राजनीति की रणभूमि पर चल रहे दांव-पेंच के खेल को भी इस अज़ीम शायर ने महसूस किया. कहा, ‘हमारे यहां ये क्यों हो रहा है? कैसे हो रहा है? किसके लिए हो रहा है? इन सवालों का एक ही जवाब है- इलेक्शन
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वही है ज़िंदा/गरजते बादल/सुलगते सूरज/छलकती नदियों के साथ है जो
खुद अपने कदमों की धूप है जो/खुद अपनी आंखों की रात है जो
रुआंसी, बोझिल और हारी हुई ज़िंदगियों के लिए उम्मीद की यह उजली इबारत निदा फाज़ली की नज़्म का एक टुकड़ा है जिसे एक असद पहले मैंने अपनी डायरी पर उतार लिया था. अब इन लब्ज़ों के मानी जैसे मुश्किलों में हाथ थामते हैं. एक मकबूल शायर से मेरा यह पहला तारूफ था. सामना भले ही न हुआ हो पर एक रुहानी तार ज़रूर जुड़ गया. इत्तफाकन भोपाल की कई महफिलों में जब वे नमूदार हुए तो हसरत पूरी हुई. फासले सिमटे और मौजूदा दौर के एक बुलंदपाया शायर से गुफ्तगू के मौके मुहैया हुए.
ज़िक्र उस लम्हे का जब उन्हें सिने गीतकार शैलेन्द्र की स्मृति में स्थापित सम्मान के लिए चुना गया. प्रसंगवश गुजरते कारवां पर उनकी राय जानने की इच्छा हुई. अव्वल तो निदा ने शैलेन्द्र को साहिर के बाद दूसरा अपना पसंदीदा फिल्मी गीतकार माना. कहा कि शैलेन्द्र इन मायनों में जुदा थे कि उन्होंने सिनेमा जैसे बड़े माध्यम के लिए बेसाख्ता, बेशुमार और मुख़्तलिफ लिखा. वे एक्टिविस्ट थे. उनकी पहचान भारत की लोक संवेदनाओं से जुड़ती है, जब वे ‘सजन रे झूठ मत बोलो’ और ‘पान खाए सैयां हमार’ लिखते हैं. निदा, शैलेन्द्र को सीरियस लिट्रेचर से आया गीतकार नहीं मानते लेकिन बकौल उन्हीं के, साहित्य की अलग स्थापित दुनिया से दूर सिल्वर स्क्रीन के लिए टची और टिकाऊ लिखना कम चुनौतीपूर्ण नहीं.
निदा फाज़ली सदा की तरह ताज़ादम. हाज़िर जवाब. मुखर, लेकिन हर बात तर्कों के साथ पेश करने में माहिर. याददाश्त के धनी और पहचान के मुताबिक मुकम्मल शायराना और यारबाज़. अपने वक्ती हालातों से इतने गहरे वाबस्ता कि सवाल सियासत, समाज, मजहब और अदब से जुड़ा हो, दो टूक बयानी के लिए फौरन तैयार. दिलचस्प ये कि हर बात का आखिरी सिरा उम्मीद की डोर से गांठ बांध लेता. फिर याद आती है उन्हीं की एक नज़्म-
‘‘धरती और आकाश का रिश्ता/जुड़ा हुआ है/इसीलिए चिड़िया उड़ती है/
इसीलिए नदिया बहती है/रात और दिन के बीच/कहीं सपना ज़िंदा है/
मरी नहीं है/अब तक ये दुनिया ज़िंदा है.’’
ये सच है कि निदा फाज़ली की कलम उदास हो रही दुनिया के लिए एक आश्वासन की तरह है. वह अपने समय को चुनौती देती है और समय में ही जीवन की स्थापना भी करती है. आतंक से जुड़े जलते सवाल पर उन्होंने फरमाया, ‘‘आतंक की कोई सरहद, कोई भाषा, कोई धर्म-जाति, नाम नहीं. हर युग में उसकी छाया रही है लेकिन हर दौर में रावण है, तो राम भी हैं. कंस है, तो कृष्ण भी हैं. हमें खुद अपने भीतर प्रतिकार की ताकत जुटानी होगी. बुझा मन लेकर ज़िंदगियां नहीं जी जातीं. ...जितनी बुरी कही जाती है, उतनी बुरी नहीं है दुनिया...’’
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राजनीति की रणभूमि पर चल रहे दांव-पेंच के खेल को भी इस अज़ीम शायर ने महसूस किया. कहा, ‘हमारे यहां ये क्यों हो रहा है? कैसे हो रहा है? किसके लिए हो रहा है? इन सवालों का एक ही जवाब है- इलेक्शन. देश का हर मुद्दा चुनावों की राजनीति के घेरे में है. कोई भी दल हो, कहीं से भी डेमाक्रेसी के पाए को मज़बूत करने की कवायद दिखाई नहीं देती.'
सवाल मोदी का किया तो कहा, 'वे भी एक चलते-फिरते ज़िंदा इंसान हैं.' निदा फाज़ली को लगता था कि ये नरेन्द्र मोदी 2002 वाले नहीं है. 'इन गुजश्ता सालों में उनके भीतर का लोहा भी पिघला होगा. फिर हम ये क्यों भूल जाते हैं कि 1984 के दंगों में तीन हज़ार, सिख मारे गए थे. मोदी का इलेक्शन प्रोजेक्शन हो या किसी और का, इस मुल्क की जनता को अपनी अक्ल से मोहर लगाना आता है.'
