बात आज से लगभग तीस-बत्तीस साल पुरानी रही होगी. दूरदर्शन उभर रहा था और हमलोग जैसे धारावाहिक ने वाहवाही समेट ली थी और बुनियाद भी उसी राह पर निकल पड़ा था. ऐसे में पिताजी घर में एक नामी-गिरामी कंपनी का रेडियो खरीदकर लाए जिसमें कैसेट भी चल सकती थी. उस टेपरिकॉर्डर की जितनी कीमत थी उतने में एक ठीक-ठाक सा पोर्टेबल टीवी आ सकता था. लेकिन पिताजी ने उसे बाद में लेने का मन बनाकर टेपरिकॉर्डर को तरजीह दी. हम लोगों की नाराजगी कहिए या फिर पिताजी की किस्मत वो टेपरिकॉर्डर कुछ ही दिनों में खराब हो गया. फिर सर्विस सेक्टर के रवैये ने पिताजी को आगबबूला कर दिया और उन्होंने भोपाल से लेकर मुंबई तक एक कर दिया और इतनी असरदार चिट्ठी लिखी कि मजबूरीवश मुंबई से उस नामी-गिरामी कंपनी का एक टेक्नीशियन आया और उसने टेप ठीक करके दिया.


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उस दौर में अपने पसंदीदा गानों की सूची बनाकर उसे रिकॉर्ड करवाने का चलन था. आप बस अपने पंसद के गानों को लेकर म्यूजिक स्टोर पर चले जाओ और वहां वो सारे गाने कैसेट में भर (रिकॉर्ड) देता था. ऐसी ही एक कैसेट पिताजी ने भी रिकॉर्ड करवाई थी. जिसे चलाने की तमन्ना में उन्हें तीन महीने का इंतजार करना पड़ा और खासी मशक्कत करनी पड़ी. जब टेक्नीशियन ने टेप चलाने की बात कही, तो वहीं टेप लगाया गया. और जो गाना बजा वो था- 'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कभी ज़मीं तो कभी आसमां नहीं मिलता.' वो गज़ल इतनी मौजूं थी इसलिए मुझे याद रह गई या पिताजी के चेहरे की चमक ने मुझे वो वाकया याद रखवा दिया ये कहना तो मुश्किल है लेकिन इतना ज़रूर है कि आज भी जब कभी इस गज़ल को सुनता हूं तो लगता है ये बात कभी पुरानी नहीं हो सकती है.


ऐसे ही जब कभी किसी नुकसान या मध्यमवर्गीय आपाधापी के बीच मम्मी नाराज़ हो जाती थीं या दुखी हो जाती थीं तो उस वक्त पिताजी उन्हें हमेशा एक ही लाइन दोहरा देते थे. दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है. ये वो गज़लें, वो गीत थे जिन्हें सुनकर हम बड़े हुए. सुनकर ही कहूंगा क्योंकि समझने की तमीज तो बहुत बाद में आई. लेकिन जब समझने की तमीज आई तो ये बात भी समझ में आई कि लिखा ऐसे भी जा सकता है.


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कहते हैं सबसे कठिन तो सरल लिखना होता है. निदा फाज़ली ने ये काम बहुत ही सहजता के साथ कर दिखाया. उन्होंने जो भी लिखा ऐसा लिखा कि ना सुनने वाला, कविता गज़ल से बचने वाला भी एक पल को रुक जाए और बोल बैठे ये किसने लिखा है. निदा फाज़ली का जो लहज़ा था वो इतना आम था कि हर कोई सुनने वाला उसे सुनकर कोई तस्वीर बना लेता था. ये उनकी लेखनी की खूबी थी कि वो जो लिखते थे वो दिखता था. 'रस्ते में वो मिला था, मैं बच कर गुज़र गया/ उस की फटी कमीज़ मेरे साथ हो गई.'


उनके लिखे की खास बात ही यही थी कि उसमें जितनी कबीर की फकीरी बसी थी उतनी ही गालिब की गहराई भी मौजूद थी. वो कभी मीर की तरह एकदम सादे नज़र आते थे तो कभी तुलसी की तरह आध्यात्मिक हो जाते थे. निदा फाज़ली शायद ये अच्छी तरह जानते थे कि बात दिल तक वही पहुंचती है जो सहज जुबां में हो.


पाकिस्तान में एक मुशायरे के बाद कट्टरपंथियों ने उन्हें घेर लिया और उनसे पूछा कि आप कहते हैं घर से मस्जिद बड़ी दूर, चलो ये कर लें/ किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये. क्या आप बच्चे को अल्लाह से भी बड़ा समझते हैं. इस पर निदा ने जवाब दिया था कि मैं बस इतना जानता हूं कि मस्जिद इंसान के हाथ बनाते हैं और बच्चे को अल्लाह ने अपने हाथों से बनाया है. ये जो सादगी और बच्चों की तरह निष्कपटता है यही किसी शायर, किसी लेखक को मुकम्मल करती है.


ये बड़ा ही अजीब इत्तेफाक है. इन शब्दों को सुर देने वाले का जन्म जिस दिन हुआ उस दिन इन शब्दों को रचने वाले ने अलविदा कह दिया. मेरी आवाज ही पर्दा है मेरे चेहरे का, मैं हूं खामोश जहां मुझे वहां से सुनिये. जगज़ीत सिंह को जब ये गाते हुए सुनते हैं तो लगता है कि कोई गज़ल मुकम्मल हो गई. 8 फरवरी जगजीत सिंह का जन्मदिन और निदा फाज़ली इसी दिन दुनिया से रुखसत हुए. निदा फाजली के शब्दों को जब जब जगजीत सिंह ने आवाज़ दी तो ऐसा लगा कि ये उनका ही लिखा है, उनका ही कहा है. ऐसी जोड़ियां कम ही देखने को मिलती हैं. जैसे एक वक्त मुकेश की आवाज़ और राजकपूर का चेहरा एक ही था. मुकेश की आवाज़ और राजकपूर इतने एकसार हो गए थे कि ये समझ पाना मुश्किल हो जाता था कि यहां कोई पार्श्वगायक भी है. निदा फाज़ली की गज़लों और जगजीत सिंह की आवाज़ का साथ भी ऐसा ही रहा. ऐसा लगता है जैसे दोनों एक ही फलसफे पर भरोसा करने वाला शख्स रहे हों. तभी तो जब जगजीत सिंह गाते हैं, 'अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं, रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं.' तो ऐसा लगता है जैसे दो यायावर एक साथ किसी सफर पर निकल पड़े हैं.


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वहीं जब हिसाब किताब रखने वाली इस दुनिया के लिए निदा फाजली लिखते हैं, 'दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है, सोच समझने वालों को थोड़ी नादानी दे मौला.' जब जगजीत सिंह इन शब्दों को सुर देते हैं तो ऐसा लगता है जैसे खुद जगजीत सिंह ही मौला से ये दरख्वास्त कर रहे हैं.


कहते हैं शब्द कभी मरते नहीं है, आवाज़ कभी खत्म नहीं होती है. वो लगातार ब्रह्मांड में गूंजते रहते हैं. और जब ये शब्द या आवाज़ आपकी जिंदगी का हिस्सा बन जाती है तो ये अनुवांशिकी की तरह पीढ़ी दर स्थानांतरित होते रहते हैं. ये वो शब्द हैं जो हरदम हमारे साथ रहेंगे और हम आने वाली पीढ़ियों को भी यही कहेंगे– 'छोटा करके देखिये, जीवन का विस्तार, आंखों भर आकाश है, बांहो भर संसार...'


(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)