'गेम ऑफ थ्रोन्स' में एक किरदार है पीटर बेयलिश उर्फ लिटिलफिंगर. लिटिलफिंगर राजा की छोटी सी काउंसिल का हिस्सा है और मास्टर ऑफ कॉइन यानि खचांजी है, जिसका काम राजा और उसके सेनापति के खर्च की देखरेख करना है और राजा के लिए पैसे जुटाना है. लिटिलफिंगर बहुत ज्यादा चतुर और लोगों को फुसलाने में माहिर है. उसके पास पूरे तंत्र में जासूसों का एक तगड़ा तंत्र है. वो किंग्स लैंडिग यानी एक प्रकार की राजधानी में रहकर अपना वेश्यालय भी चलाता है. यही वो जरिया है, जिससे वो लोगों को अपने घेरे में ले लेता है. इस वेश्यालय के जरिये वो न सिर्फ पैसा कमाता है बल्कि अपने काम भी निकलवाता रहता है. साथ- साथ राजा और उसके निकट संबंधियों को भी खुश रखता है.


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एक दृश्य में वो अपने वेश्यालय में मौजूद लड़कियों को प्रशिक्षण देने के दौरान बोलता है, 'तुम कौन हो, कहां से आई हो, उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. यहां तुम्हें मेरी बात समझनी होगी. तुम्हें ये समझना होगा कि मैं क्या चाहता हूं.' लड़की के लिटिलफिंगर से पूछने पर कि आखिर वो क्या चाहता है, लिटिलफिंगर कहता है, 'सबकुछ'.


मुजफ्फरपुर में जो हुआ उसमें ब्रजेश ठाकुर की भूमिका इसी लिटिलफिंगर की तरह लगती है. जो एक अदने अखबार को चलाते हुए, जिसकी कुल 300 प्रतियां रोजाना छपती हैं, इस मुकाम तक पहुंच गया. ब्रजेश ठाकुर के अखबार को एक साल में लाखों का सरकारी विज्ञापन मिलता था. उसके एनजीओ को करोड़ों का फंड मिल रहा था. वो एनजीओ जिसके तहत चल रहे बालिका गृह में रह रहीं लड़कियों के लिए सांस को बस रोशनदान ही थे.


ब्रजेश ठाकुर का परिवार इस बात की दलील दे रहा है कि अगर उनके यहां इतनी अनियमितताएं थी, तो फिर हर थोड़े दिन में हो रही सरकारी जांच में कुछ सामने क्यों नहीं आया था. हर बार सरकारी अधिकारियों ने सबकुछ ठीक ही क्यों लिखा? उनकी इस दलील में उनका जवाब भी छिपा था, जो सीबीआई की जांच के दौरान समाज कल्याण विभाग के 14 अधिकारियों के निलंबन के साथ साफ हो गया. इससे एक बात और साफ हो गई कि ये काम किस कदर योजनाबद्ध तरीके से किया जा रहा था.


व्हाट्सएप पर वायरल हो रहे एक बच्ची के बयान में वो बता रही है कि किस तरह उनके ‘हेड सर’ और उनके साथी कंडोम का इस्तेमाल करते थे. यानी इस हद तक योजनाबद्ध होकर काम किया गया.


सवाल ये पैदा होता है कि ये सब शासन की नाक के नीचे इतनी आसानी से कैसे हो जाता है. ठीक है कि भ्रष्टाचार हर सवाल का जवाब है, जब तंत्र में चारों तरफ खोखलापन हो और सबको अपना फायदा नजर आता हो, तो ऐसा होना कौन-सी बड़ी बात है, लेकिन सिर्फ ऐसा नहीं है. बालिका गृह में जिंदगी बिता रहीं ये लड़कियां, घर से भागी हुईं ये लड़कियां, किसी नशे में गिरफ्त लड़कियां या किसी की भूल समझे जाने पर यूं ही सड़क पर छोड़ दी गईं ये लड़कियां आसान शिकार इसलिए भी हैं, क्योंकि समाज में इनका कोई अस्तित्व नहीं है.