यह जिज्ञासा प्रायः बनी रही कि निदा खुद को किस निगाह से देखते हैं. इस ख्वाहिश के साथ ‘दीवारों के बीच’ के पन्ने पलटे जा सकते हैं , जिसमें निदा खुद एक किरदार की मानिंद ज़िंदगी के पोशीदा पहलू खोलते हैं. यहां निदा अपनी, अपने कुटुम्ब, अपने पड़ोस और दुनिया की सरहदों तक से रिश्ता जोड़ते अनुभवों का ज़ख़ीरा लिए आपसे रूबरू हो सकते हैं. ज़मीनी दायरों से जोड़कर देखें तो निदा का ताल्लुक ग्वालियर, दिल्ली और मुंबई से रहा, लेकिन यायावरी के चलते उनके पांव अपने मुल्क ही नहीं, समंदर पार के पड़ाव भी नापते रहे. हर लम्हा कुछ नया, चमकदार और असरदार बटोरते हुए नई लहक-महक के साथ पेश करने की फितरत. कभी नज़्म-ग़ज़ल तो कभी गीत-दोहे. उनका मन गद्य में भी खूब रमा. नई करवटों को लेकर निदा का कहना था, ‘‘मैं छंद का विरोधी नहीं हूं. पर अपने को कभी एक लेखक में समेटकर नहीं रखना चाहिए. कोई भी कवि पूरे संसार को कभी कह ही नहीं पाया. भला मेरी क्या हस्ती है. मगर मेरा मानना है कि आज ज़िंदगी में पेचीदगियां इतनी बढ़ गई हैं कि कविता में उन्हें ठीक से कह पाना ज़रा मुश्किल हो गया है. लिहाजा मैंने गद्य लिखना शुरू कर दिया. बीबीसी डॉटकॉम के लिए अपने तजुर्बे लिखे. मुझे खुशी है कि मेरे प्रोज़ को दुनियाभर में पढ़ा जाता रहा और कभी-कभी वह बहसों में भी शुमार होता है.'
बहरहाल, कविता हो या गद्य, निदा फाज़ली की लेखनी का मिज़ाज़़ अपने आप में निराला रहा. कभी सख्त, कभी मासूम, तो कभी सूफियाना मनमौजी उनके कलामों में उतर आती थी. सूरज, आंगन, मां, बहन, बच्चे, दरख्त, चिड़िया और मौसम का ज़िक्र जब वे करते, तो मिट्टी की गंध और ताज़ा महक का करिश्माई संवाद रगों में उतर आता. और यह देसी ताना-बाना भाषा की जिस सोहबत में हम तक पहुंचता है वह निश्चय ही निदा फाज़ली की कमाई है जिसे उन्होंने मुसलसल मांजा है. कह सकते हैं जीवन और जड़ों से सिंचित भाषा, जो कविता में जड़कर ज़िंदगी का ही एक हिस्सा बन जाती है. यहां निदा फाज़ली ने एक सवाल के जवाब में अपनी बेलौस राय जाहिर की थी, ‘‘कबीर को क्या मानते हैं आप? खुद कबीर कहते हैं कि उन्होंने स्याही-कागज़ को कभी छुआ नहीं. कहीं भाषा की ग्रामर पढ़ने नहीं गए. मगर उनकी सधुक्कड़ी भाषा ने जो महान कविता विरासत में दी उस पर हमें नाज़ है. दर हकीकत यह आम आदमी की भाषा में कही-बोली गई कविता है. मैं खुद ऐसी ही भाषा की तलाश करता रहा हूं. जब तक कविता की जुबान आम आदमी से मेल नहीं खाएगी तब तक कविता हिन्दी की हो या उर्दू की, उसका नाता बिरादरी से नहीं हो पाएगा. फिर ऐसी पोएट्री का क्या मकसद?'
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निदा फाज़ली इसी रौ में दुष्यंत कुमार की याद करते. उन्हें फक्र था कि इस शायर के नाम से भोपाल के दुष्यंत संग्रहालय ने उन्हें अवार्ड दिया है. निदा की नज़र में दुष्यंत कुमार आज़ाद भारत के साहसी और प्रयोगधर्मी कवि थे जहां से कविता ने नया रुख किया. अज्ञेय तक जो कविता ड्राइंग रूम तक सिमटी थी, दुष्यंत ने उस कविता का नया संस्कार कर उसे जनता के बीच प्रतिष्ठित किया. हिन्दी-उर्दू को पास-पास लाकर उन्होंने कविता में गंगा-जमुनी तहज़ीब को तवज्जो दी. ‘‘मैं भी अपने को दुष्यंत कुमार की विचारधारा का ही राइटर मानता हूं.’’ इस कथन के आसपास निदा की लेखनी का चेहरा निहारें तो उसके भीतर पैठने के लिए आवाम को बहुत ज़हमत नहीं उठानी पड़ती. अल्फाज़ बड़े नहीं होते लेकिन बातें बड़ी जरूर होती हैं वे किसी स्कॉलर की पसंद होते हैं, तो एक राहगीर की जुबां पर भी उनके शेर चस्पा होने की काबिलियत रखते हैं. यूं एक बड़ा फलसफा है उनकी शायरी का जिसमें भारतीय जीवन अपने पूरी देसीपन के साथ नमूदार होता है, तब, जबकि सारा जहां ग्लोबल दौर की चकाचौंध में अपने अतीत और रवायतों से आंखमिचौनी कर रहा है. लेकिन जैसी कि इस शायर की फितरत है, ‘‘छोटा करके देखिए, जीवन का विस्तार, आंखों भर आकाश है, बांहों भर संसार’’, ज़िंदगी से मुंह फेरने की बजाय वे अपनी रचनाओं में आरजुओं और उम्मीदों से लबरेज सदा एक सुनहरा पैगाम टांकने को आतुर दिखाई देते हैं- सूरज भी चमक रहा है... मां लोरी गा रही है... बच्चे स्कूल जा रहे हैं...
(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)