सकते हैं, लेकिन हम इसको एक वजह मानने से इनकार भी नहीं कर सकते हैं.
यानि आंतकवाद या दुनियाभर में हो रही हिंसा में बढ़ोतरी की एक वजह मौसम में बदलाव को माना जा सकता है. वैसे भी ये ज़ाहिर सी बात है कि गर्मी आते ही सामान्य लोगों को भी ज्यादा गुस्सा में आता हुआ देख सकते हैं. उमस बढ़ने के दौरान एक अजीब सी चिड़चिड़ाहट देखने को मिलती है. जो कभी कभी बढ़ते बढ़ते हिंसात्मक रवैये तक पहुंच जाती है.
‘हेपनिंग’ फिल्म में पेड़ बदला लेने पर उतारू होते हैं और केमिकल छोड़ कर लोगों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर देते हैं. यहां पेड़ों के कटने से औऱ प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के नतीजे में हम दूसरे को मारने पर उतारू होते जा रहे हैं.
भुवनेश्वर की कहानी ‘भेड़िये’ में आदमी के पीछे भेड़ियों का झुंड पड़ा हुआ हैं और वो एक के बाद एक सबको बेवजह मारते जा रहे है. ये भेड़िये उसी उन्मादी भीड़ को रूपक है जिसकी प्रवृत्ति में आ रही गर्मी की वजह शायद ग्लोबर वार्मिंग है, जो इनके हिंसात्मक जुनून को बढ़ावा दे रही है.
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)