2016 में 'सेव द चिल्ड्रन' की एक स्टडी से ये बात निकलकर आई थी कि सड़क पर रहने वाले बच्चों में 37% लड़कियां होती हैं. यह स्टडी लखनऊ, मुगलसराय, हैदराबाद, पटना कोलकाता-हावड़ा में किया गया था.


इंडिया स्पेंड ने 2016 की अपनी रिपोर्ट में 2011 के जनगणना डाटा का इस्तेमाल करके अनुमान लगाया कि भारत के 6.8% यानी 26 हजार बेघर परिवारों का ऊपर लिखे पांच शहरों में सबसे ज्यादा ठिकाना है. इनमें सड़क पर रहने वाली लड़कियों की तादाद पटना में सबसे ज्यादा (43%) है. हालांकि इन बच्चों का स्थायी ठिकाना नहीं होने, लगातार भटकते रहने और किसी राष्ट्रीय सर्वे में सड़क पर रहने वाले बच्चों को जगह नहीं मिलने की वजह से इन बच्चों और उनमें से भी बेघर या बेसहारा लड़कियों का सही आंकड़ा निकालना मुश्किल है.


जब मुजफ्फरपुर के एक रिहाइशी इलाके में, घनी आबादी के बीच 34 लड़कियों के साथ इस तरह से यौन शोषण किया जाता है तो उससे इस बात का आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ये लड़कियां वो लड़कियां हैं, जो हैं तो, लेकिन दिखाई नहीं देती हैं. जिनके होने को समाज पूरी तरह से नकार चुका है.


पाकिस्तानी लेखक गुलाम अब्बास की कहानी आनंदी पर आधारित फिल्म मंडी इसी अस्तित्व की कहानी बयां करती है. इसमें दिखाया गया है कि किस तरह से 'राजा' के संरक्षण में बनाया गया वेश्यालय आगे चलकर बड़े राजनीतिज्ञों, व्यापारियों और तथाकथित समाज के ठेकेदारों की नज़र में ऐसी जगह बन जाता है, जहां वह लड़कियां रह रही हैं, वो खाली है, उन्हें वो लड़कियां नज़र ही नहीं आती हैं. किसी सरकारी कागज में उन लड़कियों का कोई अस्तित्व नहीं है. कोई मौजूदगी नहीं है.


मंडी फिल्म तो फिर भी एक वेश्यालय की कहानी बयां करती है लेकिन इन बालिकागृहों में तो जबरन इन लड़कियों का यौन शौषण किया जा रहा है. कारण सिर्फ यही है कि वो भटक गई हैं. इसलिए मुजफ्फरपुर जैसे कई बालिकागृह में रहने वाली लड़कियां दरअसल हैं ही नहीं, इसलिए उनके साथ कुछ भी किया जा सकता है. क्योंकि उनकी चीख किसी को सुनाई नहीं देगी, वो किसी को दिखाई नहीं देगी. उनका वजूद किसी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर में दर्ज नहीं है.


ये लड़कियां जॉर्ज ऑरवेल की किताब 1984 की उस दुनिया में रह रही हैं जहां किसी को मारा नहीं जाता है, बल्कि उसे भाप बनाकर उड़ा दिया जाता है यानी वो दुनिया में होते हुए भी नहीं हैं. किसी सरकारी दस्तावेज में, किसी पहचान पत्र में किसी राशन कार्ड मे कहीं भी वो मौजूद नहीं रह जाता है. उसका नामोनिशान मिटा दिया जाता है. इस तरह से वो होने पर भी नहीं है. अब भले ही वो लाख बोले कि वो आलिया है या अनीता. कोई उनकी नहीं मानेगा. और शायद आश्रय देने वाले ये गृह चाहते भी यहीं है कि वो सिर्फ एक देह के रूप में पहचानी जाए जिसका इस्तेमाल वो अपने मर्जी के मुताबिक कर सकें. ये देह किसी को सुख तो दे सकती है, लेकिन कराह नहीं सकती है. इसकी कराह भी अगर निकलती है तो वो भी किसी को आनंदित करने के लिए ही होनी चाहिए...


(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)